गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

लघुकथा : धैर्य की दिशा

लघुकथा : धैर्य की दिशा
स्टेज पर अवि पुरस्कार लेता हुआ और दर्शक दीर्घा में अंकू के साथ मैं । तालियों की गड़गड़ाहट में खुशियों में झूमता मन कितने वर्ष पीछे चला गया ....
माँ देखो न ये अवि बात ही नहीं मान रहा ... सारी दीवाल पर पेंसिल से लाइन खींच रहा था मैंने पेंसिल ले ली तो अब देखो न चम्मच उठा लाया .... अंकु परेशान सी मेरे सामने खड़ी हो गयी ।
मैंने कहा कि वो भाई को ले आये । उनके आने पर मैंने अवि को समझाया कि दीवाल पर नहीं लिखते और उसके हाथों में ड्रॉइंग की कॉपी और पेंसिल थमा दी थी कि उस पर जो भी मन हो बनाये ।
आज की इन तालियों की गड़गड़ाहट में मेरे उस दिन का धैर्य और अवि को सही दिशा मिलने का उपक्रम झलक रहा है । .... निवेदिता

बुधवार, 21 नवंबर 2018

लघुकथा : नजरिया

लघुकथा : नजरिया
चौपाल पर सब बतरस का आनन्द उठाते हर विषय पर कुछ न कुछ बोल रहे थे । चर्चा स्वच्छता अभियान पर भी चल निकली ।
एक व्यक्ति ने आसपास फैली गंदगी देखते हुए कहा ,"देखो कितनी गन्द मची है ।ये बन्दर भी टहनियाँ तोड़ कर डाल गए । चलो शाम को ठेला लाकर मैं सब साफ कर दूंगा ।"
तभी अचानक से ही पड़ोसी काकी उठी और उन्होंने कुछ डालियों को वहीं पड़ी हुई घास की डोरी सी बनाकर बांध कर झाड़ू बना लिया और सारा कूड़ा इकट्ठा करने लगीं ,और कहा ,"सफाई तभी रह सकती है ,जब कूड़ा तुरन्त हटाया जाए ।"
..… निवेदिता

सोमवार, 19 नवंबर 2018

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

अनकहे दो द्वार .....



क्यों ..... सुनो .......
ये दो शब्द नहीं
ये सात जन्मों के साथ के
अनकहे दो द्वार हैं
मेरी क्यों कोई सवाल नही 
तुम्हारी सुनो कोई जवाब नही
रूठने मनाने जैसा साथ हो
बताओ न क्या यही साथ है .....

चौथ का चाँद पूजती हूँ
पूर्णमासी का चाँद नही
जानते हो क्यों .....
ये अधूरापन भी तो
सज जाता है चांदनी के श्रृंगार से
मेरी क्यों भी तो पूरित होती है
तुम्हारे सुनो की पुकार से ....

जानती हूँ .... ये सफर जीवन का
इतना सहज भी नही .....
इसीलिए तो साथ हमारा प्यार है
कहीं किसी राह में लगी ठोकर
लड़खड़ाते कदम भी संभल जाएंगे
थामे एक दूजे के हाथ
शून्य से क्षितिज पर आ ही जाएंगे .... निवेदिता

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मेरी मेहंदी की लकीरों में .......


मेहंदी का कोन
यूँ ही लहराता सा
झूम रहा था
सबने पूछा
फूल पत्ती 
आकाश समंदर
क्या बना रही हो
मैंने बस यही कहा
मैं कहाँ कुछ बना रही
ये मेहंदी तो
बस यूँ ही थिरक गयी
देखो न ये क्या बन गया
कुछ रेखायें सी उभरी हैं
इनके बीच सितार झंकृत हो गया
तुम्हारा नाम रच गया
मेरी मेहंदी की लकीरों में ....... निवेदिता

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

हाइकू


१  .... 
कलकल सी 
अविरल बहती 
धार नदी की 

२  ..... 
बंजर जमीं
इश्क घने बादल
वर्षा न थमी 

३  .... 
हमारा हास
करता परिहास
है इतिहास .... 

४  ....
चाँद निकला
खिलखिलाता हुआ
पूर्णिमा छाई 

५  .... 
मुस्कराते तारे
चन्दा चाँदनी संग
पूर्णिमा खिली
            ... निवेदिता

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

श्रुतिकीर्ति : एक अलग मनःस्थिति


चमकते सितारों को देख देख
आँख मेरी भी डबडबाई
हाँ ! हूँ मैं भी इक सितारा
चमकता नहीं बस टिमटिमाता हूँ !
प्रिय पात्रों को ध्रुवमण्डल सा
क्या खूब सजाया तुमने
मुझसे तारे रह गए अनदेखे
आसमान में अंधियारा सा सितारा हूँ !
कहीं अनुसरण मान दिलाता है
कहीं कर्तव्य अलग दिखलाता है
सन्यासी भाव अनुशंसा पाता है
नींव की ईंट सी चुप्पी क्यों नहीं सुन पाते हो !
तुला के दोनों पलड़े हो तुम
पलड़ों को साधे डोर की धार हो
हाँ ! इक सीधी दीवाल हो तुम
मिस्त्री की कन्नी की ठोकर से बेजार हो !
रुष्ट नहीं तो तुष्ट भी नहीं हूँ
श्रुत नही तो कीर्ति भी नहीं हूँ
इतनी बेबस इतनी लाचार नहीं हूँ
क्योंकि मैं ... हाँ ! मैं श्रुतिकीर्ति हूँ !
                                       ..... निवेदिता

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

श्रुतिकीर्ति


श्रुतिकीर्ति
अहा ! इन्ही खुशियों भरे पलों की प्रतीक्षा थी हम सब को ... हमारी अयोध्या के प्रत्येक कण को । दिल करता है इन पलों के प्रत्येक अंश को जी भर देखने ,संजो लेने में मेरी ये दो आँखें असमर्थ हो रही हैं ,तो बस पूरे शरीर को आँखें बना लूँ !
भैया राम का राजतिलक ,साथ में सीता दीदी अपने तीनों देवरों के साथ ... कितना मनोहर है ये सब ।
अरे ये उधर से कैसी फुसफुसाहट आ रही है ... रुको सुनूँ तो क्या बात है ! राज परिवार का अर्थ सिर्फ राजसी शान का उपभोग ही नहीं है ,अपितु सबका मन जानना भी है ... प्रत्येक पल सजग रहना और जानना होता है सबके मन को ... और पता है इस तरह की फुसफुसाहट बिनबोले ही बहुत कुछ बता देती है ।
इन सबकी बातों में मेरा और शत्रुघ्न का नाम बार बार आ रहा है ... ऐसा क्या हो सकता है ! अब तो उत्सुकता और भी बढ़ गयी है ... क्योंकि ये दो नाम तो कभी इस तरह बोले ही नहीं जाते ....
उफ्फ्फ .... क्या क्या सोचते हैं लोग ... पर मैं क्या करूँ ,इन बातों को सुनकर मेरी तो हँसी ही नहीं थमा रही ...
असल में उनकी चर्चा का विषय थी मेरी उपेक्षित स्थिति । देखा जाए तो गलत वो भी नहीं थे । सीता दीदी भैया राम के साथ वन गमन करके पूज्य हो गयी थी । मांडवी दीदी भरत भैया के अयोध्या में रहकर ही सन्यासी जीवन मे साथ दे प्रशंसनीय थी । उर्मिला दीदी भी कर्मवीर का मान पा रही थीं कि लक्ष्मण भैया वन में राम भैया के साथ हैं तो वो यहाँ राजमहल में लक्ष्मण भैया के कर्मठ रूप की प्रतिमूर्ति बन गयी थी । अब बाकी बची मैं जिसकी कहीं भी चर्चा अथवा उल्लेख ही नहीं होता !
यद्यपि शत्रुघ्न और मुझे दोनों को ही पर्याप्त स्नेह और मान दोनों ही प्राप्य था ,तथापि आमजन यही समझता कि हमें उपेक्षित किया जा रहा है !
किसी भी परिवार में ,चाहे वो आम व्यक्ति का हो अथवा विशिष्ट का ,एक तुला में किसी को भी नहीं नापा जा सकता और चाहिये भी नहीं । हर व्यक्ति की अपनी प्रकृतिजन्य विशिष्टता होती है । किसी को परिवार में दरकती दरारें और उन दरारों को पूरित करने की आवश्यकता दिख जाती है तो किसी में सबके सामने आकर दायित्वों और उसके किसी भी तरह के परिणाम की जिम्मेदारी लेने की सजगता रहती है।
ऐसा तो सम्भव ही नहीं कि एक ही व्यक्ति प्रत्येक स्थान पर स्वयं ही पहुँच कर समाधान कर सके । परिवार नाम की संस्था का औचित्य ही यही है कि सब सहअस्तित्व के भाव से अपना योगदान दें ।
राजा तो ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है । इसका कारण मात्र अंधानुकरण नहीं अपितु तार्किक है । सिंहासीन अनुज के समक्ष यदि ज्येष्ठ आज्ञापालन के भाव से खड़ा होगा तब अनुज को भी विचित्र परिस्थिति में डाल देगा । सलाह तो ,बड़ा हो या छोटा ,कोई भी दे सकता है परन्तु आदेश ....
हमारे परिवार में कार्य विभाजन ही हुआ था ... इस तरह से भैया राम और सीता दीदी ने सबसे दुष्कर कार्य अपने लिये चुना था ,बहाना जरूर माता कैकेयी बनी पर राम के मर्यादापुरुषोत्तम बनने में माता का अपने वरदानों को कार्य रूप में परिणित करना था । सुदूर वन्य प्रदेश के संभावित शत्रुओं का समूल नाश करके भैया ने अयोध्या को एक नई गरिमा दी ।
यदि हम ये सोचें कि प्रत्येक व्यक्ति का नाम होना चाहिये तब हमारी सेना के प्रत्येक सैनिक का नाम सबसे पहले होना चाहिये ... परन्तु क्या ये सम्भव है !
जब सेना नष्ट हो जाती है तब राजा अकेले युद्ध पर नहीं जाता ,वह सबसे पहले अपना सैन्यबल बढ़ाता है तब युद्ध करता है ।
मांडवी दीदी हों अथवा उर्मिला दीदी या फिर स्वयं मैं ... हमसब कहीं भी उपेक्षित नहीं हुए । हमने तो अपने दायित्वों का निर्वहन किया और परिवार के लिये नींव का कार्य किया ।
सबसे बड़ा और मूल प्रश्न यदि हम उपेक्षित होते तब क्या कोई भी हमारा नाम तक जान सकता ... !
प्रत्येक बिंदु के मिलने से ही किसी भी आकृति का निर्माण होता है ।
इस तथ्य को सबको समझना और समझाना पड़ेगा अन्यथा वनवास पर भेजे जाने की प्रक्रिया सतत चलती ही रहेगी और परिवार छोटे छोटे टुकड़ों में बँट कर नष्ट हो जाएगा !
..... (निवेदिता)

रविवार, 26 अगस्त 2018

एक वसीयत मेरी भी ....... निवेदिता



एक सपना मेरा भी  ......
समुंदर के किनारे पर
खूब सारी सीपियाँ बटोरूँ
समंदर की लहरों की फुहार 
चेहरे पर ओस की बूंदों सा छुएं
पहाड़ की चोटियों को 
बादलों से ढंके देखूँ
बादलों की साँस भरूँ
फूलों के अथाह रंग हों
खुशबू से मदहोश हो जाऊँ
किताबों से घिरे इस घने से
जंगल में बस गुम हो जाऊँ
एक वसीयत मेरी भी ....... निवेदिता


चित्र साभार गूगल से 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

बचपने वाला बचपन ......


बचपन  .... ये ऐसा शब्द और भाव है कि हम चाहे किसी भी उम्र या मनःस्थिति में हों ,एक बड़ी ही प्यारी सी या कह लें कि मासूम सी मुस्कान लहरा ही जाती है | बच्चे को अपने में ही मगन हाथ पैर चला चला विभिन्न भंगिमाएं बना बना कर खेलते देखते ही ,मन अपनी सारी उलझनें भूल कर उसके साथ ही शिशुवत उत्फुल्ल हो उठता है | बचपन किसी भी तरह की दुनियादारी से अनजाना रहता है ,सम्भवतः इसीलिए वो जिंदगी की विशुद्ध ऊर्जा से आनंदित रहता है |
अक्सर ही सोचती हूँ कि जिंदगी के हर मोड़ पर ,उसकी हर चुनौतियों का सामना करते हुए भी मन बच्चा ही क्यों बनना चाहता है ! जिंदगी के हर पल में अलग अलग सुख होते हैं  .....  शिक्षा प्राप्त करते हुए प्रतिदिन कुछ नया सीखने के चुनौती रहती है तो कभी खुद को साबित कर सामाजिक सरोकारों के अनुसार प्रतिष्ठित स्थान पाने का प्रयास करते हैं | खुद को स्थापित करते हुए ही ,अपनी संतति को भी उनका आधार मुहैय्या करवाने का भी प्रयास सतत चलता रहता है | इन सभी पलों में कुछ पाते और कुछ खोते हुए भी ,अपने अंदर के बच्चे को भी खोजने और पाने का प्रयास अनजाने ही करते हैं | हमारी किसी बचकानी हरकत पर अगर किसी का ध्यान चला जाता है तो हम उसको छुपाना चाहते हैं और फिर से अपनी तथाकथित गंभीरता के आवरण में छुप जाते हैं |
कभी पुराने दोस्तों के साथ रियूनियन के नाम पर इकट्ठा होना ,किसी पार्टी की थीम बचकानी रखना ,बचपन के खेलों को याद करके उनको खेलने का प्रयास करना ,बच्चों के साथ तुतला के बोलना  .... ये और ऐसे ही कई प्रयास करते हैं और खिलखिला पड़ते हैं | विभिन्न प्रयासों से प्राप्त किया बचपन ,क्या सच में बचपन होता भी है  .....
मुझे तो नहीं लगता है कि ये या ऐसी कोई भी हरकत हमकों फिर से बच्चा बना सकती है |
हमारा बचपन सिर्फ तभी तक ज़िंदा रहता है ,जब तक हमारी माँ जीवित रहती हैं | हम कितने भी बड़े हो जाएँ - माता पिता या बाबा दादी भी बन जाएँ पर माँ के सामने हम छोटे से बच्चे ही रहते हैं | उनकी हर याद हर बात में हमारा बचपन अपने विशुद्ध बचपने वाले रूप में तरोताजा रहता है | उनको याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ती अपितु कुछ भी साम्यता दिखने पर ,माँ उस पल में पहुँच जाती हैं | इस काम में उनको पलक झपकने जितना भी समय नहीं लगता | भले ही हमारी पसंद नापसंद ,कितनी भी बदल गयी हो पर उनके पास पहुँचते ही उनके द्वारा बनाया गया मिर्चे के अचार और पराठे वाले लोली पोली (रोली पोली ) दुनिया के सारे व्यंजनों पर भरी पड़  चटखारे दिलवा ही देती है | दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े ब्रांड या डिजानर की ड्रेस खरीद लूँ वो भूल भी जाउंगी ,पर यादों में तो आज भी माँ की बनाई हुई ड्रेसेस बसी हुई हैं | बहुत छोटी थी तब मम्मी ने साइड में ढेर साडी फ्रिल वाली ड्रेस बनाई थी ,सुर्ख लाल रंग की ..... मैं खुद भी बहुत सिलाई करती थी ,पर अपनी बनाई कोई भी ड्रेस मुझे नहीं याद।,हाँ ! जिनके लिए बनाई थी वो आज भी जिक्र करते हैं !दो बड़े होते बच्चों की माँ होते हुए भी मेरा बचपना उनके पास पहुँचते ही जैसे कुलांचे मारने लगता था |
जिस दिन अपनी माँ को शांत हुए देखा ,मेरे अंदर का बच्चा भी मर गया | अथक प्रयास किया ,फिर से वही जीवंतता ओढ़ने का पर न हो पाया | ये प्रयास छन्नी में पानी रोकने के प्रयास जैसा निष्फल ही रहा |
मैं भी एक माँ हूँ ,शायद इसलिए सप्रयास बच्चों के साथ बच्चा बनी  .... अब जब बच्चे बड़े हो गए हैं ,तो वो अपने दुलार से मेरा बचपना ज़िंदा रखना चाहते हैं  .... पर सच कहूँ तो मेरा बचपन जिन्दा हो जाता है पर वो बचपने वाला बचपन तो माँ के साथ ही दम तोड़  गया  ...... निवेदिता

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

शिकायत थी जिंदगी से ......

शिकायत थी जिंदगी से
कभी कोई हमनवां नहीं मिलता .... 

आज सोचती हूँ ( तो )
समझती हूँ कि मिलता है ,
और अक्सर ही मिलता है .... 

बस कभी उनको तो
कभी हमको समझ नही आता ....
दोनों समझ सकें बस
वो लम्हा नहीं मिलता ..... निवेदिता

सोमवार, 9 जुलाई 2018

ईश्वरीय प्रतिमान .......

 
ईश्वरीय तत्वों के एकाधिक मुख और हाथ होने के बारे में हम पढ़ते और सुनते आए हैं ,परन्तु कभी इसका कारण अथवा औचित्य जानने का प्रयास ही नहीं किया । सदैव एक अंधश्रध्दा और संस्कारों के अनुसार मस्तक नवा कर नमन ही किया है । आज अनायास ही इसपर विभिन्न विचार मन में घुमड़ रहे थे और मैं उनकी भूलभुलैया में भटकती अनेक तर्क वितर्क स्वयम से ही कर रही थी । कभी सोचती कि आसुरी तत्वों का विनाश करने के लिये एकाधिक हाथों की आवश्यक्ता है ,अगले ही पल सोचती कि सृजन करने के लिये ऐसी लीला रची होगी ईश्वर ने । 
इन और ऐसे ही अनेक विचारों से जूझ रही थी कि लगा कि ये समस्त तर्क उचित नहीं । ईश्वर का होना किसी समस्या के समाधान से कहीं अधिक है हमारे अंदर समाहित असीमित क्षमताओं का ज्ञान होना । ईश्वर भूख लगने पर सिर्फ भोजन करा के ही तृप्त नहीं करते अपितु भोजन बनाने के साधन से भी परिचित कराते हैं । 
ईश्वरीय प्रतिमान के कई मुख और हाथ हमारे अंदर छिपी हमारी सामर्थ्य के परिचायक हैं । हम सबमें अपार सम्भावनायें छुपी हैं ,जिनको कभी किसी की प्रेरणा से हम जान पाते हैं और कभी सब कुछ अनजाना रह कर ,अपनी धार्मिक मान्यतानुसार चिता की दाहक अग्नि में समा जाता है ।

समय पर अगर अपने अंदर छुपी इस सम्भावना को पहचान लिया जाये तो अपने साथ ही साथ समष्टि के भी हित में होगा । अकेलापन ,उदासी ,अवसाद जैसी तमाम नकारात्मक भावों से मुक्ति पाने के लिये ये सबसे प्रभावशाली अस्त्र प्रमाणित होगा । 

जब भी ऐसे किसी भी ईश्वरीय प्रतिमान की अर्चना करें तो एक बार अपने अंदर की अतल गहराइयों में छुपी हुई ऐसी किसी भी सम्भावना पर पड़ी हुई धूल को भी जरूर बुहार कर स्वच्छ कर लेना चाहिए  .... निवेदिता

रविवार, 20 मई 2018

#एक पलायन ऐसा भी .......


चाहती हूँ देखना
तुम्हे तुम्हारी सम्पूर्णता में
बस एक कदम की ही तो 
ये नामालूम सी दूरी है बनाई
सुनो तुम जानते हो न
निगाहों की भी उम्र होती है ..... निवेदिता

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

सरगोशी .....



तुम्हारी पलको तले
कुछ सरगोशी सी हुई
मोहब्बत ...
ये क्या होती है
और मैंने 
अपनी अलको से
बस
तुम्हारा नाम लिख दिया  ...... निवेदिता

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन ......

वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन  ...... ये वैसे तो एक गीत की पंक्ति है ,पर मैं कई दिनों से यही सोच रही थी कि सच में ये सम्भव है भी कि छोड़ना सम्भव है क्या ,चाहे वो मोड़ खूबसूरत हो या विवशता  ..... 
अफ़साना है क्या  .... क्या उसको सिर्फ एक कहानी मान लिया जाए या फिर कहानी से परे जा कर एक अनुभव या फिर चंद लम्हों की कुछ जीवंत साँसें  ..... अफसाना यानि कि कहानी - इसमें तो कुछ चरित्र होते हैं जिसमें एक के मन की बात और परिस्थियाँ दूसरा पहले तो बड़ी ही आसानी से ,जैसे वो सब उसके अपने ही  मन में चल रहा हो ,समझ जाता है फिर अचानक से ही वही चरित्र उसी दूसरे की बातों को एकदम से अलग ही रूप ले उसको गलत समझने लगता है  .... और उसके बाद कुछ ख़ास नहीं बस वो उस कहानी के लिए एक सा खूबसूरत (?) मोड़ तलाशने लगता है  .... 
ये मोड़ क्या वाकई खूबसूरत होता है या हो भी सकता है  .... जिस भी पल में हम किसी ख़ास को छोड़ने की बात सोच भी सकें वो खूबसूरत हो ही कैसे सकता है  .... खूबसूरत का अर्थ ही मुझे तो लगता है वो साथ जिसमें देखी या जी जा रही जिंदगी उन लम्हों की खूबसूरती का एहसास करा सके  .... अगर वो साथ ही न रहा तो खूबसूरती कहाँ रह पायी  .... 
खूबसूरत हम मानते किस को हैं - जो देखने में आकर्षक लगे या जिसका होना ही सब के प्रति सकारात्मकता लाये  .... खूबसूरती आँखों से देखने की चीज है या जो रूह को महसूस हो वो है  .... आँखों से देखने में जो एक के लिये खूबसूरत है वही दूसरे को साधारण लग सकता है  .... रूह के साथ भी ऐसा ही है क्योंकि आत्मिक और अनजाना भी , जुड़ाव हरएक के साथ तो नहीं हो सकता  ..... 
रही बात छोड़ने की तो क्या सच में जिस को हम छूटा हुआ कहते हैं वो हमसे या हम उससे छूट जाते हैं  .... जहाँ तक मेरी सोच जाती है तो छूटना तो मैं उसको ही मानती हूँ जिसका अस्तित्व ही मेरे लिए न बचे  .... मेरा मतलब सिर्फ उसके दिखने या न दिखने से नहीं है अपितु मेरी किसी छोटे से छोटे नामालूम से लम्हे में भी मैं उस को महसूस न कर सकूँ ,न ही उसकी नकारात्मकता से और न ही नकारे जाने की याद से  .... अगर बेसाख्ता से किसी लम्हे में याद भी आ जाये ,बेशक अपनी तमाम कमियों के साथ भी ,तब भी वो छूटा कहाँ  .... तमाम लम्हों में सिर्फ छोड़ने का अभिनय ही तो किया जा सकता है पर छोड़ दिया तो नहीं कह सकते  .... हाँ औरों से तो कह सकते हैं पर हमारी अंतरात्मा तो सच जानती ही है  .... 
कल मैंने फेसबुक पर भी एक ऐसा सा ही स्टेटस डाला था और उसकी प्रतिक्रिया भी इनबॉक्स भी और वॉल पर भी यही थी कि खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ देना चाहिए - भइया ने कहा कि क्रमशः लगाकर छोड़ना बेहतर -सखी ने कहा जिस मोड़ पर छूट जाये वही मोड़ खूबसूरत है - पर मुझको अभी भी यही लगता है कि  ..... 

जो छूट जाए वो अफसाना नहीं 
छूटने की बात कहे वो दीवाना नहीं 

मोड़ जो मुड़ कर मोड़ पर छोड़ दे 
मोड़ ही है वो मंजिल तो कभी नहीं  


अफ़साना हो अफसानों की बातें करना 
न तो छोड़ना आसान है न ही मुड़ना 

अंजाम की परवाह करे जो हमेशा 
परवाने सी खूबसूरत मुहब्बत नहीं   ...... निवेदिता 

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

एक बुनाई एहसासों की ........



बुनना चाहती हूँ एक स्वेटर लफ्जों का
सुन कर ही शायद ठंड अबोला कर जाए
बुनना चाहती हूँ एक स्वेटर अपनी यादों का
यादें आ आकर गुच्छा बन समेट लें वीराने में
बुनना चाहती हूँ एक स्वेटर एहसासों का
छुवन से ही चमक जाए चटकीली सी धूप
बुनना चाहती हूँ एक स्वेटर अपने साथ का
न रहने पर आगोश में भर सहला दें साथ सा   ...... निवेदिता