शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

जो भी है बस यही एक पल है ....

जो भी है बस यही इक पल है ....

छोटे छोटे पल ,पलक से झरते रहे
छोटी छोटी बातें ,बड़ी बनती गयीं

निगाहें व्यतीत सी ,छलकती रहीं
यादें अतीत सी ,कसकती ही रहीं

सामने वर्तमान है ,सूर्य किरण सा
परछाईं सी बातें , पग थामती रहीं

     ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

लघुकथा : मोक्ष

लघुकथा : मोक्ष

दोस्तों के झुण्ड में अनिकेत गुमसुम सा बैठा था ।अपने मे ही खोया सा ,जैसे खुद से ही बातें कर रहा हो । उसका मानसिक द्वंद भी यही था कि बचपन से देखी हुई परम्पराओं के अनुसार पितृ पूजन करे या अपनी आत्मा की सुने और पापा की विचारधारा के अनुसार नयी परिपाटी शुरू करे ।

मन में एक संशय भी था कि परिपाटी के विरुद्ध जाना कहीं माँ को पीड़ा न दे जाये । पापा के शरीर के शान्त होने के बाद से तो खुद को जैसे एक गुंजल में बाँध लिया है । किसी भी बात को मन से न स्वीकार करते हुए भी चुप ही रह जाती हैं । सच कहूँ तो उनकी ये चुप्पी बहुत कचोटती है ।

मन ही मन खुद को बहुत मजबूत कर के अनिकेत उठा कि ऐसे बैठने और सोचते रहने से तो वो किसी समाधान पर तो नहीं ही पहुँच पायेगा । वह माँ के पास ही बैठ गया ।

माँ ने उसकी तरफ देखा और शान्त आवाज में बोलीं ,"बेटा तुम परेशान मत होओ । पितृ पक्ष की पूजा का विधान मैंने सोच लिया है । एक बार बस हमलोग ये देख लें कि ऐसे में कितने पैसे लगेंगे ।"

अनिकेत एकदम से बोल उठा ,"माँ ! जितना और जैसा आप कहिएगा ,सब हो जाएगा । "

माँ बोलने लगीं ,"तुम्हारे पापा ने कभी भी इन रिवाजों को दिल से नहीं स्वीकार किया था । हम उनके निमित्त जो भी करेंगे वह उनके ही विचारों के अनुसार करेंगे । मासिक श्राद्ध में लगाये जाने वाली राशि से आर्थिक रूप से कमजोर एक बच्चे की हर महीने की ट्यूशन फीस हम स्कूल में जमा करेंगे । मृतक भोज में भी जो धन हम लगाते ,उसको स्कूल के बच्चों के दुपहर के भोजन के लिये जमा कर देंगे ।"

माँ को दृढ़मना हो कर इतना स्पष्ट निर्णय लेते देख ,अनिकेत ने अपने अंदर के बिखराव को समेटते हुए कहा ," माँ ! पापा की विचारधारा के अनुरूप ,आपने बिल्कुल सही निर्णय लिया । एक बात मेरे मन में भी आई है कि पण्डित जी पुरखों को गया बैठाने के लिये कह रहे थे । अगर हम उसकी जगह आर्थिक रूप से निर्बल किसी लड़की की  शादी  करवायें तो कैसा रहेगा ! "

माँ भरी आँखों से बेटे को देखते हुए बोलीं ,"हाँ बेटे पुरखों को  मोक्ष दिलवाने के लिये वो दुआयें ज्यादा प्रभावी होंगी जिनसे किसी की नई जिंदगी शुरू हो ।"
                                           .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"


बुधवार, 18 सितंबर 2019

सपनें ....

ओ अधमुँदी सी पलकों
ढुलक भी जाओ
कि नींद आ जाये
नींद से सपनों का
कुछ तो नाता है
और ...
सपने ही तो देखने हैं
शायद ...
मुंदी पलकों तले के सपने
तुम्हारी झलक लायेंगे
और मैं जी उठूंगी ... निवेदिता

शनिवार, 14 सितंबर 2019

अंधियारा जब फैला हो ...

अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना

रपटीली डगर जीवन की
बन सहारा छा जाना
आँधी के झोंकों में
जीवन पुष्प बिखरता है
माथे चन्द्र - कलश लिए
सुगन्ध बन बस जाना
अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना

जन्म जन्मांतर की बात सुनी
आलक्त कदमों साथ चली
सप्तपदी के वचनों में
जीवन की आस पली
बन प्रहरी वादों के
हर साँस में साथ निभा जाना
अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना ....... निवेदिता

सोमवार, 9 सितंबर 2019

प्रश्नोत्तर के घेरे में ज़िन्दगी ....

एक प्रश्न है जिंदगी से और उस प्रश्न का उत्तर देती हुई जिंदगी है ...

चुप सी जिंदगी ..

हर साँस बस एक सवाल पूछती है
ज़िन्दगी तू ऐसे चुप सी ज़िंदा क्यों है ?

क्या साँसों का चलना ही है ज़िन्दगी
हर कदम लडखडाती अटकती
मोच खाए पाँव घसीटती है ज़िन्दगी !

कभी दीमक तो कभी नागफनी
बातों और वादों की फांस लिए
अब तो हर डगर अटकाती ज़िन्दगी !

कभी मान तो कभी थी जरूरत
अब तो हर पल घुटती साँसों में
ज़िन्दगी का कर्ज़ उतारती है ज़िन्दगी !
                                   
उत्तर देती जिंदगी ...

एक पल जन्म दूसरे पल मौत है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का आना जाना नहीं है ज़िन्दगी

जीने को तो बरसों जी गए
हर पल मर मर के जी गए
मासूम सी मुस्कान पर मर गये
यादों में जिंदा रहना है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का .....

कभी सहारा बनते गए
कभी लड़खड़ा कर सहारा पा गए
हर साँस कदम बढ़ाते चले गये
कभी बैसाखी कभी रेस है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का ....

जीने को तो सब ही हैं जीते
पीने को तो अश्क भी हैं पीते
सीले पलों में सपनों को हैं सीते
मौत के बाद भी जिंदा है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का ....
                      ... निवेदिता

बुधवार, 4 सितंबर 2019

उलझन ....



इधर जग उधर  ईश्वर का द्वार है
सर्वत्र गूँजती कर्तव्य की पुकार है

चाहती हूँ थोड़ी शीतल सी छाँव
हर कदम पर बिछा ये अंगार है

वासनाओं के इस परिवेश में
बड़ी मुश्किल से मिलता प्यार है

पाये धोखे यहाँ हर कदम पर
क्यों मिलता गरल सा व्यवहार है

मन पर पड़ा मिथ्या आवरण
चाँदनी पर छाया हुआ अंधकार है

यही अनुभव हर साँस में किया
मुक्ति की कल्पना ही निराधार है

गुजरा है कोई तूफान इधर से
कह रही टूट कर पड़ी बन्दनवार है
                              .... निवेदिता