सोचती हूँ मौन रहूँ
शायद मेरे शब्दों से
कहीं अधिक बोलती है
मेरी खामोश सी खामोशी
ये सब
शायद कुछ ऐसा ही है
जैसे गुलाब की सुगंध
फूल में न होकर
काँटों में से बरस रही हो
जैसे
ये सतरंगी से रंग
इन्द्रधनुष में नही
आसमान के मन से ही
रच - बस के छलके हों
जैसे
ये नयनों की नदिया
झरनों सी नही खिलखिलाती
एक गुमसुम झील सी
समेटे हैं अतल गहराइयों को …… निवेदिता
शायद मेरे शब्दों से
कहीं अधिक बोलती है
मेरी खामोश सी खामोशी
ये सब
शायद कुछ ऐसा ही है
जैसे गुलाब की सुगंध
फूल में न होकर
काँटों में से बरस रही हो
जैसे
ये सतरंगी से रंग
इन्द्रधनुष में नही
आसमान के मन से ही
रच - बस के छलके हों
जैसे
ये नयनों की नदिया
झरनों सी नही खिलखिलाती
एक गुमसुम झील सी
समेटे हैं अतल गहराइयों को …… निवेदिता
बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंखूब , बढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस पोस्ट को, १४ अगस्त, २०१५ की बुलेटिन - "आज़ादी और सहनशीलता" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
जवाब देंहटाएंखामोशियाँ सुंदर होती हैं, कभी कभी सुगबुगाती भी हैं.....
जवाब देंहटाएंyah sachai hai ki khamoshi adhik bolti hai achchi kavita hai ...dhanyabad
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