सोमवार, 31 जनवरी 2011

" भाव तुम्हारे.........."

मन की छुअन को छूते
दुलराते सहज स्नेहिल
भाव तुम्हारे ...........
जीवन की ढलती दोपहरी में
छाया बन सहेजते
हर चुभन ................
कभी चांदनी कभी फुहार बन
लहराती  फगुनहट सी
इन्द्रधनुषी चमक ..........
पल-पल बहती जीवन नदिया
भंवर -किनारों से बचते -बचाते
आ पहुंची मंजिल तक ......
लो फिर याद आते
भाव तुम्हारे ................

रविवार, 30 जनवरी 2011

" बापू के बहाने से ........"

         चलिए आज एक बार फिर  बापू को याद कर लें और उनकी ही आत्मा को सोचने पर मजबूर करें कि क्यों उन्होंने अपने सीने पर गोली खाई, हम जैसे लोगों के लिए जिनके पास आत्मा है ही नहीं और संवेदनाएं रास्ता भूल  गई हैं | आज बापू के चित्र को सबसे ज्यादा माला वही लोग पहनायेगे  जिनको उनके आदर्श भूल गए है | 
उन को सिर्फ इतना याद है कि साल में दो दिन --गांधी जयंती  और शहीद दिवस --गांधीजी के चित्र पर माला डालना है ,पहनाना या चढ़ाना नहीं | 
                   इन तथाकथित नेताओं को ही हम क्यों कुछ भी कहें जब कि इसके ज़िम्मेदार हम खुद  ही हैं | इन महानुभावो को चुनने का -- बार बार चुनने का --काम हम ही करते हैं ,कभी अपने मत का प्रयोग कर  के  और कभी मतपत्र को एक टिशु पेपर समझ कर | मत ना देने के कई बहाने भी हम यूं ही खोज लेते है -कभी   मौसम  तो कभी व्यक्तिगत व्यस्तता | जब इन बहानों से काम नहीं चलता तब कह देते है एक मत से क्या  बदल जाएगा 
हम किसी गलत काम का दायित्व नहीं ले सकते | हम कुछ सुधार नहीं  सकते तो गलत का साथ  भी नहीं दे  रहे  है | एक बार ये भी सोच कर देख लें कि क्या ये सच है अथवा सिर्फ मनबहलाव | मुझे तो ये लगता है कि अपने मत को नष्ट  कर के हम अपना ही नुक्सान करते हैं | अपने जिन बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए कोई भी कमी नहीं रखते हैं ,उन्हें हम कैसा समाज विरासत में दे जायेगें | उस विकृत स्थिति के लिए हमारा अपने  मत का इस्तेमाल ना करना ही कारण होगा | 
             अगर  सच्चे दिल से हम अपने राष्ट्रपिता  को श्रद्धांजलि देना चाहते है तो माल्यार्पण के पहले खुद से ये वादा करें कि अपने मत का प्रयोग अवश्य करेगें | बापू के सपनों के भारत को कुछ तो आकार देंगे | ये सब हम अपनी आने वाली पीढ़ी को सौगात में देने के लिए करेंगे जिससे बापू को याद कर के वो भी गौरवान्वित महसूस कर सकें !!
              किसी भी पर्व को मनाने की परम्परा में एक विधान हम भी जोड़ लें --समाज की या कहें अपनी किसी कमी अथवा बुराई को छोड़ने की शुरुआत कर के ..........|

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

अरे ये क्या ........

              कभी सुबह -सुबह सड़क पर आ कर देखिये | वाह क्या मनमोहक दृश्य है | कैसी अच्छी हवा बह रही है | कुछ लोग वजन घटाने के लिए तो कुछ  स्वस्थ रहने के लिए दौड़ लगा रहे हैं | अरे ये क्या देख लिया जो नज़रों का स्वाद कसैला हो गया !                                   एक  छोटा सा बच्चा अपने से दुगनी लम्बाई का झाड़ू लिए सड़क साफ़  कर रहा है | कर दिया न आपकी प्यारी सी  सुबह का सत्यानाश  | चलिए छोडिये वापस घर को चलते हैं | एक प्याला गरमा गरम चाय के साथ अखबार पढ़ते हुए थोड़ा देश - बिदेश की सैर करते हैं | कुछ निहायत ही जरुरी मामलों पर अपनी राय देतें हैं | आप भी कहां इस बच्चे के बारे में सोच कर अपनी सुबह खराब कर रहे हैं |
            ये क्या  घरों से कूड़ा उठाने के लिए कूड़ेवाली के साथ उस के दो छोटे -छोटे बच्चे भी आये हैं और पूरी कोशिश कर रहे हैं कि ठेला सीधा हो जाए मगर ये मुआ ठेला सीधा होने की जगह पता नहीं  किधर -किधर मुड़ता जा रहा है | अजी छोडिये भी आप कहां   अपनी चाय ठंडी कर रहें है ज़रा सा आवाज दीजिये कामवाली को और इधर से निगाह फेरिये | पर ये क्या जनाब कूड़ा ले कर घर के अन्दर से फिर एक बच्चा ही निकलता है | अरे परेशान होने की कोई भी जरुरत नहीं है | जानते हैं क्यों ? क्योंकि ये आपका नहीं बल्कि आपके घर काम करने वाली का बच्चा है | सच ये तो आप के साथ अत्याचार हो रहा है | चलिए स्नान -ध्यान कीजिये  अपने काम पर भी तो जाना है | जल्दी - जल्दी में चाय पीना तो रह ही गया | सामने ही तो होटल है दो पल तो वहां बिता ही सकते हैं | लीजिये भाई यहां भी वही समस्या चाय के प्याले ले कर बदली हुई शकल में एक और बच्चा !  ये तो बड़े भाई कोई साज़िश लगाती है आप के खिलाफ | सुबह से इन बच्चों ने नाक में दम कर रखा है |चाय का प्याला तक सुकून से नहीं मिला |
            मै भी आप से सहमत हुं | वाकई इन छोकरों ने तो परेशान ही कर दिया है आपको | बस एक सवाल -- आपने परेशान होने के अलावा और क्या किया इन बच्चों के लिए  ? उन बच्चों से काम करवाना उनके माता - पिता के लिए मज़बूरी हो सकती है | ये वो धनाभाव की वजह से ही कर रहे होंगे अथवा अज्ञानता के फलस्वरूप | हम तथाकथित संपन्न और संभ्रांत वर्ग के हो कर भी सिवा तरस दिखाने अथवा भाषण देने के अतिरिक्त और क्या करते हैं ? ये प्रश्न हम खुद अपने आप से करें तभी कुछ बेहतर और सार्थक दिशा पा सकेगें | इस के लिए किसी संस्था की आवश्यकता नहीं है | अगर उन बच्चों के अभिभावकों से बात करें तो पता चलेगा कि जो  तमाम सरकारी योजनायें आई है उन के बारे में उन्हें पता ही नहीं | मुफ्त मिलने वाली शिक्षा के बारे में उन्हें पता ही नहीं | चलिए इतनी मेहनत नहीं कीजिये | सिर्फ ये करतें हैं किसी भी एक बच्चे की फ़ीस आप दे कर उन को स्कूल पहुचां दीजिये | विश्वास कीजिये  इसमें आने वाला खर्च सिर्फ उतना ही होगा जितने में आप एक बार किसी होटल में खाना खाते हैं या एक फिल्म देखेगें , लेकिन इससे मिलने वाला सुकून बहुत ज्यादा होगा |
             अगली बार जब भी किसी ऐसे बच्चे को देखें तो थोड़ी सी जवाबदेही खुद भी महसूस कीजिएगा और सोचियेगा |
            -----  निवेदिता 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

"नि:शब्द होता गणतन्त्र "

         एक प्रश्न  अकसर चेतना को मथता है ,कि यह गणतंत्र या इसकी उपयोगिता है क्या | सच्चा गणतंत्र तो तभी संभव है जब बनाए गए संविधान को उसके सही अर्थों में प्रभावी भी करा सकें | अर्थात संविधान के अनुसार सब को एक समान अधिकार मिले और सम्मानपूर्ण रूप उसकी  पहचान  को भी मिले |
         एक स्त्री  ,आज भी इस तथाकथित आधुनिक होते जाते समाज में , अपनी सहजता ,निजता या कहना चाहिए अपनी समग्रता के प्रति निश्चिंत नहीं हो पाती | चाहे कुछ वर्षों पहले की बात करें  अथवा अभी की ,वो खुद को अपनी ही निगाह में कभी भी सुरक्षित नहीं पाती | उसका नाम कुछ भी रख लें --जेस्सिका कहें या दिव्या ,आरुषी कहें या मधुमिता |  इस श्रृंखला में कई चेहरे बस पलक झपकते ही जुड़ते जायेंगे और शायद पूरा ब्रह्माण्ड इस में बंध जाएगा और अपनी जवाबदेही से बचने का कोई  भी रास्ता खोज ना पाए |
          अगर वास्तव में हम एक सभ्य समाज की कल्पना करें तो सबसे पहले अपने  बेटों को इतना  जागरुक बनाएं की स्त्री को एक इंसान समझें और उन्हें एक अभिशाप बनने से बचाएं | शायद यह एक हमेशा कही जाने वाली बात लग रही हो ,परन्तु ऐसा है नहीं  | आज  जब बेटे कुछ भी करने को स्वतन्त्र हैं तो बेटियों को भी अस्वीकार करने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए ,शायद तब शराब देने से मना करने पर कोई जेस्सिका नहीं  मारी जायेगी और सुकून से साँसे ले पाएगी | शायद तब ही शेष बची स्त्रियां अपना  जीवन सहजता से सही अर्थों  में जी पाएगी और नि:शब्दता से एक सार्थक संवाद की तरफ बढ़ पाएगी |

रविवार, 23 जनवरी 2011

चलो अंधविश्वासी हो जाएं

           अजीब सा लग रहा है ना ,ये पढ़कर कि चलो अंधविश्वासी हो
जाएं ! दरअसल कल रात सोते-सोते लगा कभी-कभार ऐसा  भी 
कर के देखा जाए ,विश्वास ही नहीं करें ,अपितु इस विश्वास को अंधा भी कर लें ।इतनी भूमिका पर्याप्त होनी चाहिये ।कल गणेश चौथ का व्रत रखा था ,जो मैं सिर्फ़ अपने ही नहीं सभी के बच्चों की मंगलकामनाओ के लिये रखती हूँ ।कल पूरे दिन  मन थोड़ा अशांत सा था या यूँ कहूँ कि थोड़ी उलझन सी थी, इस साल बच्चे पास जो नहीं हैं ।पढ़ाई के लिये  हॉस्टल में हैं । तिल -गुड़ के  बकरे की जो आकृति   बच्चे चढ़ाते हैं ,वो विधि कैसे होगी ।ख़ैर हर उलझन का एक इलाज, बच्चों के पिताश्री ने उस विधि को पूरा कर के  पूजा संपन्न करा दी ।जैसे ही मैं पूजन पूरा कर के उठ रही थी कि एक छोटा सा चूहा ,जो हमारे घर में कभी नहीं दिखाई पड़ता,  चहलकदमी
करता दिखा और स्वतः ही मैं बोल उठी -अरे गणपति वाहन -और
मन एक तरह से शांत हो गया ।थोड़ी देर बाद एक़दम से ये ख़्याल 
आया कि मै,एक तथाकथित रूप से  वो  गृहणी  जो अंधविश्वा्सों
से बहुत दूर ही रहती है ,कैसे इस तरह का अंधविश्वास कर गई ।
बस तभी से सोच रही हूं कि अगर कभी-कभार थोड़ा सा ईश्वर की सत्ता के प्रति अंधविश्वासी हो जायें और मानसिक सुकून मिल जाए तो कोई   बुराई नहीं है !
            चलिये ये भी सोच लेते हैं कि किन बातों के प्रति अंधविश्वासी हो सकते हैं या होना चाहिए ।बचपन में माँ को कहते सुना था कि रसोई कभी खाली नही करनी चाहिए ,थोड़ा सा खाना बच जाना चाहिये।कारण पूछने पर माँ ने कहा कि बचा हुआ खाना हम खुद  तो खायेगें नहीं पर इस बहाने से किसी पशु-पक्षी को जरूर मिल जायेगा । इस शहरीकरण के दौर में सबसे ज्यादा परेशान ये पशु-पक्षी ही हुए हैं जिनके प्रति हम संवेदनहीन हो गये हैं।
            इसी कड़ी में एक क़दम और -कन्यादान को सबसे बड़ा पुण्य कहा गया है ,यदि वह कन्या किसी जरूरतमंद अथवा आर्थिक 
रूप से किसी कमजोर की हो तो यह कार्य अति-उत्तम हो जाता है ।
हम पूरे आयोजन का भार न वहन कर सकें तब भी आंशिक भागीदार 
अवश्य बन सकते हैं ।
            ठंड के दिनों में बेशक हम किसी संस्था तक ना पहुँच पायें ,पर अपने दरवाज़े पर कूड़ा उठाने वाले को ठंड में सिकुड़ते देख कर अनदेखा ना करें ।पौधों में पानी डालते माली को  एक प्याला ग़रम चाय दे के तो देखें ।उन चेहरों पर आया सुकून आपको बहुत
 शांति देगा ।शायद ये आपको मानवता लग रही हो ,परन्तु एक
अंधविश्वास ये भी है कि हम उस ईश्वर की कृति को संतुष्ट कर पायें
जिसकी सामर्थ्य हमें ईश्वर ने दी है ।
                इस दिशा में सोचे तो ये कड़ी बहुत दूर तक जाएगी ।तब 
चलिये थोड़ा सा अंधविश्वासी हो जाते हैं और बहुत सारा सुकून और 
आत्मबल अपने मन मे संजो लेते हैं ! 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

जीवन की आपाधापी में........

जीवन की आपाधापी में
जीवन के ताने बाने में ,
मैं प्यार निभाती ही रही
प्यार दिखा न पाई  !
दायित्वों के तले
कर्म करती ही रही , 
मुस्कान बिखेरती ही रही
मुस्करा न सकी !
तुम को सुलाने में 
 ख़ुद मैं कभी  सो न पाई,
तुम्हे लिख़ना सिखाने में
ख़ुद लिखना भूल गई!
अब इस सान्ध्यकाल जो देख़ा ,
कुछ भी न मैंने ख़ोया है !
देख़ मेरे चेहरे की हल्की शिकन ,
तुम भूल जाते हो मुस्कराना
मेरे हल्की सी लड़खड़ाहट पर ,
दौड़ आते हो थामने मुझ को
मेरे आवाज़ की उदासी ,
कैसे महसूस कर जाते हो 
कैसे कहूँ मैंने कुछ ख़ोया ,
सारा जग तुमने तो दे डाला
ये सुक़ून भरी नींद  ,
उन जागी रातों पर वारी हैं 
मेरे चाँद -सूरज ,
मेरी दुनिया के सितारों
तुम्हारी मीठी रौशनी ,
सच यही तो मेरे मन-आंगन
में महकती-खिलखिलाती चमक है !

सोमवार, 17 जनवरी 2011

"इल्तिज़ा "

  मानती हूँ साथ न चल पाओ
          तो दूसरी राह   बढ़ना   है    बेहतर
 न पहचान पाओ तो  कौन कहता है
          पहचानने का करो अभिनय उम्र भर
 पर ये भी सच है ,इतना ही था ठहराव
          क्यों आये पतझर में  बहार   की     तरह
 ज़िन्दगी की राह में माइलस्टोन की तरह
        प्रतीति दिला कर ओझल हो गये नज़र से
 तुम से तो चाहा था नेह भरा मन आंगन
           क्यों पथ में अंगार बिछाते चले गये
 कुछ देना तो दूर जो पास था
          वो    भी     चुरा    कर      छिपा     चले
मानव की तो विडंबना ही है ये
        तुम क्यों   ग़ैरज़िम्मेदाराना  ढ़ंग  से 
                               भटकाव बढ़ा चले ! ! ! !

शनिवार, 15 जनवरी 2011

" नारी ही नही शत्रु नारी की "

            आज तक यही सुनते आ रहे हैं , कि नारी ही नारी की शत्रु 
है। कुछ अर्थों में शायद ये सच हो , किन्तु ऐसे कथन इस पुरुष-प्रधान समाज के पुरुष को उसके दायित्वों से मुक्त कर देते हैं । 
हम कितने भी आधुनिक हो गये हों , कितनी भी बहस कर लें , किंतु अंतिम निर्णय अभी भी पुरुष का ही रहता है । जब परिवार
में सास , ननद अथवा जिठानी या कहूँ कोई भी महिला सदस्य 
जब कोई गलत कार्य करती है ,तब उस परिवार के पुरुष उन को
रोकते क्यों नहीं ? जब हर अच्छे कार्य की ज़िम्मेदारी खुश हो कर 
लेते हैं ,तब किसी भी नारी पर होने वाले अत्याचारों के प्रति 
अपनी ज़िम्मेदारी या कहूँ कि अपनी जवाबदेही को क्यों नकार
जाते हैं ? संभवतः यह एक सुविधाभोगी मानसिकता है । अतः ऐसे 
वकतव्य देते हुए कभी-कभार ही सही इस सच को मानने में झिझक
नहीं होनी चाहिये ।
                   पुरुष के प्रति जवाबदेही तय करते हुए नारियों को भी
दूसरी नारी ,जिसके साथ अत्याचार हो रहा है , के बारे में भी सोच
लेना चाहिये और इस कथन --नारी ही नारी की शत्रु है -- को गलत
साबित कर देना चाहिये , क्योंकि ये एक कथन नहीं ,अपितु एक कलंक ही है जो एक संवेदनशील प्राणी दूसरे संवेदनशील प्राणी के
प्रति करता है !

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

"दो बूंद ज़िन्दगी की "

सच तुम दोनों हो
दो बूंद हमारे जीवन की !
जिनसे जीवन खोजता
अर्थ नित नये - नये !
आज  सुख -सुकून
भरे ये पल मिले ,
इनका कारण ,
हो सिर्फ़ तुम दोनों !
तुम्हारा मान बढ़े ,
सम्मान मिले ..
 है यही  इक आस  !
हाँ ! हमारे लाडलों !
हो तुम हर सांस .....
हमारे जीवन की.........
राजन -रमन !
तुम हो
सुख - संकल्प
हमारे हर इक पल की !

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

" इन्द्रधनुषी पल "

खुशियों भरे ये पल
इन्द्रधनुष से
झांकते बादलों से ,
माँ की गोद से
झांकते लाडले की तरह !
छुपा लूँ ...
हर निगाह से ,
लगा न दे कोई नज़र ,
कर न दे कोई
टोटका कहीं !
आज होना था
मेरे पास मेरी माँ को !
छुपा लेती मुझे
आंचल में  अपने ...
छा जाती मुझ पे
इक ढ़ाल की तरह !
रोक लेती इन पलों को
मेरे लिये ......
मेरी खुशियों पर
लगा जाती इक
नज़रटीका ...
मैं निभाती अपना फ़र्ज़
ले जाती इन सुख भरे पलों को
विरासत जैसे
अपने दुलारों तक ,
माँ होने का हक निभाती ,
और बन जाती मैं भी
इक नज़रटीका
अपने लाडलों का !
सहेज लेती इस
इन्द्रधनुषी खुशीको
अनन्त युगों के लिये !

रविवार, 9 जनवरी 2011

"ख़ामोश ख़्वाब"

आवाज़ को खामोश होते तो देखा था ,
पर इस खामोशी में जो आवाज़ है ,
 विरक्ति की ......
इस गुमसुम शोर में
क्या ये है तुम्हारी ...
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी ..
एक दम तोड़ती
बेचैन सहजता  !
क्यों तुम्हारे ...
ये अविचारे विचार ...
एक सन्नाटा बन
दम घोंटते हैं...
मेरे ज़ेहन में  !
तू है मेरा ...
हाँ , सिर्फ़ मेरा ...
बहुत हसीं ख़्वाब !
क्यों ले आता है
जहां की कड़वाहट ...
अपने बीच  !
ले भी आता है तो
क्यों नहीं छोड़ देता ...
वो सब मेरे पास !
तुम्हारे लिये तो ...
नीलकंठ बन कर
विषपान कर
शिव बन जाऊँ  !
देखने वाली आँखें
रहे न रहे ....
ख़्वाब सलामत रहे  !

शनिवार, 8 जनवरी 2011

" जीवन "

जीवन ! तू कितना मधुर है सबके लिये
             सच तू जीने योग्य है   भोगने   है  !
तू आकर्षक है......
              तू याद रखने योग्य है औरों के लिये
फ़िर क्यों तू ...
              इतना रूठा हुआ सा अजनबी है मेरे लिये !
मैने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया
               जो तुझे चुभे ,न  ही जान कर न अनजाने में!
ये तो मेरी ही बदकिस्मती है
              तू जो इतना कठोर इतना शुष्क है मेरे प्रति !
मुझे दुख है , हो सकता है औरों को भी
                हो मेरे दुख का दुख !
किन्तु तू क्यों इतना छलनामयी है
                 अफ़सोस है बेहद अफ़सोस !
मगर इस सबसे बड़ी त्रासदी है
                 इस अफ़सोस का अफ़सोस
                           और   निरर्थक     प्रतीक्षा
       अनदेखे अनजाने पल और सपने की  ! ! ! !

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

मन का भटकाव

जानती हूं मन का भटकाव असीम है
इसीलिये तो भटकती जाती हूं ,
कोशिश करती हूं ,
उलझन सुलझाने की
इसीलिये तो और उलझती जाती हूं
शायद इसी उलझाव भटकाव में ही
पाऊं कभी राह कोई
न सही जी. टी. रोड, कोई धूमिल सी
पगडंडी ही सही
उस पगडंडी को राजमार्ग सा भव्य
बना लूंगी मैं
अगर न भी बना पायी तो किसी
पहाड़ के कोने में
उपेक्षित पड़े देवालय की
शान्ति ,खोज ही लाऊंगी
पर द्वार तुम्हारे न जाऊंगी
कभी याचना के लिये
तुम आओ तो स्वागत है सदा
पर याद रखना ,जब भी आना
अपनी और मेरी भी
सीमारेखा को समझ कर ही आना ...

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

हाँ , हूं मैं आज की नारी ....

हाँ , हूं मै आज की नारी ,
आवाज होते ही निकल आती हूं ,
सामना करने को
हर आहट का ,हर आघात का ,
बांटने को दूसरों का भार ,
पर मन ही मन ,
डरती भी हूं ...
पलट कर देखती भी हूं ,
पीछे आने वाले क़दमों को ,
कहीं उनके कुत्सित इरादों
के दायरों में मैं तो नहीं ,
अपनी पिछली पीढ़ी के
संस्कारों के साथ ,
कोशिश करती हूं
देने का साथ
अपनी नयी पीढी का ,
शायद इसीलिये
हाँ , हूं मैं आज की नारी  !

बुधवार, 5 जनवरी 2011

"राम"नहीं "कृष्ण".....

हां ,ये सच है
चाहत राम की नहीं ,
चाहत तो है ...
बस कॄष्ण की !
राम तो करेंगे
पालन बस मर्यादाओं का !
कृष्ण आयें तो
वो सोचेंगे .....
मन की ,मान की..
राम की सीता बनने से .
अच्छा है ,सच में...
कृष्ण की बनूँ ...
 रुक्मणी न भी बनूँ
राधा बनने में भी है मान !
सीता बनने पर तो ..
मिल जायेगा वनवास
धोबी भी करेगा उपहास....
राधा बनने से ही
बन जाऊं मुरली कान्हा की !
राम भी गलत बस इतने ही हैं...
सबकी सोचा ,बस भूले अपना ही जीवन...
इसीलिये सीता को निकाल दिया
पर सिर्फ़ ,घर से ही
मन से तो निकाल ना पाये !
बस इसीलिये चाहत है पाऊँ...
कॄष्ण को ही .......
भूल कर भी ना आना तुम राम ..
कॄष्णमयी हो कर रहूँ ..
मन में ,घर में जन जन में ......
डरती हूँ राम तुम्हारे धनुष से..
भाती है कान्हा की मुरली.....
तो बस राम नहीं  कृष्ण ............

सोमवार, 3 जनवरी 2011

मृत्यु......जीवन का अंत या ..

             अकसर सोचती हूं मृत्यु जीवन का अंत है या नव जीवन का प्रारम्भ । जब भी किसी का या कहूं उसके शरीर का अंत देखती हूं तो यही सवाल सामने आ जाता है । मुझे ऐसा लगता है ,जब भी हम किसी की मृत्यु देखते हैं ,तो उसमें किसी अपने को ,जो हमसे बिछुड गया है को ही याद करते हैं । जब हम उस अपने को कहीं भी नहीं देख पाते हैं तो लगता है कि मृत्यु जीवन का अंत ही है ,परन्तु जब मन शान्त हो जाता है तो लगता है कि मृत्यु उस शख्सियत का कुछ भी नहीं कर पायी । वह तो अपने नये रूप में अपनी नयी यात्रा में कहीं हमारे आस पास ही है । इस पूरी प्रक्रिया में दिक्कत सिर्फ़ इतनी सी है कि हम उसको पहचान नहीं पाते  ।
              हमारी विडम्बना इन्सान होने के फ़लस्वरूप सिर्फ़ इतनी है कि हम अपने  मृत अपनों को बारम्बार मृत देखते हैं । कल मैंने भी यही पाप किया । यह शब्द "पाप "जरूर कुछ ज्यादा भारी लग रहा है परन्तु ये सच है । कल हमारे एक बुज़ुर्ग पडोसी की मृत्यु हो गयी थी । सामाजिकता के नाते ही मै वहां गयी थी , परन्तु वापस आने के बाद से ही मन अपने माता _पिता की मृत्यु,जिसको कई वर्ष बीत गये हैं ,की याद से बोझिल है और मैं फ़िर इस प्रश्न में उलझ गयी हूं ।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नये साल का संकल्प.......

 बहुत दिनों से सोच रही थी इस साल क्या संकल्प लूं ,लेकिन नया साल पहले आ गया और मैं पीछे ही रह गयी ।खैर better late than never इससे प्रेरित हो कर अब संकलिप्त हो लेती हूं कि  अब कोई भी नया संकल्प न लेने की ,कम से कम इस वर्ष । वैसे भी करते तो हम वही हैं जो मन करता है । संकल्प तो काम करने के बाद ही याद आता है।जो काम हम नहीं कर पाते हैं उस के लिये हम संकल्प का बहाना बना लेते हैं ।अपने किसी भी किये या अनकिये काम के लिये दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने के लिये ,या यूं कहूं कि अपनी ज़िम्मेडारी से बच निकलने का चोर दरवाज़ा है ये तथाकथित संकल्प । शायद ये एक कदम है बंजारा जीवन की तरफ़ ।              नया साल सबके लिये सुख ,समॄद्धि , संतुष्टि  और खुशियां लाये।