गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

इस सदी का सोलहवां साल ......



एक रस्मी रवायत की तरह ,आज और कल हम जाते हुए वर्ष की विदाई और आने वाले वर्ष का स्वागत करते हुए ,परस्पर बधाइयों का आदान - प्रदान करेंगे  .... पर क्या इस वर्ष भी हमको सिर्फ इतना ही करना चाहिए ,या कुछ और भी सोचना - समझना चाहिए  .... 
कल से इस सदी के सोलहवें वर्ष की शुरुआत होगी  .... सोलहवां साल - ये किसी के भी जीवन में एक विशेष स्थान रखता है  .... इससे जुडी यादें और जिम्मेदारियां हमारे जीवन में एक अलग सा ही स्थान संजोये रहती हैं  ... नामालूम सी बातों में भी एक जिम्मेदारी की अनुभूति होती है  ... शायद ये अपनेआप को और अपनी महत्ता जताने का तरीका रहता है  ... 
जब हमारे जीवन में सोलहवें साल का इतना महत्व है तो समय के ,इस सदी के लिए भी सोलहवां साल कुछ विशेष ही होना चाहिए  .... कुछ न कुछ सार्थक करने का प्रयास करें हम सब अपने - अपने स्तर पर  .... इस के लिए हमको अलग से कुछ नही करना है ,सिर्फ अपनी सोच को एक नया विस्तार देना है  .... लगभग हर कार्य पर  खुद अपने प्रति ही जवाबदेही निश्चित करनी होगी कि हमारे किसी भी कार्य का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा  .... 
व्यक्तिगत स्तर पर हम अपना आकलन करें कि हमको जैसा समाज मिला था ,हमने उसको समृद्ध करने में  योगदानस्वरूप क्या किया  ..... और कुछ न भी कर पाएं तब भी कम से कम इतना तो कर ही लें कि अपने बच्चों और उनकी सोच को इतना परिष्कृत कर दें कि वो अपनी सकारात्मक उपलब्द्धियों में हमसे कुछ कदम तो आगे बढ़ कर रखें  ......
बच्चों के लिए हम अपने घर को सबसे सुरक्षित स्थान बनाने का प्रयास करते हैं ,ऐसे ही समाज को इतना सुदृढ़ कर दें कि वो कहीं भी रहें और सुरक्षित रहें  ..... मोमबत्तियां जलाने या विरोध प्रदर्शन की नौबत ही न आने पाये  ....... 
बेटी और बेटे से आगे बढ़ कर हम "बच्चों"  के लिए सोचें  ..... 
आज बस यही कामना करती हूँ कि परमशक्ति हमारे विचारों और कार्यक्षमता में सोलहवें वर्ष का उत्साह , साहस और जिजिवषा भर दें जिससे जब हम अगले वर्ष नए वर्ष की प्रतीक्षा करें ,तब सुखद स्मृतियों के साथ उर्ज्वित रहें  ..... निवेदिता 

रविवार, 27 दिसंबर 2015

27 / 12 / 15



                                             मुंदी पलकों तले
                                                   कुछ सपने पले थे
                                                           मुस्कराये - सकुचाये
                                                                ठिठके - अलसाये से

                                             पलके खोले बैठी
                                                   राह तकती लखती हूँ
                                                           उन्हीं अलबेले  सपनों के
                                                                      बस  सच हो जाने की
                                                                              ....... निवेदिता 


बुधवार, 9 दिसंबर 2015

तन्हा .........





शब्दों की भीड़ में
एक अक्षर तन्हा  …
रिश्तों की भीड़ में
एक मन तन्हा  ....
सुरों की सरगम में
एक सुर तन्हा  .....
खिलखिलाते ठहाकों में
एक मुस्कान तन्हा  ....
सतरंगी सा सजा इन्द्रधनुष
ये एक रंग तन्हा  .......
यादों - वादों से भरी ये किताब
अंतिम कोरा पन्ना तन्हा  .......
बैठ पर्वत के शिखर पर
जीती हूँ एक साँस तन्हा  ......... निवेदिता

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

कोई ख्वाब .....



रूह में पैबस्त
जब कहीं  ....
कोई ख्वाब होता है
हज़ार ख्वाहिशों सी
सरगोशियों में
फलक तक
धड़कती सी
आरजुओं  का
इक बायस होता है ! .... - निवेदिता

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

पुलकित प्रमुदित मन साथी मधुमास बना ....



छल -छल करती 
सरिता कह लो 
या निर्झर बहते जाते 
नीर नयन से
तरल मन अवसाद सा 
बहा अंतर्मन से
कूल दुकूल बन 
किसी कोर अटक रहे
पलकें रूखी रेत संजोये 
तीखे कंटक सी चुभी
ओस का दामन गह 
संध्या गुनगुनायी थी
नमित थकित पत्र 
तरु का भाल बना
धूमिल अवसाद न समझ
इस पल को
आने वाली चन्द्रकिरण का
हिंडोला बन
शुक्र तारे की खनक झनक सा
उजास भरा
पुलकित प्रमुदित मन साथी
मधुमास बना .........  निवेदिता

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

खामोश से शब्द .....

तुम अक्सर गुनगुनाते हो
मेरे मन में
खामोश से शब्द बोलते हैं ,
सुनना चाहोगी
मैंने भी इक नामालूम सी
खामोशी से कहा
हाँ ! मैं सुन रही हूँ
तभी तो खामोशियाँ
गुनगुनाती गाती हैं
अब बस इतना ही
सुनिश्चित कर लेना
खामोश से शब्द
तभी बोलना
जब मैं रहूँ वहीँ कहीं
ख़ामोशी को संजो लेने
अपने उर में  ....  निवेदिता


बुधवार, 4 नवंबर 2015

कुछ सृजन कर ही जाउंगी ....



मेरी यादों के पाँव तले 
तुम्हारे वादों के कंटक 
जब - तब चुभ जाते हैं 
और मैं  
सिहर सी जाती हूँ  
तड़क भी जाती हूँ 
मिटटी सा बिखर भी जाती हूँ 
बादल सा बरस भी जाती हूँ 
नन्हे बीज सा चिटक भी जाती हूँ 
तभी जैसे पलकें खिल जाती हैं 
हां ! मिटटी सा बिखर जाती हूँ 
पर इस बिखरने में ही उर्वरा हो जाती हूँ 
बादलों की बारिश से ही तो 
जीवन की नमी मिल जाती है 
बीज की चिटकन ही तो 
वृक्ष की विशालता छुपाये रखती है 
जब - जब बिखरूँगी - टूटूँगी - चटकूंगी 
कुछ सृजन कर ही जाउंगी  .... निवेदिता 

रविवार, 1 नवंबर 2015

रश्मि रविजा ---- "काँच के शामियाने"



रश्मि रविजा के उपन्यास "काँच के शामियाने" को कई बार पढ़ गयी  .......   पहली बार के पढ़ने में ही रेशमी धागों की छुवन का एहसास जाग गया था  .......... . एक ऐसे रेशमी छुवन का एहसास जो अपने रचनात्मक प्रवीणता से सहज ही गतिमान रखता है ,फिसलाता सा  … पर उस के छोर पर एक नामालूम सी गाँठ लगी है ,जो मन को भटकने नहीं देती और कथानक के प्रवाह को एक सतत गति भी देती है  ....

रश्मि ने स्त्री मन के हर पहलू को बड़ी ही नफ़ासत से रचा है  ………  "जया" में अधिकतर स्त्रियों के मन के तार बज उठते हैं  .... न्यूनाधिक रूप से सब में वो समाहित है  … किशोर मन सारे शोख रंग अपने दामन में संजोना चाहता है ,पर सच का दूसरा रूप सामने आने पर कदम लड़खड़ा तो जाते हैं पर जीवन की जिजीवषा विजयी होती है  ....

हर चरित्र अपने अनूठे मनोविज्ञान से आकर्षित भी करता है और प्रश्न भी करता है  ...…. राजीव एक खोखले अहं के साथ जीवन जीता है तो जया तराजू के पलड़ों को साधती धुरी सा  .... पढ़ते हुए जब मन एक अंधियारे खोह सा लगने लगता है तभी संजीव एक प्राण - वायु के झोंके सा मन झंकृत कर जाता है  …

भाषा की बात करूँ तो थोडे से आंचलिक शब्द भी हैं ,पर वो कथन की गति के प्रवाह में सहज ही लगते हैं  .... कई वाक्य तो एकदम से सूत्र वाक्य से लगते हैं ,जो अपनेआप में सम्पूर्ण हैं  ....
१ - क्यारी में आँसुओं से सींचे ,दृढ़ निश्चय का खाद पाकर खिले ये तीन फूल  ( बच्चों के लिए लिखा है )
२ - वो दोनों दो अलग - अलग ध्रुव की तरह हैं 
३ - बच्चे तो गीली मिटटी समान होते हैं 
४ - अधिकार तो किसी घर पर नहीं होता । बस शामियाने से तान दिए जाते हैं सर पर । वो भी काँच के शामियाने जो ज़िंदगी की धूप को संग्रहित कर और भी मन प्राण दग्ध कर जाते हैं । 

रश्मि के लेखकीय कौशल की मैं पहले ही बहुत सराहना करती थी ,पर अब इस उपन्यास को बार - बार पढ़ते हुए उसकी लेखनी का अभिनंदन करना चाहती हूँ  …

रश्मि ने कुछ समय पहले एक बार मझे ये सुझाव भी दिया था कि किताबें पढ़ने के बाद ये लिखूं कि वो मुझ को कैसी लगी  ,तो रश्मि ये काम तुम्हारे उपन्यास के साथ ही पहली बार करने का प्रयास किया है  … अब मेरा ये प्रयास तुमको कैसा लगा ये तो तुम ही बेहतर बताओगी  .... निवेदिता


रविवार, 18 अक्तूबर 2015

हौसला तुम्हारा



मेरी एक छोटी सी चाहत ,
बस एक नन्हा सा कण
जुगनू से
टिमटिमाते उजाले का ,
हौसला तुम्हारा 
उस एक किरण सी
चमक लाने को
दुनिया जला देने का ....... निवेदिता

बुधवार, 9 सितंबर 2015

09 / 09 / 15

आसमान के 
सियाह गिलाफ़ पर 
चाहा बस 

तारों की झिलमिल छाँव 
बेआस सी ही थी 
ये अंधियारी रात 
बस किरन टंकी 

इक चुनर लहरायी 
इन्द्रधनुष के रंग 

झूम के छम से छा गये 
सपनीले तारों की 

पूरी बरात ही 
दामन में सज गयी  …… -निवेदिता
                                                             

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

चंद साँसे ....

आज फिर से 
निखरती हवाओं ने 
साँसे भरी हैं 
कुछ नामालूम सी 
बिखरी पत्तियों ने 
यादों का द्वार 
फिर से खटखटाया है 
बढ़ते ठिठकते जाते 
कदमों ने जैसे 
एक हिचकी से ली है 
दूर जाते पलों को 
निहार कर संजो लिया 
उन उड़ते हुए 
पत्तों के रेशों पर 
पाँव पड़ जाने के डर से 
यादों की धड़कन ने 
साँसों को रोक 
रूखे -सूखे पत्तों की 
किरचों को 
चंद साँसे अता कर दी 
और मैंने 
बस पलकें मूँद कुछ साँसे 
सहेज ली हैं  …… निवेदिता 

बुधवार, 12 अगस्त 2015

मेरी खामोश सी खामोशी .....

सोचती हूँ मौन रहूँ 
शायद मेरे शब्दों से 
कहीं अधिक बोलती है 
मेरी खामोश सी खामोशी 

ये सब 
शायद कुछ ऐसा ही है 
जैसे गुलाब की सुगंध 
फूल में न होकर 
काँटों में से बरस रही हो 

जैसे 
ये सतरंगी से रंग
इन्द्रधनुष में नही 
आसमान के मन से ही 
रच - बस के छलके हों  

जैसे 
ये नयनों की नदिया 
झरनों सी नही खिलखिलाती 
एक गुमसुम झील सी 
समेटे हैं अतल गहराइयों को …… निवेदिता 

रविवार, 2 अगस्त 2015

ये रिश्ता , दोस्ती का ....

ये रिश्ता
दोस्ती का
ये एहसास
दोस्ती का
जो …
उदासी के पलों में
स्मित बरसा दे
मुस्कान के पलों में
खिलखिलाहट बिखरा दे
ऐसे दोस्त की दोस्ती
अबोली अनबूझी सी
बस सहेज ली हमने
और भी कुछ साँसे
जीवंत से जीवन की
मन भर जी लीं हमने …… निवेदिता

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

द्रोण का शिष्यत्व -- एक अभिशाप

द्रोण  ----- ये नाम सुनते ही सामान्य रूप से एक ऐसे शिक्षक की छवि उभरती है जो अपने शिष्यों के प्रति पूर्णतया समर्पित व्यक्तित्व है  .एक ऐसा गुरु जो अर्जुन को अधिक प्रतिभाशाली पा कर पूर्ण समर्पण के साथ अपना समस्त ज्ञान देने को प्रयासरत है ,यहां तक की इस प्रक्रिया में वो अपने पुत्र ,अश्वत्थामा की भी उपेक्षा कर जाता है  . कौरवों की दुष्प्रवृत्ति को भी अपने सतत प्रयास से सद्ऱाह पर लाने को दृढ़प्रतिज्ञ प्रतीत होता है  . यहां तक कि  कुरुक्षेत्र के महासमर के पूर्व युद्ध की रणनीति तय करने की सभा में भी ,द्रोण कौरवों - पांडवों के मद्ध्य संधि स्थापित हो जाए इसके लिए भीष्म के साथ प्रयासरत दिखे  . 

पर इससे परे जा कर ,एक गुरु की गरिमा की कसौटी पर अगर परखा जाए तो अपनी प्रत्येक पदताल पर द्रोण अपने आचार्यत्व की गरिमा से बहुत दूर जाते दीखते हैं  ........  द्रोण के शिष्यों में मुख्य रूप से जिन शिष्यों के नाम मुख्य रूप से आते हैं वो हैं - पांडव ,कौरव ,एकलव्य  इत्यादि  . अगर तटस्थ हो कर देखा जाये तो द्रोण ने इनमें से अपने किसी भी शिष्य के प्रति गुरु की गरिमा का पालन नहीं किया  . 

एकलव्य की कथा तो हम सब जानते हैं  . हस्तिनापुर के राज्याश्रय को बनाये रखने के लिए द्रोण ने एकलव्य का गुरु बनना अस्वीकार कर दिया और जब वही एकलव्य उनकी माटी की मूरत के समक्ष अभ्यास कर - कर के एक प्रवीण योद्धा धनुर्धारी के रूप में उनके के समक्ष आया तब उससे गुरुदक्षिणा की माँग कर बैठे  .इस तरह अदृश्य रह कर भी एक गुरु के रूप में दिए गए आदर के फलस्वरूप उसका अँगूठा मांग लिया  . क्या यही एक गुरु का दायित्व है ? अपने ही तथाकथित शिष्य को अपंग कर देना ? पर एकलव्य यहीं पर नहीं रुका .उसने अपने इस तथाकथित गुरु के अभिमान और उसकी मंशा पर पर जैसे कालिख सी पोत दी और बिना अँगूठे के भी धनुष का संचालन स्वयं ही सीखा और गुरुकुल भी बनाया ,जिसमें उपेक्षित वर्ग को धनुर्विद्या की शिक्षा दी !

अगर द्रोण  के सबसे प्रिय शिष्यों ,पांडवों की बात करें तो ,उनके साथ भी द्रोण ईमानदार नहीं रहे  . जब तक शिष्य के रूप में पांडव उनसे सीखते रहे ,अनायास ही द्रोण ने अपने बदले की अग्नि को पोषित करने वाली समिधा के रूप में उन को तैयार किया और अपने चिरशत्रु द्रुपद से बदला लेने के लिए उनको दीक्षित किया और उनसे गुरुदक्षिणा के रूप में द्रुपद को युद्ध में परास्त कर बन्दी बनवाया  . यहां तक तो सब कुछ उनके मनोनुकूल ही चल रहा था ,पर राजनीति और रणनीति किसी एक की बपौती तो होती नही है ,तो द्रुपद ने जब द्रौपदी के स्वयंवर का आवाहन किया तो द्रुपद ने उसकी पात्रता की शर्त ही यही रखी कि तैल - पात्र में देख कर मछली के नेत्रों का शर संधान  .ये कार्य या तो अर्जुन कर सकते थे या फिर कर्ण ,जो सूतपुत्र होने की वजह से अपात्र था अब अर्जुन के लक्ष्य वेध करते ही द्रोण  के आदि शत्रु द्रुपद और पांडवों में निकटता बढ़नी ही गुरु -शिष्य के मद्ध्य आयी हुई इस दूरी का ही परिणाम था द्रोण सदैव कौरवों के पक्ष में ही दिखे  .पांडवों को द्रोण के शिष्य होने की सबसे बड़ी कीमत कुरुक्षेत्र के युद्ध में चुकानी पड़ी ,जब द्रोण ने छलपूर्वक अर्जुन को युद्धक्षेत्र से दूर भेज कर चक्रव्यूह की संरचना की ,जिसका मूल्य चुकाया कौरव और पांडव दोनों ही कुल के अंतिम वंशबेल लक्ष्मण और अभिमन्यु ने  !

द्रोण अपनी जिस निष्ठां की बात कर के कुरुक्षेत्र के युद्ध में सदैव कौरव पक्ष में बने रहे ,वहाँ भी उन्होंने अपनी निश्छल निष्ठां नही दिखाई  . यदि ऐसा होता तो कौरवों के हर गलत कर्म पर वो मूक न रहते  . युद्ध में भी वो अपनी ऐसी ही दुविधा नही दर्शाते कि वो युद्ध का परिणाम जानते हैं अथवा मन से वो पांडवों के साथ है पर राज्य के प्रति निष्ठा के परिणामस्वरूप ही कौरव पक्ष से युद्ध कर रहे हैं  . ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में हैं जब राजाओं ने अनुचित कर्म किये तो उनके गुरु - मंत्री - सेनानी ने उनको छोड़ दिया है

द्रोण कितने भी बड़े युद्धवीर क्यों न हो ,परन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से अपने गुरु होने का मूल्य अनुचित रूप से ही वसूला है  . उनका ये कार्य उनको गुरु की गरिमा के विरुद्ध करता है और उनके शिष्यों को उनका शिष्य होने के लिए अभिशप्त करता है  ! ………… निवेदिता 

शनिवार, 27 जून 2015

बहाने कुछ न लिखने के …

लगता है शीर्षक ही गलत चुन लिया  .... क्यों  … अरे भई वही हाल हुआ "प्रथम ग्रासे मक्षिका पात " .... बस शीर्षक लिख कर आगे बढ़ने को तत्पर विचारों की वल्गा थामने को ही जैसे गेट पर घण्टी अपनी मधुर रागिनी बिखेरने लगी थी  .... इसके बाद तो आप कुछ कर ही नहीं सकते  … फिर वहीँ सवाल जगा न कि "क्यों" तो भई हमारी भारतीय सभ्यता के अनुसार तो "अतिथि देवो भव"  ……  पर एक लाभ भी हुआ एक कारण और भी मिल गया न लिख पाने का :)

चलिये इस न लिखने के बहानो की बात कर ही ली जाए  ....

अक्सर होता है ,सुबह की पहली चाय के साथ ही इतने धाँसू विचार आते है कि अगर उन पर लिख दिया जाए तो एकाध तथाकथित पुरस्कार हमको भी मिल ही जाए ,पर फिर वही बात न "तेरे मन कुछ और ,दाता के मन कुछ और"  ....…।  बस हम अपनेआप को समझा लेते हैं कि "शांत गदाधारी भीम शांत " पहले अपने काम तो समेट लो ,बस फिर पतिदेव का नाश्ता तैयार कर उनको ऑफिस भेजना होता है कि गृहकार्य के लिए सहायकों की फ़ौज दिख जाती है  .... अब बिना नाश्ता कराये पतिदेव को तो ऑफिस भेजा जा सकता पर इन सहायकों को अनदेखा करना तो बहुत भारी पड़ जाता है ,तो बस फिर यही सोच उभरती है कि उन तमाम जलते हुए ( ज्वलंत ) विचारों पर ठन्डे पानी की फुहार कर सुला देते हैं  ....

सहायको के जाने और भोजनोपरांत तो थोड़ी देर शवासन की याद आना तो एकदम सहज स्वाभाविक सी बात है  ....…  अब आप ही सोचिये लिखने का काम तो बाद में कभी भी हो सकता है पर ये शवासन हम शाम को तो नहीं कर सकते हैं न  :)

शाम को जैसे ही चाय के प्याले के साथ पूरे साज बाज ( लैपी ) के साथ रचनात्मक कार्य की तरफ उन्मुख होने की सोचते ही हैं कि अक्षरा ,सुहानी  ,दयाबेन जैसे अजब - गजब किरदार याद आने लगते हैं ,अब बताइये हम करें तो क्या करें पतिदेव ने इतनी मेहनत करके प्यार - दुलार से उमग कर टी वी भी तो खरीदा है ,अब हम न देखें उसको तो वो कितना उपेक्षित अनुभव करेगा ,बिचारा ! छोड़िये थोड़ी देर बाद लिखते हैं न  ....

अरे ! ये क्या ये तो रात गहराने लगी ,बताओ भला अब कैसे कुछ लिखूँ या पढ़ूँ  .... शाम का खाना और बाकी के काम और वो सहायक  .... अब आप ही बताओ अब ये सब कैसे अनदेखा करूँ ,है न  … छोड़ो सोने के पहले पक्का एक पोस्ट तो ढ़केल ही देंगे  …

लो भई रात भी हो गयी अब  ..... ये बताओ इत्ता सारा काम कर के थकती भी तो हूँ न  … छोड़ो भई सुबह की चाय के साथ तो पक्का ही पक्का लिख देंगे  ....

अब इत्ते सारे और इन से परे भी कुछ बहाने छुपा रखे हैं न लिख पाने के ,बिचारे हम  ..... निवेदिता 

गुरुवार, 25 जून 2015

जरूरत संकल्प शक्ति की .....

 चलते - चलते कोई भी वाहन जब अचानक ही रुक जाता है तब सबसे पहले तो आर्श्चय का एक झोंका सा आता है ,कि ये हुआ क्या और जैसे ही सच्चाई की प्रतीति होती है तुरंत ही खुन्नस सी ( गुस्सा इस अनुभूति के लिए सही शब्द नहीं है ) होती है कि ये मेरे साथ ही होना था और जिस नामालूम से काम ( ? ) के लिए जा रहे होते हैं वो काम एकदम से जीवन - मरण का प्रश्न बन जाता है   :(

वाहन को दुबारा शुरू करने का प्रयास करने के पहले ही हमारा  मन यही चाहता है कि कहीं से कोई देवदूत सा आ जाए इस समस्या को सुलझाने के लिए  … पर ये सब तो सिर्फ किस्से - कहानियों में ही सम्भव है  …

अपने जीवन में अनायास आ बरसने वाले ऐसे किसी भी दोस्त की मान - मनौव्वल तो हम को ही करना है ,ये ज्ञान जागृत होते ही बस धुन बजने लगती है  "चढ़ जा बेटा सूली पर ,भली करेंगे राम " .... और बस इस मन और मनोबल के जगते ही रुकी हुई गाड़ी भी गुर्राने लगती है और चल देती है अपनी मंज़िल की ओर  … :)

ये सिर्फ किसी वाहन के साथ ही नही अपितु संबंधों में भी होता है , वाहन के कार्बोरेटर में आये हुए कचरे की ही तरह मन में मालिन्य जमा हो जाता है ,कभी अकारण तो कभी सकारण - अब हम पहले तो दूसरे व्यक्ति को ही दोषी मानते हैं ,फिर कुछ समय बाद चाहते हैं कि कोई और आकर संबंधों को ठीक करवा दें  .... यदि इतना सब न हो पाये और वो संबंध हम बनाये रखना चाहते हैं तब कहीं जा कर हम अपने प्रयास करते हैं  …

मेरा इतना कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना समझना है कि रुके हुए काम को दुबारा शुरू करने के लिए परिश्रम से कहीं ज्यादा जरूरत एक दृढ़ संकल्प - शक्ति की होती है . अब इधर कुछ लम्बे समय से मेरे ब्लॉग की गाड़ी भी हिचकोलें खाती अटक - अटक कर चल रही थी . रोज सोचती थी आज से ब्लॉग लिखना और पढ़ना भी नियमित करूँगी ,पर " वही ढाक के तीन पात " वाली स्थिति बनी रह जाती थी जबकि कई इतने रोचक विषय भी सूझे पर  ....  तो आज अपने मन की लगाम को कस के थामा और इसी विषय पर लिख कर एक बार फिर से नियमित होने का प्रयास कर रही हूँ  … निवेदिता 

रविवार, 31 मई 2015

गंगासागर बना दिया …

चाहतें तो सभी की 
बहुत सी होती हैं 
मेरी भी है 
पर बहुत ही 
छोटी छोटी सी  
ख़ता की है 
तुम्हारी पड़ी हुई 
एक नामालूम सी निगाह ने 
मेरी छोटी सी 
खुशियों की चाहत को 
इतना बड़ा बना दिया 
सारी दुनिया को सागर 
अपनी निगाह को 
गंगासागर  बना दिया  … निवेदिता 
  


बुधवार, 6 मई 2015

दुआओं का सिलसिला ......


टूटते सितारे को देख

दुआ में निगाहें उठी 

कुछ चाहते भी थमी ,

नन्ही सी स्मित

पुरवाई सी लहरायी ,

रौशन हुई निगाहें

इक आस सी जगी 

टूटते सितारे में भी 

दुआ तलाशती इन 

दुआओं का सिलसिला 

अशेष हो ......... निवेदिता

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

तुम ......

मेरी हँसी के 
अवगुंठन में 
छुपी मेरी सिसकी 
कैसे देख लेते हो 

मेरे तीखे बोलों में 
छिपा मेरे मन के 
दुरूह कोनों में बसा 
तुम्हारे लिये मेरा प्यार 

समझने के लिये 
अब समझ भी लो 
कहने के लिये 
क्या ये कहना होगा
 
तुम बस जाओ 
मेरे ख्वाबों में 
मेरे दिल की 
धड़कन की तरह .... निवेदिता 

बुधवार, 11 मार्च 2015

अटकते कदमों का साथ …

मेरे कदमों की 
अबोली सी धड़कन 
साँस - साँस 
अटक जाती हैं 
सामने दिखती मंज़िल 
कदमों को 
निहारती पुकारती हैं 
पर  …
अगर 
ये एक साँस भर भी 
मंज़िल की तरफ 
बहक कर लुब्ध हो जाएंगे 
साथ चलते 
हमक़दम के लडख़ड़ाते कदम 
कहीं अटक कर 
भटक न जाएँ 
चलो  … 
मंज़िल मिले न मिले 
चार कदमों का 
इस सफर में 
दो कदम बन साथ चलना 
मुबारक हो हमकदम के 
अटकते कदमों का साथ  … निवेदिता 

सोमवार, 2 मार्च 2015

आपका परिचय ...........

हम  जब  भी  किसी  नये  अथवा  अजनबी शख्सियत से मिलते हैं तो स्वयं उससे अथवा अपने आस-पास उपस्थित किसी अन्य से  सहज  जिज्ञासावश एक ही प्रश्न पूछते हैं  "आपका परिचय"   और प्रतिउत्तर में सुनते हैं उसके पुकार के नाम के साथ ही उसके वर्ण के बाद उसके कार्यालय का नाम , उसका पदनाम , उसका लेखक अथवा कवि होना और उसकी कितनी पुस्तकें छपीं हैं अथवा कितने पत्र-पत्रिकाओं में छप चुका है जैसी बातें .... पर क्या सच में यही है उसका परिचय !

हाँ ! इस सच से मैं भी इंकार नहीं करुँगी कि किसी  के प्रति भी आकर्षित होने का पहला कारण हो सकता है उसका ख्यातनाम होना ,पर क्या उसकी ये उपल्बधियाँ ही किन्ही दो अथवा अधिक व्यक्तियों के चिरस्थायी सम्बन्ध का मूल कारण होंगी  .... मुझे तो ऐसा नहीं लगता  .... अपितु ,मेरे विचार से तो वो व्यक्ति अपने सहज स्वभाव में कैसा है ,उसकी चरित्रगत विशेषतायें क्या हैं और सबसे बढ़कर वो दूसरों को किस नज़रिये से देखता है - ये उसका स्थायी परिचय होती हैं  …

कोई ब्यक्ति प्रसिद्धि और उपलब्धियों के सर्वोच्च शिखर पर हो परन्तु अन्य के प्रति  उसका दृष्टिकोण सम्मान न देता हो , तब उसकी समस्त उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं  ....

आप अगर  हैं स्वयं ही अपने लिए कहें कि अगर अपने बारे में बताना शुरू करूँ तो समय काम पड़  जाएगा - तब ये तो आत्मविश्वास की न्यूनता ही दिखायेगा  ....  सोचिये तो  दूसरों को धमकाना जैसा नहीं लगता है क्या !

 मेरे अपने विचार में तो वास्तविक परिचय तो दूसरों के प्रति आपका सम्मानजनक व्यवहार है जो औरों को भी आपसे संपर्क बनाये रखने के लिए प्रेरित करेगा  … निवेदिता 

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

शीर्ष विहीन

सोचती हूँ 
आज 
उन शब्दों को 
स्वर दे दूँ 
जो यूँ ही 
मौन हो 
दम तोड़ गए
और  
अजनबी से 
दफ़न हो 
सज रहे है 
एक 
शोख मज़ार सरीखे   
एहसासों के  दलदल में  … निवेदिता 

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तुम.......मैं...........

तुम मेरा दक्षिण पथ बनो

मैं बनूँ पूर्व दिशा तुम्हारी
तुम पर हो अवसान मेरा
मै बनूँ सूर्य किरण तुम्हारी
तुम तक जा कर श्वास थमे मेरी
इससे बडी अभिलाषा क्या मेरी
अगर अन्तिम श्वास  पर मिलो तुम
इससे परे शगुन क्या विचारूं
हर पल अब तो बस पन्थ निहारूं
जीवन यात्रा का हो अवसान
बन प्रतिनिधि  तुम काल के
आ विचरो मेरे श्वास पथ पर
तुम मेरा दक्षिण पथ बनो
मै बनूँ ......   निवेदिता