गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पलकों की ओस .........



अश्रु  पुकार क्यों खारा करूँ
मैं तो हूँ पलकों की ओस
ऐसे-कैसे अपना परिचय दूँ
यही मनन करूँ बारम्बार
ये लरजते हुए आँसू सिर्फ
स्वाद ही नहीं बेस्वाद करते
अच्छी चमकीली राहों को
धुंधलेपन का अभिशाप
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
विरासत में दे जाते हैं !
ओस तो सुरभित सुमन में
रिश्तों की नमी को सहेजे
अतिशीतलता से बचा जाती
हर आती-जाती हवा के तेज
ठिठुरते थपेड़ों से सामने
टिके रह जाने की जिजिविषा
सहेज सहलाती बलखाती
वैसे भी कुछ तो बदलाव
हर दिन सौगात में ले आता
बस अश्रुओं को बदल दिया
पलकों की ओस से ........
                        -निवेदिता

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

मौसम का अवसाद !

           ठंड का मौसम व्यक्ति को आत्मकेंद्रित कर देता है | पूरी दुनिया से काट कर एकदम अकेला | जल्दी से छा  जाने वाला अन्धेरा ,बिना किसी मजबूरी के घर की गर्म परिधि से न निकलने पर मजबूर कर देता है | परन्तु यही एहसास अपनी व्यस्त जीवनचर्या को जल्दी समेट कर मानसिक शून्यता का एहसास करा जाता है | अपने निकट सम्पर्कों से कट कर सिर्फ फोन तक सीमित हो जाने पर सोचने को बहुत कुछ देता है |
           ऐसा अकेलापन अक्सर अवसाद को भी जन्म देता है | ज़िन्दगी से कुछ झूठी-सच्ची शिकायतें भी सर उठा झाँकने लगती हैं | पाया-अनपाया का हिसाब करते हुए ,निराशा का कोई लम्हा भारी हो जाता है और खुद अपने ही अस्तित्व से इतना वैरभाव बढ़ जाता है कि आत्मघाती कदम उठाने में एक पल भी नहीं लगता है | आत्महत्या के अधिकतर हादसे इस मौसम की उदासी के कारण भी होते है जहां नकारात्मकता हावी रहती है |
           हर तरफ फ़ैली हुई धुंध चौबीस घंटों में से मात्र सात-आठ घंटे ही दूसरों की शक्लें और आवाज़ सुनने देती है | मौसम की धुंध मन में भी घर कर लेती है | मृत्यु के बाद शरीर का ठंडा हो जाना ,शायद इस सच का ही आभास देता है | शरीर के अंत से जैसे रिश्तों की यादों पर भी पाला पड़ जाता है ,वैसे ही वंचित होने का एहसास अवसाद में बदल कर अंत की तरफ कदमों को बढ़ा लेता है | इस ठंड के मौसम के अवसाद से ज़िन्दगी अक्सर हार जाती है !

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बर्फीले एहसास !!!


अजीब से हैं
ये बर्फीले एहसास
इस रूह को भी
कंपकंपाते ..
साँसों को थामने 
बढ़ते दुआओं के
साए तले जज़्बात !
तुमने तो खुद को
छुपा ही लिया
ज़िन्दगी की
गर्माहट तले ,
फिर मुझे क्यों दी
बर्फीली चट्टान की
ठिठुरती शय्या !
चाय के प्याले से
उठती भाप के
गुनगुनी गुबार तले
औरों को आवाज़ दी
कड़क बर्फ लगाने को !
तुम तो गर्म दुशालों में
सिकुड़ ठंड भगाते रहे
मुझे बर्फ पे सुला
सिकुड़ने को मजबूर किया !
ये कैसे दुनियावी दस्तूर
मेरी निर्जीव शक्ल
औरों को दिखलाने को
मुझको ही विकृत बनाते रहे !
                              -निवेदिता 

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कारवाँ गुजर गया .........

      
             कभी नन्हे-नन्हे लडखडाते क़दमों से तो कभी लम्बे स्थिर डग भरती ,ज़िन्दगी यूँ ही अपनी तरंग में अनजाने से भवितव्य की तरफ ,कभी राजसी तो कभी फ़कीरी अंदाज़ में बढती चली जाती है | लगता है कि हम ज़िन्दगी को एक सुविचारित और सुनियोजित रूप देने के प्रयास में सफल हो गये ,परन्तु तभी ज़िन्दगी सिर्फ हवा के एक हल्के झोंके की तरह लहरा कर अपनी ही राह हमें उड़ा ले जाती है | ये राह कभी हमारी मनचाही डगर से बेहतर लगती है ,तो कभी एक कराह भरती पगडंडी सी !
             हर उठता कदम ज़िन्दगी के एक नये रूप से परिचित कराता है | ये कभी एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय की तरफ तो कभी एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ ,ऐसे ही नित नवीन अन्वेषण करता है | ऐसा परिवर्तित रूप सिर्फ स्थान ही नहीं रिश्तों के भी नये रूप दर्शाता है | कभी हम जिन रिश्तों को जीवन का सबसे बड़ा सच मानते हैं ,बदलता समय उन के बारे में सोच पाने की भी मोहलत नहीं देता है |
              बदलता समय ज़िन्दगी को ऐसे खूबसूरत मोड़ पर ला देता है कि बस ज़िन्दगी के हर पल को जीने की चाहत उमड़ जाती है | हर आती-जाती साँसे ज़िन्दगी को संवारना ,अपना बनाना चाहती हैं | संजीवनी से भरे लम्हों पर फिर वही अनदेखी और अनजानी सी ज़िन्दगी अपनी शर्तें ले कर आ जाती है अपने ही रंग में रंगने के लिए | साँसों की डोर को थामने की जगह एक ही प्रबल वेगपूर्ण झटके से तोड़ जाती है !
               आदरणीय "नीरज जी" की पंक्तियाँ याद आती हैं "कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे"....
                                                                                                                                      
                                                                                                                                      
               

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

मुकम्मल जहां ......

          
               एक शब्द "काश" अक्सर हमारी ज़िन्दगी के पन्नों पर उभर आता है | ये सब कुछ होते हुए भी आ सकता है ,जो ज़िन्दगी से असंतुष्टि नहीं दिखाता ,बस सिर्फ अपनी बेलगाम दौडती कल्पना का एक परिदृश्य झलका जाता है | कभी अंधियारे लम्हों में अपूर्ण बना शून्य का एहसास दिला जाता है | लगता है कि जो भी चीज़ हमारी ज़िन्दगी में नहीं है ,उसके बिना हमारा संसार अधूरा है | इसको मुकम्मल बनाने के लिए ,इसके हरएक लम्हे को जीवंत करने के लिए उस अप्राप्य की तलाश में जो हमारे हाथों में है उसको भी गंवाते चले जाते हैं | हो सकता है कि जब वो मिल जाए तो शायद वह कुछ मिल भी जाए ,परन्तु तब शायद जो हमारे पास है वो हमसे छूट सकता है |
            अभी जो भी समीकरण हमारे जीवन में बना है ,उसमें ही हमारा स्वत्व झलकता है | इसके हर लम्हे में हम ही साँसे लेते हैं | परछाईं के साकार होने की तलाश में व्यर्थ का भटकाव सिर्फ वंचित होने का एहसास दे कर हर सांस को दूभर बना देगा | इसका एक सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू ये भी है कि जो परिस्थिति किसी एक के लिए सम्पूर्ण सी होती है वो दूसरे के लिए अपूर्ण होती है !
              शायद इस भटकाव का अंत अपने खुद के जीवन के प्रति एक वितृष्णा को जन्म देगा और एक वीरानेपन के एहसास के साथ उसका अंत तलाशना चाहेगा | जीवन की राहें जब जिस डगर ले जाएँ ,उसके हर पग का मान रखते हुए जीना चाहिए | मुकम्मल जहां की खोज तो की जा सकती है पर उसका मिलना कुछ असम्भव सा ही है , क्योंकि  ये तो हर पल बदलती मानवीय प्रकृति ही है जो बदलते मानसिक परिवेश के साथ वस्तुस्थिति को देखने का नजरिया भी बदल देती है |

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कारण तुम ,निवारण तुम


होती एक टुकडा कागज़ का ,
तकिये के नीचे ठौर पाती ....
होती कोई ख़्वाब सलोना ,
तुम्हारे नयनों में बस जाती
होती प्यारा भाव तुम्हारा ,
दिल की धडकन में बस जाती
होती रंगीला रंग तुम्हारा ,
तुम्हारे अंगों में रच जाती
मैं तो हूँ बस साथ तुम्हारा ,
तुम में ही जी लेती हूँ
एक अटपटा सा सच तुम्हारा ,
साँसे तुमसे ही उधार लेती हूँ
किससे करें ये शिकवे ,
कैसी भूलभुलैय्या सी शिकायतें
इनका कारण ही नहीं
निवारण भी हो सिर्फ तुम !
                           -निवेदिता 

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

आज तो बस ............




आज निगाहें पीछे मुडना चाहती है
कहीं कुछ छूट गया था ,थोड़ा पहले
वक्त समेट संजोये  रखना चाहतीं हूँ
कहीं यादों में ,वादों में जो रह गया
अनसुना बस वही सुनना चाहती हूँ
सदा फूलों की ,ओस की ,रोशनी की
देखती सुनती बोल गुनगुनाती रही ,
आज सिर्फ इस धुंध की ,पतझड की
अंधियारी गहराइयों की नीरव पड़ी
राह की धूल बुहार हटाना चाहती हूँ
जानती हूँ पीछे मुडना ,आगे की राहें
कहीं सपनों सा अटक ठहरा जायेंगी
उसी दायरे में घूमती सी रह जाऊंगी
गति थमने की सजा ,राह भटक चुके
लम्हों की नियति कैसे बनी रहने दूं
पीली पड चुकी पत्तियों को निहार कर
बसंत सा खिलखिलाना चाहती हूँ ........
आज तो बस पीछे मुडना चाहती हूँ !
                                   -निवेदिता 

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

घर या बच्चों की प्रयोगशाला !


        
           " घर " इस का जब जिक्र भी होता है ,बस एक सुकून सा छा जाता है | ये एक ऐसी दुनिया होती है जहाँ हम अपने मन की ज़िन्दगी जीने को स्वतंत्र होते हैं ,बगैर किसी आडम्बर के | माता-पिता उपलब्ध संसाधनों में परिवार के सदस्यों के लिए हर सुविधा जुटाने का प्रयास करते हैं | जब बात उनके बच्चों की आती है ,तो वो अपनी सीमा से भी आगे जा कर उनको संतुष्ट करना चाहते हैं | इस सुख और सुकून भरे माहौल में थोड़ी उलझनें तब जरूर सर उठाती लगती हैं जब वो अपने बच्चों को हर क्षेत्र में शीर्ष पर ही देखना चाहतें हैं |

          शीर्ष पर उन नन्हों को पहुचाँ पाने की प्रक्रिया में अक्सर जब अपने आसपास देखते हैं तो पारम्परिक रूप से सफल हुए बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ सलाह लेने का प्रयास करते हैं | पर यही वो पल होता है जब बच्चे और अभिभावक एक दूसरे से थोड़े से दूर होने लगते हैं | अभिभावक सफल प्रमाणित हो चुके बच्चों की रीति के अनुसार उनका पालन-पोषण करना चाहते हैं | बच्चों का ध्येय और उनकी मंजिल उस से कुछ अलग भी हो सकती है  ,अभिभावक अक्सर ये मानने को तैयार नहीं होते | बस इस पल से अभिभावक घर को प्रयोगशाला बना देते हैं ,जिसमें से एक सर्वगुणसम्पन्न प्रोडक्ट निकलना ही होगा |

           हर व्यक्ति का व्यक्तित्व सर्वथा भिन्न होता है | दो भिन्नताओं को एक समान बनाने का प्रयास दो तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है ....... एक तो उपहास की और दूसरी दमन की ! इन दोनों में से किसी भी परिस्थिति में उसकी अपनी प्रतिभा का लोप हो जाना निश्चित है | बच्चे को एक स्वतंत्र और परिपूर्ण व्यक्तित्व मान कर उससे विमर्श कर के कोई भी निर्णय लिया जाए ,तो उसका सफल होना अवश्यम्भावी होगा ,क्योंकि उसमें बच्चे की पूरी सार्थक ऊर्जा भी सम्मिलित होगी | अगर सिर्फ अपनी इच्छा से कोई निर्णय लेंगे ,तब भी बच्चा सफल हो तो सकता है ,पर उसको ज़िन्दगी से एक शिकायत हमेशा बनी रहेगी कि ये उसकी रूचि की अनदेखी है | इस तरह की शिकायत कभी-कभी हाथों के छूटने की सी अनुभूति करा जाती है |
             बच्चों की जब आँखें भी नहीं खुल पा रही होती हैं ,तबसे ही वो हमारे हाथों को थाम लेते हैं ,पर ये हमारा व्यवहार ही है जो उनका हाथ धीरे-धीरे हमारे हाथों से छूटता चला जाता है | इस स्थिति की भी विडम्बना ये है कि छूटते हुए हाथों के लिए हम अपने उन बच्चों को कसूरवार मानते हैं जिनमें हमारी साँसे बसती हैं | अगर हम बच्चों का और उनकी इच्छा का सम्मान करेंगे तभी हम उनसे भी समान और संतुष्टि पायेंगे | घर को उनके लिए  ऐसी जगह बनायें जहाँ हर व्यस्तता और सफलता के बावजूद भी आना चाहें ,न कि एक ऐसी प्रयोगशाला बना दें जहां से भागने के लिए वो छटपटायें  !
                                         -निवेदिता 

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

"रिश्ते".........एक नाज़ुक सा रेशमी ख़याल


          "रिश्ते" इतने छोटे से शब्द में जैसे पूरी दुनिया समा जाती हैं | हम पूरा जीवन बिता देते हैं ,इन अबूझ से रिश्तों की तलाश और समझ में | कभी अनजाने से रिश्तों में पूरी दुनिया समा जाती है तो कभी जाने पहचाने रिश्ते हाथ छुड़ा आगे बढ़ जाते हैं | जिन रिश्तों को ओस की बूंदों जैसे संजोना चाहते हैं ,प्रयास करते हैं पता नहीं कब कैसे अजनबी बन जाते हैं और जिन रिश्तों को बेपरवाही से देखतें हैं वो सबसे सुरीला साज़ बन जाते हैं !
           रिश्तों को समेटने -सहेजने का कोई निश्चित फार्मूला आज तक कोई भी नहीं बना पाया | पल-पल राह देखते हैं एक नया आकार देने को एक नई पहचान देने को ,पर जब वो मिल जाते हैं सहेज पाना इतना मुश्किल क्यों बन जाता है ! इस मुश्किल को बढ़ाने में सबसे बड़ा कारण बातें ही होतीं हैं .... कभी खुद की तो कभी दूसरों की | इन बातों की परत लगा दें या गाँठ बना लें ,यहीं इस समस्या का मूल निवास रहता है | इस परत अथवा गाँठ में पूरी सतह नहीं दिखाई पडती ... कुछ न कुछ अनदेखा अजनबी सा रह जाता है जो रिश्तों में आती दूरी का कारक बनता जाता है |
          कभी-कभी रिश्तों में इस हद तक दूरियाँ आ जाती हैं कि चाह कर भी उसको सुधार नहीं पाते | रिश्तों को तोड़ने की शुरुआत गलतफ़हमी से ही होती है | जैसे-जैसे समय बीतता जाता है और चीज़ें जुडती जातीं हैं | जिन रिश्तों की तलाश एक नाज़ुक सा रेशमी ख़याल होती है ,उन की परिणति ऐसी तो नहीं होनी चाहिए !

                   तमाम उम्र गवाँ दी जिन की तलाश में 
                   बस इक पलक झपकी और बिखर गये   
                   ये कैसे नातें ,ये कैसी बातें  कब - कैसे 
                   वक्त की मुट्ठी से रेत सी फिसल गयी 
                                                            -निवेदिता