सोमवार, 29 जून 2020

लघुकथा : माँ

लघुकथा : माँ

नन्हा सा अवि अपनी बाल चित्र कथा के पन्नों पर अंकित चित्रों को देखता कुछ - कुछ बोलता जा रहा था और वह अपने काम करती उसकी जिज्ञासा भी शांत करती जा रही थी । अचानक से उसकी चुप्पी से चौंक कर वह उसके पास पहुँच गयी ,"अवि !क्या हो गया बेटा ?"

"माँ ! सारी माएँ अपने बच्चे की सुरक्षा के लिये सतर्क रहती हैं ,फिर ये शेरनी अपने बच्चे को इस हाथी की सूँड़ में कैसे छोड़ कर आराम से टहलती चल रही है और उसको देख भी नहीं रही है ",नन्हा अवि शेर के नन्हे के लिये चिंतित था ।

"बेटा ! माँ कोई भी हो वह सिर्फ माँ होती है ", वह हँस पड़ी ,"बताओ कैसे ?"

अवि भी खिलखिलाता उसके गले मे झूल गया ,"हाँ माँ ! जैसे वो पड़ोसन काकी सब पर गुस्सा करती हैं ,परन्तु हम सब बच्चों को सिर्फ लाड़ । हमारे लिये आप सब को भी डाँटती हैं न !"
            ... निवेदिता श्रीवास्तव'निवी'

बुधवार, 24 जून 2020

लघुकथा : दीवाल


लघुकथा : दीवाल

चाय पीने का मूड हो रहा ..

 अच्छा ...

साथ में ऑमलेट भी बना लो ,मजा आ जायेगा ...

ठीक ...

और सुनो टोस्ट करारे सेंकना ...

ठीक ...

ये क्या हर बार एक शब्द 'ठीक' बोल रही हो । मैं बात कर के बात खत्म करने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम वहीं अटकी हुई हो ...

मूक नजरें और भी चुप ...

अरे यार होता है न कभी - कभी ... हम एक दूसरे के पन्चिंग बैग ही तो हैं । टेंशन उतारो फिर साथ - साथ ...

शायद तुम भूल गए हो कि पन्चिंग बैग की सहनशक्ति समाप्त होने पर अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति बदल कर  बड़ी मजबूत दीवाल बन जाता है ... एक चुप पर अप्रभावित दीवाल ...
          ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 23 जून 2020

मैंने जीना सीख लिया है ...

मैंने जीना सीख लिया है ...

तुम हँसते रहे मेरे दाँत बड़े बोल कर
मैं बस एक कदम घूम गयी
तुम्हारे छोटे दाँत मुझे भी दिख गए
रुमाल हटा ठहाके लगाना मैंने सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

आँखों का चश्मा दिखाने उठी तुम्हारी उंगलियाँ
मैंने बस नजरें उठायी
तुम्हारी आँखों में छुपी वहशत मुझे दिख गयी
बस ठहरी आँखों से देखना मैंने सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

मेरे लिखे को बेकार बताती तुम्हारी झुंझल
मैंने बस तुम्हारा पासवर्ड देख लिया
तुम्हारी खोली हुई सभी साइट मैंने देख लिया है
मैंने खुद से खुद को ही पढ़ना सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

हँसी उड़ाती छंदमुक्त छंदबद्ध की बातें
मैंने तुम्हारे मन के झरोखे देखे
तुम्हारे मन में छुपे अहंकार को मैंने देख लिया है
जिंदगी को आँखों में आँखे डालना सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !
                     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 21 जून 2020

पापा ....

संस्मरण

यादों में तैर रही है एक बच्ची जो सबकी बहुत लाड़ली ,दुलारी है कई भाइयों ( तब कजन्स नहीं होते थे न ,सिर्फ भाई - बहन ही होते थे 💖 ) की छोटी सी चंचल बहन । बहन ऐसी कि हर समय उसके बोल चहचहाते रहते और क़दम थिरकते ही रहते थे ,चाहे वो सीढ़ियों पर चढ़ रही हो या उतर रही हो ... जानती थी न कि उसको संभालने वाले हाथ गिरने नहीं देंगे ।

एक दिन अपने पापा के साथ स्टेशनरी की दुकान पर किताबें देखती हुई वह अनायास ही बोल पड़ी थी ,"पापा ! यह किताब तो किसी को मिली ही नहीं थी ,अब सिर्फ मेरे पास ही होगी । कितना मजा आयेगा ।"

पापा ने उसको दुलराते हुए कहा था ,"तुम्हारे पास कुछ होना बहुत अच्छी बात है वह भी तब ,जब वह ज्ञान और अच्छा व्यवहार हो ,सामान नहीं । अगर तुम और बच्चों को भी यह किताब दोगी तब सब मिलकर पढ़ेंगे । कितना मजा आएगा !"

"पर पापा ! मुझे क्यों मजा आयेगा ", वह फिर ठुनक पड़ी ।

"सबसे पहली बात तो यही कि अगर किताब मिलेगी ही नहीं ,तब हो सकता है टीचर दीदी उस किताब को कोर्स से ही हटा दें ... ",पापा ने समझाया ।

पापा को लगा कि वह उसकी बात समझ रही है ,तब  उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई ," अपने पास की चीजों और ज्ञान को बाँटना बहुत जरूरी है । अगर अपने आसपास के लोगों को भी प्यार करती हुई सिखाती चलोगी ,तब तुम्हारे साथ के सभी लोग उस ज्ञान को समझने लगेंगे और तुमको कभी भी अकेलापन नहीं लगेगा । "

"हाँ पापा ! आप कह तो सही रहे हैं । पर ऐसा करने से मैं हमेशा फर्स्ट भी तो नहीं आ पाऊँगी ,"फिर एक सवाल पूछ बैठी थी वह ।

पापा हँस पड़े थे ,"ऐसा करने से तुम यहाँ ही नहीं कहीं भी प्रतियोगिता से घबराओगी नहीं । और सब को सिखाते हुए तुम्हारा रिविज़न भी तो साथ - साथ ही होता रहेगा । "

उस बच्ची ने इस बात को अपने अंतर्मन में बसा लिया था ।

जानते हैं वह बच्ची और कोई नहीं मैं ही थी 😊 अपने पापा की इसी सीख की वजह से आज भी जो भी और जितना भी आता है सब के साथ बाँटती और सबका स्नेह बटोरती रहती है ।

कभी कहा नहीं था ,पर आज कह ही देती हूँ ... पापा आप का होना एक विशाल दरख़्त का साया रहा है हमेशा  । उस ऊपरवाले का बहुत - बहुत शुक्रिया कि उसने मुझे आपकी बेटी बना कर भेजा 🙏
                              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 16 जून 2020

थी ...

थी ...

सच कब से इधर से उधर भटकती वो सबके मुँह से बस यही सुन रह थी ... पहले के कुछ शब्द अलग - अलग से  होते ,परन्तु अंत मे यही 'थी'  ही आ कर वाक्य को पूर्ण कर रहा था ।

कहीं सच मे कुछ नम तो कुछ बहती हुई पलकें थीं ,तो कहीं मन की उदासी आँखों को खुश्क ही छोड़ गई थी । मन को चुभती हुई सी कुछ अपनी तो कुछ बेगानी सी वो शक्लें भी थीं ,जो अपने मैचिंग दामन से जबरन ही आँखों को पोछ कर  लाल कर रही थीं । सच ये लाली चुभ रही थी । फिर एक 'थी'  मेरी ही बात में आ गया ...

मुझे कोई पहले ही नहीं महसूस कर पाता था तो अब क्या करता ... मैं निर्विघ्न हो उन्मुक्त भाव से विचरण करती अंदर अपने कमरे में भी पहुँच गयी कि चलो एक झलक इसकी  भी ले लूँ ... वो क्या कहते हैं न कि मोह जल्दी जाता नहीं ,मन को लटकाए भी रखता है और भटकाये भी !

सारा सामान ही एक तरह से अलमारियों से बाहर पलट दिया गया था और निशानी बता - बता कर सब अपनी पसन्द की चीजें खुद पर लगा - लगा कर देखते और जँचने की कम्फर्मेशन आते ही समेटने की जुगाड़ में लगे थे ।

तभी उस तरफ आती बेटी की आवाज़ कानो में अमृत घोल गयी ,सोचा चलो एक बार और लाडो को देख लूँ । कमरे में घुसते ही वहाँ का दृश्य देखते ही उसकी दृढ़ता फफक पड़ी ,"हमने आप सब से कितनी बार हाथ जोड़ कर मना किया था कि माँ के सामान को कोई नहीं छुएगा परन्तु आप लोग मान ही नहीं रहे हैं और फिर से उनके सामान को हड़पने आ गये । शायद आप को समझ नहीं आ रहा है कि आप के लिये ये सारा सामान सिर्फ साड़ी ,ड्रेसेज और गहने हैं ,पर हम सब के लिये इसमें हमारी माँ की खुशबू बसी है ,उनके होने का एहसास है । आप सब बाहर निकलिए यहाँ से ,क्योंकि भाभी नहीं बल्कि मैं इस कमरे में ताला लगा कर चाभी उनको दूँगी । कहीं भाभी ने ये कर दिया तो आप सब तो उस बिचारी के प्राण तो बोल - बोल कर ही ले लोगे ।"

सच मेरी बिट्टो जरा भी न बदली थी ,सबको खरी - खरी सुनाने और अपनी भाभी के सम्मान की परवाह खुद से भी ज्यादा करती रही है ।

उस को दुलराने के लिये अपने फैले हुए हाथों को तुरंत ही समेट लिया था ... अब मैं स्पर्श से परे जो हो गयी हूँ !

भीगी पलकों में मन की नमी भरे बाहर आ गयी । दोनों बेटे हतप्रभ से एक दूसरे को देखते असमंजस में भटक रहे थे । सच यही काम मैं नहीं कर पाई ,उनको दुनियादारी नहीं सिखा पायी । शर्मिंदा हूँ बच्चों ! पर अब समय ही तुम लोगों को ये सिखायेगा ।

बच्चों से नजरें चुराती बाहर आई तो देखा अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा थी ,उसमें वो सब भी शामिल थे जिनको मुझे जीवित देखने की छुट्टी नहीं मिल पाई थी । आज सब एक - दूसरे से कहते खड़े थे ,"सुख में न पहुँचो कोई बात नहीं ,पर दुख में तो जरूर जाना चाहिए । आखिर परिवार होता किसलिये है !"

सब मेरी सभी चाहतों को भूल ही गये थे ,तभी तो देह - दान की मेरी चाहत को अनदेखा कर धार्मिक कर्मकांड करने में लगे हुए हैं ।

सच कहूँ तो मैं जीना चाहती थी ... मरने के बाद भी ,दूसरों के शरीर मे जीवित रहते अपने अंगों के द्वारा ... जो दुनिया मैं नहीं देख पाई थी, वो देखना चाहती थी उन नई आँखों में समा कर !

निराश सी वापसी की यात्रा के लिये तैयार होती ,बच्चों की छवि बसा कर निकलने को ही थी कि आवाज़ सुनाई पड़ी ,"सुनो ! सिंवई जरूर बनवाना ,उसको बहुत पसंद थी ।"

मैंने पलट के चेहरा देखने की कोशिश नहीं की क्योंकि उस व्यस्त आवाज़ को पहचान गयी थी ,जो आज भी बहुत व्यस्त ही है ।

                    .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 12 जून 2020

शिव - स्तुति

शिव - स्तुति

हृदय पधारो हे त्रिपुरारी
टेर लगा मैं तो हूँ हारी
कंठ उतारा शिव का प्याला
मन मेरा बन गया शिवाला

अंतर्मन छवि सिंधु निहारी
मैं - मेरा सब तुझ पर वारी
गौरा सह तुम आओ भोले
वाणी बस बम बम बम बोले

पुष्प हार मैं ले कर आऊँ
श्रद्धा के मैं दीप जलाऊँ
आंगन अपनी छाया कर दो
वर से मेरी झोली भर दो
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 4 जून 2020

क्यों सोचें ....

कितना सफर है बाकी
कहाँ तक चलना होगा
कहाँ ठिठकनी है साँस
बांया ठिठका रह जायेगा
या दाहिना चलता जायेगा !

फिर सोचती हूँ
क्यों उलझ के रह जाऊँ
गिनूँ क्यों साँस कितनी आ रही
आनेवाली साँस को नहीं बना सकती
गुनहगार जानेवाली साँस का
ऐ ठिठकते कदम ! गिनती भूल चला चल
पहुँचने के पहले क्यों सोचूँ
अभी बाकी कितनी है मंज़िल !

जब तक चल सकें चलते रहें
सुर - ताल का अफसोस क्यों करें
थामे हाथों में हाथ रुकना क्या
तुम रुको तो मैं चलूँगी
मैं रुकूँ तो तुम चलना
सफ़र तो सफ़र ही है
सफ़र मंज़िल की नहीं सोचता
सफ़र तो बस देखता है राही
चलो हमराही बन चलते जायें
मंज़िल जब आनी है
आ ही जायेगी
क्षितिज पहला कदम किसका क्यों सोचें !
                     .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 1 जून 2020

लघुकथा : अवसर


लघुकथा : अवसर

खिड़की से झाँकती थकी सी आँखें कितनी विवशता से भरी ,दिल की नमी से पलकों को सींच रहीं थीं । सब तरफ से बन्द उम्मीदों के दरवाज़े ,और मासूम निगाहों की झलकती भूख ... वह समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे इन की क्षुधा शांत करे ।

नन्हे परिंदों को देखते - देखते ही ,खिड़की की दरारों से झाँकती नन्ही कोंपल पर उसकी निगाहें अटकी रह गईं । जैसे एक नई ऊर्जा मिल गयी हो ।

हाँ ! वह किसी के सम्मुख हथेली तो नहीं पसार सकती पर उनकी मुट्ठी जरूर बाँध लेगी । वह घर मे रखे कपड़ों को धोने लगी मास्क बनाने के लिये ।

सच आपदा अवसर है अपनी सामर्थ्य को जानने का ,न कि विवश हो कर बिसूरते रहने का ।
          .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'