बुधवार, 4 सितंबर 2019

उलझन ....



इधर जग उधर  ईश्वर का द्वार है
सर्वत्र गूँजती कर्तव्य की पुकार है

चाहती हूँ थोड़ी शीतल सी छाँव
हर कदम पर बिछा ये अंगार है

वासनाओं के इस परिवेश में
बड़ी मुश्किल से मिलता प्यार है

पाये धोखे यहाँ हर कदम पर
क्यों मिलता गरल सा व्यवहार है

मन पर पड़ा मिथ्या आवरण
चाँदनी पर छाया हुआ अंधकार है

यही अनुभव हर साँस में किया
मुक्ति की कल्पना ही निराधार है

गुजरा है कोई तूफान इधर से
कह रही टूट कर पड़ी बन्दनवार है
                              .... निवेदिता

3 टिप्‍पणियां:

  1. सच झूठ-फरेब में लिपटी दुनिया में उलझन ही उलझन हैं, जिससे बाहर निकलने की कला ईश्वर ही जाने
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
    बहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें

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  3. हमेशा की तरह सरलता से जीवन का सार बता दिया आपने | बहुत सुन्दर

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