इधर जग उधर ईश्वर का द्वार है
सर्वत्र गूँजती कर्तव्य की पुकार है
चाहती हूँ थोड़ी शीतल सी छाँव
हर कदम पर बिछा ये अंगार है
वासनाओं के इस परिवेश में
बड़ी मुश्किल से मिलता प्यार है
पाये धोखे यहाँ हर कदम पर
क्यों मिलता गरल सा व्यवहार है
मन पर पड़ा मिथ्या आवरण
चाँदनी पर छाया हुआ अंधकार है
यही अनुभव हर साँस में किया
मुक्ति की कल्पना ही निराधार है
गुजरा है कोई तूफान इधर से
कह रही टूट कर पड़ी बन्दनवार है
.... निवेदिता
सच झूठ-फरेब में लिपटी दुनिया में उलझन ही उलझन हैं, जिससे बाहर निकलने की कला ईश्वर ही जाने
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें
हमेशा की तरह सरलता से जीवन का सार बता दिया आपने | बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-09-2019) को "हैं दिखावे के लिए दैरो-हरम" (चर्चा अंक- 3450) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।--शिक्षक दिवस कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Nice
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