tag:blogger.com,1999:blog-88233618920611984722024-03-28T05:24:47.257+05:30झरोख़ा"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.comBlogger724125tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-54048205316854941352023-11-16T09:47:00.000+05:302023-11-16T09:47:14.868+05:30यादों की महकी अमराई ...<p>विहस रही बदली वो पगली</p><p>यादों की महकी अमराई </p><p>*</p><p>बैठ रहा पाटे पर वीरा </p><p>मंगल तिलक लगाये बहना </p><p>सुन आँखों से वो बोल रहा</p><p>तू ही है इस घर का गहना </p><p>जब जब तू घर आ जाती है</p><p>आती खुशियाँ माँ मुस्काई।</p><p>*</p><p>मन तरसे अरु आँखें बरसे </p><p>विधना ने क्यों रोकी राहें</p><p>नाम लिया है कुछ रस्मों का</p><p>रोक रखी वो फैली बाँहें</p><p>टीका छोटी से करवाना </p><p>याद मुझे कर हँसना भाई।</p><p>*</p><p>बीती बात याद जो आये</p><p>भर भर जाये मेरी अँखियाँ </p><p>इस बरस तू नहीं आयेगी</p><p>बता गयी हैं तेरी सखियाँ</p><p>एक बार तू आ जा बहना </p><p>कर लेंगे हम लाड़ लड़ाई।</p><p>*</p><p>रीत निभाना याद दिलाते </p><p>कदम ठिठक बढ़ने से जाये</p><p>संस्कारों ने रोक रखा है</p><p>चाह रही पर आ नै पाये</p><p>पढ़ चिट्ठी अपनी बहना की </p><p>भाई की आँखें भर आई।</p><p> निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-78741515495816894542023-11-14T10:29:00.002+05:302023-11-14T10:29:29.820+05:30अहान<p>नटनागर सा रुप सलोना</p><p>और मुरली की मीठी तान</p><p>छोटा सा अहान लाडला</p><p>नटखट मेरी जान!</p><p><br /></p><p>पैनकेक मन को भाए</p><p>खाए न कोई मिष्ठान</p><p>तिरछी मिरछी चितवन है</p><p>मन को भाती मुस्कान!</p><p><br /></p><p>देवों का स्तवन दुलारा</p><p>भोले का तू गान</p><p>मंदिर का तू दीप मेरे</p><p>खुशियों की दुकान!</p><p>*</p><p>वारी जाऊँ राजदुलारे</p><p>तू है मेरी जान</p><p>सुन ले प्यारे नन्हे फरिश्ते</p><p>सबका तू अभिमान!</p><p>*</p><p>सबका है आशीष यही </p><p>छू ले तू आसमान</p><p>दिग दिगन्त तक यूँ चमके</p><p>जैसे जग में दिनमान!</p><p>#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी </p><p>#लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-7052424517934939132023-11-11T20:53:00.001+05:302023-11-11T20:53:21.904+05:30अलबेला सपना <p>सजा रही अलबेला सपना </p><p>मन आशा से दमक रहा। </p><p>*</p><p>राह बहुत हमने थी देखी </p><p>आन विराजो रघुनन्दन </p><p>फूल चमेली बेला भाये </p><p>लाये अगरु धूप चन्दन </p><p>मंगल बेला अब है आई </p><p>खुश हो घर गमक रहा है। </p><p>*</p><p>रात अमावस की काली थी </p><p>निशि शशि ने आस सजाई </p><p>राह प्रकाशित करनी चाही </p><p>चूनर तारों भर लाई </p><p>सुमन मेघ बरसाने आये </p><p>बन साक्षी अब फलक रहा। </p><p>*</p><p>कन्धे पर हैं धनुष सजाये </p><p>ओढ़ रखा है पीताम्बर </p><p>सुन्दर छवि है जग भरमाये </p><p>नाच रहे धरती अम्बर </p><p>आज महोत्सव अवध मनाये </p><p>दीवाली सा चमक रहा।</p><p>निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-53909407730071875012023-10-24T19:05:00.000+05:302023-10-24T19:05:00.085+05:30विजयदशमी<p><span style="font-size: 15px;">नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने। नवमी के दिन हवन और कन्या-पूजन के पश्चात हम, तुरन्त ही आ गये दशहरा पर्व को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं। स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद, एक और स्त्री 'सीता' को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा। दशहरा पर राम के द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है। सीता के हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था।</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">दशहरा पर्व को "विजयदशमी" भी कहते हैं । कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया ? राम तो ईश्वर के अवतार थे। वो तो किसी भी पल, यहाँ तक कि सीता-हरण के समय ही , रावण का वध कर सकते थे । बल्कि ये भी कह सकते हैं कि सीता-हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते। </span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखें, तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित-शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं। शक्तिशाली सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे। राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था। परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है। उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया। कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है। जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु एवं गगन। इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई। पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध, उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई। जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं। अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई। वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है। आकाश का तत्व शब्द है, जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई। जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी, तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये। इनके जागृत होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति, अपने प्रति सचेत है। सचेत व्यक्ति गलत-सही में अंतर को भी समझने लगता है। ये समझ, ये चेतना ही न्याय-अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है। इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल, क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है। </span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें, अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे। जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं, अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें। </span><br />
<span style="font-size: 15px;">इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!!</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span><br /><br /><br /><br /><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_231024_190359_024.sdocx-->निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-48991209232137177252023-10-21T19:01:00.004+05:302023-10-21T19:01:49.594+05:30कन्या पूजन <p> सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं। कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं, नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये। ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं, तो कभी-कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं। खटास की बात फिर कभी, आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ।</p><p><br /></p><p>आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना की जा रही है। अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ विराजमान हो गयीं हैं। घरों में भी कलश-स्थापना और दुर्गा सप्तशती के पाठ की धूम है, तो मंदिरों में भी ढोलक-मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं। कपूर, अगरु, धूप, दीप से उठती धूम्र-रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं। </p><p> </p><p>इस अवसर पर बड़े ही विधि विधान से बहुधा कन्या खिलाई और पूजी जाती हैं। कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है। घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं। फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है, वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं। बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं, वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं। बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है। घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं, जिनको कमतर मान कर पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है और कभी आमंत्रित भी नहीं किया जाता हैं।</p><p><br /></p><p>आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है। अब कन्या पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए। मैं कन्या पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ।</p><p>कन्या पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए। उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए। अधिकतर लोग माँ की छोटी-छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं। उनके घर से निकलते ही, वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता। चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है, परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा। सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे।</p><p><br /></p><p>प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो। इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें। ऐसा करने से अधिक नहीं, तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा।</p><p><br /></p><p>उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे। प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो। कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं, जो जल्दी खराब नहीं होते हों। </p><p><br /></p><p>कन्या पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके। निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है, तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं। ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व, यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा। इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा, आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं।</p><p><br /></p><p>यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम अवश्य करना चाहिए। जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए। जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं, तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा। </p><p><br /></p><p>अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि अपनी जड़ों को बिल्कुल न भूलें और परम्पराओं का पालन अवश्य करें, बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ।</p><p>#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी </p><p>#लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-42944761163148156962023-10-19T17:54:00.001+05:302023-10-19T17:54:22.644+05:30सुखमय हो संसार : गीतिका<p>उपवन जनक का, बरसे सुमन फुहार।।</p><p>राम सिया का स्वयंवर, आये देव हजार।।</p><p><br /></p><p>जनकसुता सी हो वधू, वर भी हो रघुनाथ।</p><p>सहज सरल सुखमय रहें, करे मंगलाचार।।</p><p><br /></p><p>चर्चा सुन रघुनाथ की, सिया गईं सकुचाय।</p><p>वरणन रघुवर का करें, ऋषि करते जयकार।।</p><p><br /></p><p>राम सिया साथी बने, पहनाई जयमाल।</p><p>कोमल साक्षी कमल हो, प्रकृति करे उपकार।।</p><p><br /></p><p>मातु पिता आशीष दें, कीरति मिले अपार।</p><p>दोनों कुल फलते रहें, सुखमय हो संसार।।</p><p>#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी </p><p>#लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-61544327683373814662023-10-02T14:13:00.001+05:302023-10-02T14:13:22.813+05:30लघुकथा : अंतर<p>पार्क में चबूतरे पर खड़े-खड़े थक जाने पर, गांधी जी ने सोचा कि किसी के भी सुबह की सैर पर आने से पहले थोड़ा टहल लिया जाये। अब इस उम्र में एक जगह पर खड़े-खड़े हाथ पैर भी तो अकड़ जाते हैं। लाठी पकड़े टहलने को उद्द्यत हुए ही थे कि किसी को आते देख ठिठक कर अपनी मूर्तिवाली पुरावस्था में पहुँचने ही वाले थे कि किलक पड़े,"अरे शास्त्री तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? "</p><p><br /></p><p>शास्त्री जी," क्या करूँ बापू मेरे लिये बहुत कम चबूतरे रखे सबने। जगह की कमी जब ज्यादा ही शरीर टेढ़ा करने लगती है तो मैं ऐसे ही टहल कर शरीर की अकड़न दूर करने की कोशिश करता हूँ ... हूँ भी तो इतना छोटा सा कि कोई देखता ही नहीं।"</p><p><br /></p><p>गाँधी जी,"हम्म्म्म ... परन्तु तुमने कभी सोचा क्यों नहीं कि ऐसा क्यों हुआ ... कुछ तो मुझमें होगा जो तुममें नहीं है।"</p><p><br /></p><p>शास्त्री जी," सोचना क्या ... जबकि मैं कारण भी जानता हूँ।"</p><p><br /></p><p>गाँधी जी,"कारण जानते हो ! बताओ क्या बात है ... किसी को कुछ कहना हो तो निःसंकोच बोलो मैं साथ में चलता हूँ, तुम्हारा काम हो जायेगा।" </p><p><br /></p><p>शास्त्री जी,"रहम बापू रहम ... आप तो रहने ही दो।"</p><p><br /></p><p>गाँधी जी,"ऐसे क्यों कह रहे हो ... तुम खुद ही सोचो और इतिहास के पन्ने पलट कर देखो कि मेरे कहने भर से ही कितने काम हो गये हैं।"</p><p><br /></p><p>शास्त्री जी,"हाँ अंतर तो है हम दोनों में, वो भी कोई छोटा सा अंतर नहीं अपितु बहुत बड़ा अंतर है।"</p><p><br /></p><p>गाँधी जी,"मतलब क्या है तुम्हारा ?"</p><p><br /></p><p>शास्त्री जी, "आपके हाथ की छड़ी सबको दिख जाती है, परन्तु मेरे जुड़े हुए हाथ दुर्बलता की निशानी समझ कर अनदेखे ही रह जाते हैं। आपकी मृत्यु पर भी आज तक सियासत और बहस होती है, जबकि मेरा अंत तो आज भी रहस्य ही है।"</p><p><br /></p><p>गाँधी जी नजरें नीची किये कुछ सोचने लगे,"परन्तु मेरे किसी भी काम का उद्देश्य यह तो नहीं ही था।"</p><p><br /></p><p>"छोड़िये भी बापू ... आप भी क्या बातें ले कर बैठ गए हैं। आप तो अब और भी ताकतवर हो गये हैं। आप तो रंग-बिरंगे कागज़ के नोटों पर छप कर जेब मे पहुँच कर एकाध चीज़ों को छोड़ कर, कुछ भी खरीदने की क्षमता बढ़ा देते हो ",शास्त्री जी आगे बढ़ने को उद्यत हुए। </p><p><br /></p><p>"पर तुम्हारा जय जवान जय किसान तो आज भी बोला जाता है ",गाँधी जी जल्दी से बोल पड़े। </p><p><br /></p><p>"हाँ ! जिन्दा है वो नारा आज भी, परन्तु सिर्फ बातों में ... आज का सच तो यह है कि एक सीमा पर मर कर शहीद कहलाता है और दूसरा गरीबी और भुखमरी से हार कर फन्दे में खुद को लटका देता है और यही है आज के जय जवान जय किसान का सच", विवश आक्रोश में हताश से शास्त्री जी के क़दम आगे बढ़ते चले गये। </p><p>निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-60583047451463838832023-08-17T02:12:00.010+05:302023-08-17T02:12:45.304+05:30चन्द हाइकु <p> हाइकु</p><p><br /></p><p>मिट्टी का तन </p><p>चक्रव्यूह सा चाक</p><p>फौलादी मन।</p><p><br /></p><p>डूबती शाम</p><p>उलझन में मन </p><p>उर की घाम।</p><p><br /></p><p>टूटते वादे</p><p>बिखरती सी यादें</p><p>मूक इरादे।</p><p><br /></p><p>रूखी अलकें</p><p>नमकीन पलकें</p><p>कहाँ हो तुम। </p><p><br /></p><p>खुले नयन</p><p>बुझा जीवन दीप </p><p>मन अयन।</p><p><br /></p><p>चकित आँखें </p><p>भरमाया सा मन </p><p>बेबस तन।</p><p><br /></p><p>बिछड़ा साथी</p><p>राहें हैं अंधियारी </p><p>बात हमारी।</p><p>निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-25377964814659243022023-08-06T21:32:00.003+05:302023-08-06T21:32:17.543+05:30सूखे आँसुओं की तासीर !<p> सूखे आँसुओं की तासीर </p><p>आँखों से मन तक </p><p>बहती चली जाती हैं </p><p>सूखी तो आँखें रहती </p><p>मन उलझता जाता है !</p><p><br /></p><p>यादों के ...वादों के ....</p><p>बादल घिरते तो बहुत हैं</p><p>बिन बरसे तरस कर </p><p>भरे-भरे चले जातें हैं !</p><p><br /></p><p>वो रेत सरीखी </p><p>छोटी-छोटी बातें </p><p>पहाड़ सी भारी हो</p><p>मन में बसी रह कर</p><p>जीना दुश्वार कर जाती !</p><p><br /></p><p>गलत न वो बातें हैं</p><p>न ही यादें .... और </p><p>न वो रूखी-सूखी आँखें</p><p>गलत है सिर्फ मन का </p><p>बंजारा न हो पाना ! #निवी</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-43709536895758874622023-07-31T13:01:00.006+05:302023-07-31T13:01:52.902+05:30बिखरते परिवार <p><span style="font-size: 15px;">परिवार सिर्फ़ और सिर्फ़ परिवार होता है, चाहे वो एकल हो या संयुक्त, क्योंकि अपनी सोच के अनुसार ही इन दोनों ही तरह के परिवारों में सब सदस्यों की, रिश्तों की मान्यता रखते हैं। कभी पति , पत्नी और उनके बच्चे ही एकल परिवार कहे जाते हैं, जबकि वो भी अपने पड़ोसियों और दोस्तों को भी पारिवारिक सदस्यों जितना ही सम्मान देते हैं और संयुक्त परिवार जैसे ही अलग-अलग घरों में रहते हैं, तो कभी दूसरी या तीसरी पीढ़ी के सभी सदस्यों के साथ रहते हुए भी वो स्नेहभाव या कह लूँ कि नेह का जुड़ाव नहीं रहता जो कि संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी विशेषता और पहचान रहती है। मुझे तो लगता है कि सदस्य कम हों या ज्यादा, बस जिस परिवार में नेहबन्धन बना रहे वही संयुक्त परिवार है।</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">मुझको परिवार में बिखराव के मूल कारण सिर्फ़ दो लगते हैं ... पहला अहं की भावना और दूसरी चुप्पी। विवाद को टालने के लिए चुप रह कर सही समय पर कारण न बताने से बात समाप्त नहीं होती है, बस कुछ समय के लिए टल जाती है।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">आजकल के अभिभावक</span><span style="font-size: 15px;"> बेटे के साथ साथ ही बेटी की शिक्षा के लिए सजग रहते हैं और दोनों को ही जीवन में उन्नति करने के लिए प्रेरित करते हैं और बच्चे हर क्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित भी करते हैं। यही प्रतिभाशाली बच्चे, अपने जैसे ही योग्य एवं सामाजिक रूप से समकक्ष जीवनसाथी के साथ जब जीवन के वास्तविक रूप और उसकी दैनन्दिन की चुनौतियों से परिचित होते हैं, तब स्वयं का परिश्रम अधिक दिखाई देता है और अपने हमसफ़र से उनकी अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं कि वो उनको समझे, जबकि अपने कार्यक्षेत्र में दूसरा भी लगभग उतना ही अथवा उससे अधिक परिश्रम भी करता है। यह अपेक्षा एवं अवहेलना, उन के जीवन में शनि की साढ़ेसाती बन कर क्रमशः पसरने लगता है और कभी चुप्पी तो कभी तीखे बोलों की चिटकन गूँजते हुए प्रस्तर प्रहार करती परिवार को बिखेर देती है।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">विवाद न हो और बात वहीं समाप्त हो जाये सोच कर, दूसरे पक्ष की चुप्पी भी इन बिखरती दीवारों को और भी बिखरा देती है। किसी भी गलत्त लगती बात का मुखर और शालीन विरोध मन को भी शान्त कर देता है और सही अर्थों में बात को समाप्त भी, अन्यथा एक ज्वालामुखी मन ही मन धधकता रह जाते है और उस का विस्फोट रिश्ते में कोई भी उम्मीद नहीं छोड़ता।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">रिश्तों के बिखरने के मूल में अहं भाव ही विस्फोटक होता है। वहम तो अहं का सिर्फ पोषण ही करता है।</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230731_125916_780.sdocx-->निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-10524807918431947512023-07-27T22:26:00.002+05:302023-07-27T22:26:08.576+05:30परिधान और उनका प्रभाव<p><span style="font-size: 15px;">परिधान में सिर्फ़ ओढ़े अथवा सिले हुए वस्त्र ही नहीं आते हैं, अपितु व्यक्ति के शरीर पर धारण की गई प्रत्येक वस्तु आती है, फिर चाहें वो हाथ में लिया हुआ पर्स हो अथवा सिर पर रखी हुई टोपी, पाँवों में पहने हुए जूते हों या इसी कलाई अथवा जेब में लगाई हुई घड़ी हो। संक्षेप में कहें तो पूरे व्यक्तित्व को परिभाषित करता है उसका परिधान।</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">परिधान को समय एवं परिस्थिति के अनुकूल होना चाहिए। औपचारिक एवं अनौपचारिक कार्यक्रमों के परिधान अलग होते हैं, जैसे विद्यार्थियों के दीक्षांत समारोह के गाउन और हैट उसी कार्यक्रम के मंच पर ही अच्छे लगेंगे, चुनावी रैली में नहीं। ऊँची हील्स के सैण्डल अथवा जूते शहरों की पार्टी या विभिन्न सम्मिलन में उचित हो सकते हैं परन्तु वही ग्रामीण परिवेश अथवा पहाड़ों पर असुविधाजनक होंगे और हँसी का पात्र भी बना सकते हैं।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">परिधान का चयन परिस्थिति एवं अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार ही करना चाहिए क्योंकि यह कत्तई आवश्यक नहीं है कि जो दूसरे पर अच्छा लग रहा है वह स्वयं पर भी अच्छा ही लगेगा और सुविधाजनक होगा। वस्त्र हों अथवा उस की एक्सेसरीज उनको कैरी करने का गरिमापूर्ण तरीका भी व्यक्तित्व को निखार देता है।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">व्यक्ति का परिधान, उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। देखने से ही आभास हो जाता है कि उस व्यक्ति का परिवेश क्या और कैसा है, साथ ही यह भी परिलक्षित होता है कि वह परिस्थितियों के प्रति कितना संवेदनशील है।</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230727_222521_301.sdocx--><div><span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span></div>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-32144593349624498012023-07-27T11:34:00.003+05:302023-07-27T11:34:21.138+05:30पलायन : कारण और निवारण<p><span style="font-size: 15px;">पौधे अपने प्राकृतिक परिवेश में ही ज्यादा पुष्पित एवं पल्लवित होते हैं। स्थान बदल कर अन्यत्र रोपित करने पर अतिरिक्त देखभाल और पोषण ही उनके जीवन को पुनः पुष्ट करता है, परन्तु कभी-कभी बोनसाई बन कर अपनी प्रकृति छोड़ने को विवश भी। इसी तरह हममें से अधिकतर अपने स्थान से ही जुड़े रहना चाहते हैं, वहाँ से हट कर अन्यत्र बसने की कल्पना भी हम को दारुण लगती है। सामान्यतया अपने स्थान पर उपलब्ध संसाधनों में ही हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करते हैं। परन्तु कभी-कभी आवश्यकताएं इतनी बढ़ जाती हैं कि उनको अपनी सामर्थ्यानुसार संसाधन की तलाश में अपना स्थान छोड़ना ही पड़ता है। एक बार जब अपना स्थान छूटता है तब वापसी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है क्योंकि धीरे-धीरे हमारी सामर्थ्य बढ़ती जाती है और साथ ही महत्वांक्षाएँ भी। अपने स्थान पर वापसी के लिए उनको कोविड जैसी महामारी ही विवश कर सकती है, अन्य कुछ नहीं!</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">पलायन जैसे रक्तबीज का निवारण / उन्मूलन करने के लिए अपने मूल स्थान पर ही अच्छा और सुविधाजनक जीवन जी सकने योग्य काम मिलना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिये। यदि बच्चों को अच्छी शिक्षा छोटे से छोटे स्थान पर ही मिल जाये तो बच्चों को अपने पास से दूर भेजना तो कोई माता पिता नहीं चाहेंगे। उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को महँगे विद्यालयों में भेजने के लिए, अभिभावकों द्वारा लिए गए ऋण को चुकाने के लिए महँगे पैकेज की तलाश में बच्चों को अपनी जड़ों को छोड़ना नहीं पड़ेगा।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">यदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अपने मूल स्थान पर ही होने लग जाये तो अपनी जड़ों को छोड़ कर जाना न तो किसी की चाहत होगी और न ही विवशता।</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230727_113327_396.sdocx-->निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-13404608572298386982023-07-25T10:37:00.001+05:302023-07-25T10:37:22.916+05:30अपने सपने बच्चों के कन्धे<p><br /></p>
<p dir="ltr">बच्चे के जन्म लेने से मिली खुशी के सपनीले झोंको से सम्हलते ही, मन स्वयं को ही झूला बना कर कितनी पेंगे भरने लगता है कि अपने हॄदयांश के लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उनके लिए आसमान के सितारों को भी तोड़ लाने का हौसला रखते हुए सोचने लगते हैं कि उनकी कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहने देंगे। बस इसी क्रम में अपनी कुछ अनावश्यक सी अपूर्ण इच्छाओं की याद आ ही जाती है और हम सोचने लगते हैं कि उन को भी बच्चों से ही पूरा करवाएंगे।</p>
<p dir="ltr">इस सारे सिलसिले में बच्चों के नन्हे कन्धों पर दो बोझ डाल देते हैं, जिसमें से एक की चर्चा बोल के कर देते हैं तो दूसरी दिल की तहों में छुपा कर। हर माता पिता की पहली इच्छा यही होती है कि अन्तिम यात्रा उन बच्चों के कन्धों पर ही हो और दूसरी होती है कि हम अपनी ज़िन्दगी में जो भी नहीं कर पाए, वो सब हमारे बच्चे कर गुजरें। बस सारी गड़बड़ यहीं से प्रारंभ हो जाती है और नन्हे कन्धे बड़े हो कर भी बेताल सरीखा बोझ तले दबे रह जाते हैं। </p>
<p dir="ltr">बच्चे के किसी कलात्मक अभिरुचि एवं ईश्वरीय देन से सम्पन्न होने पर भी माता पिता उनको डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि कोई उच्च पदस्थ अधिकारी बना हुआ ही देखना चाहते हैं चाहें इस प्रक्रिया में बच्चे घुटन अनुभव करें या फिर तरक्की न कर कर पाएं, पर उनको अपने अभिभावकों की चाहतों को पूरा करना ही पड़ता है। जीवनसाथी में जिन गुणों की चाहत उनको होती है अथवा हो सकती है, उससे सर्वथा विपरीत साथी के साथ जीवन बिताना पड़ता है क्योंकि वो उनके अभिभावकों की चाहत होती / होते हैं और वो स्वयं सिर्फ़ अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के साधन।</p>
<p dir="ltr">माता पिता को यह समझना चाहिये कि जितना मुश्किल अपूर्ण इच्छाओं के बोझ के साथ जीवन जीना कठिन है, उससे कहीं अधिक मुश्किल है कन्धों पर आभासी बोझ ले कर जीवन की चुनौतियों का सामना करना।</p>
<p dir="ltr">माता पिता को अपने अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन करते हुए भी बच्चों को अपने फैसले स्वयं उन बच्चों को ही करने देना चाहिए। वैसे भी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा मूलमंत्र यही है कि जियो और जीने दो।</p><p dir="ltr">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p dir="ltr">लखनऊ<br /><br /></p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-40355733506142453332023-07-24T19:25:00.003+05:302023-07-24T19:25:29.338+05:30सती प्रथा क्या सच में बन्द हो गयी है<p><span style="font-size: 15px;">सती प्रथा के पक्ष और प्रतिपक्ष में, बचपन से ही सुनती और पढ़ती आ रही हूँ। तब इस के विषय में बहुत अधिक, या कह लूँ कि कुछ भी समझ नहीं आता था। बस एक विषय की तरह पढ़ा और परीक्षा में लिख कर फुर्सत पा लेते थे। परन्तु जब समझ में आया कि यह कृत्य कितना अमानवीय है, तब यह सोच कर ही काँप उठती थी। एक जीवित और स्वस्थ स्त्री को सिर्फ़ इसलिए ही जला देना होगा कि उसके पति की मृत्यु हो गई है ... यह मृत्यु भी कभी बीमारी की वजह से तो कभी उम्र की वजह से भी होती थी। उस दौर के अधिक आयु के अन्तर वाले बेमेल विवाह में कभी-कभी पत्नी अबोध बालिका भी होती थी तो पति उम्र के चौथेपन में!</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">उस दौर में जब सती प्रथा के बन्द होने के बारे में जाना तो कहीं न कहीं एक सुकून मिला कि अब विधवा स्त्री को भी अपनी ज़िन्दगी जीने का अधिकार होगा परन्तु ... इस परन्तु ने फिर से प्रश्न उठाया कि क्या सिर्फ़ पति के साथ, उसकी चिता में उसकी विधवा पत्नी को जलाये न जाने से ही क्या उस स्त्री को जीवन जीने का अधिकार मिलने लगा? </span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">दुःख की बात है कि सती प्रथा नाम के लिए बन्द हो गयी है परन्तु अपना रूप बदल कर प्रत्येक पल विधवा स्त्री को जलाती रही है। यह बदला हुआ रूप कभी परम्पराओं के नाम पर बहुत ही सहज चीजों / बातों से वंचित करने लगा तो कभी आश्रय देने के नाम पर शारीरिक शोषण भी करवाता रहा। </span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">समय के साथ जब शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो परिस्थितियाँ थोड़ी सुधरी परन्तु जिसको मानसिक दिवालियापन कहने का मन करता है, ने उनके वैधव्य को उनके उन बुरे कर्मों का परिणाम बता कर दंशित किया जो उनके इस जन्म के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों का परिणाम बताया। </span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">आज की तकनीकी क्रान्ति के युग में भी, बेशक पति की चिता की लपटों में उसकी पत्नी को दैहिक रूप से बेशक नहीं जलाया जाता है, परन्तु प्रतिपल उसको दाहक दंशो के दावानल में जल कर के सती होने को विवश किया जाता है।</span><br />
<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230724_191922_361.sdocx--><div><span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span></div><div><span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span></div>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-13572242371599727552023-07-23T16:24:00.003+05:302023-07-23T16:24:19.169+05:30पीपल : गीतिका<p>छाया इसकी कम घनी, कोमलता है पास।</p><p>प्राणदायिनी वायु दे, इस में प्रभु का वास।।</p><p>*</p><p>साँस अटकती जब सखी, करे दर्द जब पेट।</p><p>छाल छाँव और अर्क सब, बन जाते हैं खास।।</p><p>*</p><p>विष प्रभाव को कम करे, रस का असर विशेष।</p><p>चलती शीतल जब हवा, आती सबको रास।।</p><p>*</p><p>रंग त्वचा का निखरता, झुर्री करता साफ़।</p><p>वायु प्रदूषण का सखे , पीपल करता ह्वास।।</p><p>*</p><p>पत्ते इसके कम विरल, आते विहग अनेक।</p><p>करना ऐसा यत्न है, बना रहे उच्छ्वास॥</p><p>*</p><p>ब्रम्हा विष्णु महेश प्रभु, करते इसमें वास।</p><p>सज्जा करें निवास की, समृद्ध हो आवास।।</p><p>*</p><p>पूजन अर्चन में सजे, घर का बंदनवार।</p><p>परमधाम जो जा चुके, उनका तरु ये ख़ास।।</p><p>*</p><p>बोधि वृक्ष कहते इसे, पूजन अलग विधान।</p><p>दूध धूप दीपक जले, मंत्र का हो अभ्यास।।</p><p>*</p><p>दिवस अमावस सोम हो, करते विधी विधान।</p><p>परिक्रमा होती फलित, भरता घर उल्लास।।</p><p><br /></p><p>निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-72485995974433938832023-07-07T22:30:00.000+05:302023-07-07T22:30:23.738+05:30गीतिका : कभी मुस्कराया करो ।।<p>हो सके ख़्वाब बन दिख ही' जाया करो ।</p><p>साथ तुम भी कभी मुस्कराया करो ।।</p><p><br /></p><p>गुनगुनाती रही रात भर बन गज़ल।</p><p>साथ तुम भी कभी गुनगुनाया करो।। </p><p><br /></p><p>मुस्कराती रही बेबसी रात भर ।</p><p>हो सके सच कभी भी बताया करो ।।</p><p><br /></p><p>साथ मेरे चलो शबनमी रात में ।</p><p>मैं बनूँ चाँदनी तुम सजाया करो ।।</p><p><br /></p><p>साथ बेरहम हो कर भुलाना नहीं ।</p><p>भाव जो मन बसे ना छुपाया करो ।।</p><p><br /></p><p>चल चलें साथ भी अब रुलाने लगा ।</p><p>दो कदम साथ 'निवी' निभाया करो ।।</p><p> </p><p>बेसबब चल दिये तुम इस जहान से ।</p><p>निभ सके तो 'निवी' तुम निभाया करो ।।</p><p> </p><p> ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-54402328852664670052023-07-06T07:44:00.005+05:302023-07-06T07:44:58.113+05:30चाँद <p>चाँद बहुत उदास दिख रहा था</p><p>उजले और स्याह में भटक रहा था !</p><p><br /></p><p>चन्द रेशे चुन लायी उम्मीदों के </p><p>पिरो दिया उनमें सुनहले ख्वाबों को !</p><p><br /></p><p>पलट कर देखना कभी </p><p>चाँद भी अब इंद्रधनुष में हँसता है !</p><p><br /></p><p>कुछ लम्हे चुभेंगे मन के पाँव में </p><p>भटकेगा मन अपने बसाए गाँव मे !</p><p><br /></p><p>रेशे सी किरच छलक उठी थी</p><p>चुभन हुई पलकों की छाँव में !</p><p><br /></p><p>चाँदनी ने सरगोशियों में कहा</p><p>चाँद भी अब इंद्रधनुष में हँसता है ! </p><p>#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी </p><p>#लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-89187136476560363912023-06-14T20:28:00.008+05:302023-06-14T20:28:51.483+05:30अथ नाम कथा<p>अथ नाम कथा</p><p>अपने नाम ,या कह लूँ कि व्यक्तिगत रूप से सिर्फ़ अपने लिये कभी सोचा ही नहीं।जीवन जब जिस राह ले गया सहज भाव से बहती चली गयी। </p><p>अब जीवन के इस संध्याकाल में जब मिसिज़ श्रीवास्तव के स्थान पर स्वयं के लिए #निवी या #निवेदिता का सम्बोधन पाती हूँ तो सच में मन को एक अलग सा ही सुकून मिलता है और इन्हीं में से किसी लम्हे ने दस्तक दी थी कि यह नाम मुझे मिला कैसे!</p><p><br /></p><p>चार भाइयों के बाद मेरा जन्म हुआ था।सबकी बेहद लाडली थी और जितने सदस्य उतने नाम पड़ते चले गये,परन्तु उन सब के दिये गए नामों पर भारी पड़ गया ,घर में काम करनेवाली सहायिका ,हम सब की कक्को का दिया नाम। उन्होंने बड़े अधिकार से सबको हड़का लिया था,"हमार बहिनी क ई का नाम रखत हईं आप सब। हमार परी अइसन बिटियारानी के सब लोग बेबी कह।" इस प्रकार पहला नाम 'बेबी' रखा गया 😄 </p><p><br /></p><p>इस बेबी नाम के साथ हम दुनिया के मैदान में तो आ नहीं सकते थे, तो फिर से एक नाम की तलाश शुरू हुई।सभी अपनी पसन्द के नामों के साथ फिर से आमने-सामने थे। </p><p><br /></p><p>अबकी बार सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि सभी लोग चिट पर अपनी पसन्द के नाम लिख कर मेरे सामने रख दें और मैं जो भी चिट उठा लूंगी वही नाम रखा जायेगा।</p><p><br /></p><p>दीन-दुनिया से बेखबर ,सात-आठ महीने की बच्ची के सामने बहुत सारी चिट आ गयी, सभी अपनी तरफ से होशियारी दिखा रहे थे कि उनकी चिट ऊपर रहे और उठा ली जाये ... पर इस बच्ची का क्या करते उसने करवट बदली और ढ़ेरी के नीचे से 'निवेदिता' नाम की चिट निकाल ली। पूरे होश ओ हवास में, इस बिन्दु पर मैं ज़िम्मेदारी लेती हूँ कि अपना निवेदिता नाम मैंने खुद रखा 😊 </p><p><br /></p><p>स्कूल/ कॉलेज में भी निवी, दिवी,नीतू,तिन्नी जैसे कई नामों से पुकारा सबने।जन्म के परिवेश ने सरनेम 'वर्मा' दिया जिसको विवाह ने बदल कर 'श्रीवास्तव' कर दिया।</p><p><br /></p><p>नाम बदलने का सिलसिला यहीं नहीं थमा।लेखन तो बहुत पहले से ही करती थी परन्तु जब मंचो की तरफ़ रुख किया, तब उपनाम रखने की जरूरत अनुभव हुई। मेरी मेंटोर, जिन्होंने मुझको मंच का रास्ता दिखाया, उनका भी नाम 'निवेदिता श्रीवास्तव' ही था। एक साथ रहने पर हम तो मजे लेते पर एक से नाम सबको कन्फ्यूज भी खूब करते थे। इस उलझन से बचने के लिये मेरी वरिष्ठ ने अपने नाम के साथ 'श्री' जोड़ा और मैंने 'निवी' ।</p><p><br /></p><p>जब थोड़ी समझ आयी,तब इस नाम की महान विभूतियों के बारे में भी जाना और एक अनकही सी ज़िम्मेदारी आ गयी कि बेशक मैं उनके जैसी कुछ विशिष्ट न बन पाऊँ पर जितना सम्भव होगा उतना सभो में सकारात्मक भाव भरूँगी और कभी भी किसी को धोखा नहीं दूँगी।</p><p> निवेदिता श्रीवास्तव निवी </p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-80077681868091606032023-06-03T11:55:00.004+05:302023-06-03T11:55:37.395+05:30विदाई : एक ख़याल भटका सा<p> <span style="font-size: 15px;">बिदाई शब्द से ही दो लम्हे अनायास ही दस्तक देने लगते हैं ... एक तो बेटी की विदाई और दूसरी इस दुनिया से, परन्तु जब चित्त सुस्थिर हो कर मनन करता है तब तो न जाने कितने पल याद आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी व्यक्ति, सम्बंध अथवा स्थान से स्वयं को अलग होते पाते हैं। कभी माँ के गर्भ में आने से पहले पूर्व जन्म के सम्बन्धियों से विदाई तो कभी हमसे भी अधिक हमको जाननेवाली माँ के गर्भ से, तो कभी घर से निकल कर माता पिता की उँगली थामे स्कूल को जाते हुए हम होते हैं वहीं कभी ज़िन्दगी की आँखों में आँखें डालने की तैयारी में माता पिता के थामे रहने वाले हाथों से पकड़ की विदाई ... घर, शहर, </span><span style="font-size: 15px;">पितृ सदन से </span><span style="font-size: 15px;">एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय के लिए अथवा जीवन से ऐसे न जाने कितने पल होते हैं विदाई के, जो हम को एक से विलग कर के दूसरे स्थान पर ले जाते हैं।</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">विदा के पल बेहद पीड़ा भरे भी होते हैं, तब भी कभी-कभी मन बावरा हो कर इसी की चाहत करने लगता है। माया मोह के बन्धन में जकड़ा हुआ मन जैसे ही दुनियादारी की तन्द्रा से जाग्रत होता है, इन नश्वर बन्धनों के सत्य के निकट पहुँचने लगता है, वह इन सब से विदा होने की चाहत में जल बिन मीन सा छटपटा उठता है और चाहता है इन सब से विदाई!</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">विदाई के बारे में मेरी एक बहुत ही छोटी सी चाहत है कि इस दुनिया से विदा होते समय ही, सभी के दिल दिमाग से भी मेरी यादों की विदाई हो जाये ... यहाँ के नाते, रिश्ते, कर्म सब से मुक्त हो जाऊँ। आत्मा को मोक्ष मिलेगा या नहीं, यह नहीं जानती बस इतनी सी चाहत है कि यहाँ का हिसाब किताब यहीं निबट जाए और यदि नया जन्म होता है तो कोरी स्लेट सा हो ... किसी के, किसी कर्म की उधारी चुकाने / वसूलने के लिए नहीं।</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">भोलेनाथ! मेरी इस चाहत को पूरा करने की जिम्मेदारी तुम्हारी🥰</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span><br /><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230603_115418_726.sdocx-->निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-22496069447319093932023-05-20T19:26:00.002+05:302023-05-20T19:26:21.262+05:30सुनो न ...<p><br /></p><p>जीवन हर पल बहता जाता </p><p>गुनता रहता खुद को </p><p>अलबेली नदी सरीखा</p><p>पर सुनो न ...</p><p>तटबंधों की पुकार भूल जाती हूँ!</p><p><br /></p><p>नदी सी बनती जा रही हूँ</p><p>बाढ़ भी ले कर आती हूँ </p><p>सूखती भी चली जाती हूँ</p><p>पर सुनो न ...</p><p>सागर तक जाना भूल जाती हूँ!</p><p><br /></p><p>यादों का भँवर भी आता है</p><p>सपनों का बवंडर भी सताता है</p><p>पर सुनो न ...</p><p>अस्तित्व की गुल्लक भूल जाती हूँ!</p><p><br /></p><p>कुछ किनारे तक आ कर </p><p>तो कुछ मंझधार डूब जाते हैं</p><p>सबको पार उतारते उतारते</p><p>पर सुनो न ...</p><p>खुद को तारना भूल जाती हूँ!</p><p>निवेदिता श्रीवास्तव निवी </p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-10933534161616970722023-03-30T07:30:00.002+05:302023-03-30T07:30:48.849+05:30लघुकथा : छलनी<p> </p><br />
<span style="font-size: 15px;">छलनी</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">अधर अपनी बहकती साँसों को सम्हालता मुस्कुरा पड़ा,"अरे मित्र तुम तो अपने सही स्थान पर ही हो और मैं इतनी बातें सुन-सुन कर कब से परेशान हो रहा हूँ कि तुम्हारे साथ क्या अजूबा हो गया!"</span><br />
<span style="font-size: 15px;"> </span><br />
<span style="font-size: 15px;">कर्ण भी स्मित बिखेर उठा,"ऐसा भी क्या सुन लिया मित्र ... अच्छा ... अच्छा पहले स्वयं को स्थिर कर लो, तब इत्मीनान से बताना।"</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">अधर थिरक उठे,"मित्र ! मेरी निद्रा लोगों की फुसफुसाहट से टूटी कि दीवालों के कान होते हैं और मैं डर गया कि यदि यह सच हुआ तो तुमको कितनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा ... अभी तो कभी केशों के पीछे जा कर, तो कभी हथेलियों की नन्ही सी गुफ़ा में छुप कर तुम अनजानी ठोकरों और तीखी आवाज़ों से बच जाते हो जबकि दीवाल पर तो कोई सुरक्षित ओट भी नहीं मिलेगी।"</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">कर्ण ठहाके लगाने लगा,"मेरे लिए परेशान मत होना मित्र ... वो सब उस प्रजाति के कर्ण की बातें कर रहे थे जो अपने साथ छलनी लिये रहते हैं और उनका ध्यान दूसरों की त्रुटियों एवं दूषण पर ही अधिक रहता है।"</span><br />
<span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230330_072940_673.sdocx-->निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-74029764552407025262023-03-16T19:36:00.004+05:302023-03-16T19:36:46.149+05:30चाहत एक पल की ...<p> <span style="font-size: 15px;">जब लक्ष्मण बेहोश थे और सूर्योदय के पहले संजीवनी चाहिए थी, उस पल की एक चाहत ...</span></p><br /><span style="font-size: 15px;">हे सूर्य देव! हम तुम्हारे वंशज </span><br />
<span style="font-size: 15px;">आस लिए मन मे विश्वास लिए</span><br />
<span style="font-size: 15px;">तुमसे न उगने की आस करें</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">चमक तुम्हारी खनक तुम्हारी</span><br />
<span style="font-size: 15px;">मन को आज बड़ा डराएगी</span><br />
<span style="font-size: 15px;">कालिमा रात्रि की लुभायेगी</span><br />
<span style="font-size: 15px;">एक दिन तुम देर से आओ </span><br />
<span style="font-size: 15px;">निशा को कुछ पल और दो</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">तुम जो आ जाओगे गगन पर</span><br />
<span style="font-size: 15px;">सूर्य डूब जाएगा अयोध्या के</span><br />
<span style="font-size: 15px;">अनुपम सूर्यवंशी के वंश का</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">आ जाने दो पवनपुत्र को</span><br />
<span style="font-size: 15px;">बूटी संजीवनी की आस लिये</span><br />
<span style="font-size: 15px;">राह तके हम विश्वास लिए</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">अरिदल के मर्दन के लिए</span><br />
<span style="font-size: 15px;">सतयुग के स्थापन के लिए</span><br />
<span style="font-size: 15px;">जनकसुता को सम्मान दिलाने</span><br />
<span style="font-size: 15px;">सौमित्र को नवजीवन दो</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">उर्मिला की आस न रूठे</span><br />
<span style="font-size: 15px;">राम की प्रतिज्ञा न टूटे</span><br />
<span style="font-size: 15px;">तटबंध विश्वास का बचाओ</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">अहा वो दिखे हनुमत प्यारे</span><br />
<span style="font-size: 15px;">तर्जनी संजीवनी साध उठाये</span><br />
<span style="font-size: 15px;">अब चमको तुम पूर्ण तेज से</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">पिनाक की टंकार सुनाओ</span><br />
<span style="font-size: 15px;">सूर्यध्वज जग में लहराओ</span><br />
<span style="font-size: 15px;">आओ रवि दिग्दिगंत चमकाओ!</span>
<br /><br /><span style="font-size: 15px;">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</span><br />
<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_230316_193529_904.sdocx--><div><span style="font-size: 15px;">लखनऊ</span></div>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-31139678563390187302023-03-12T18:26:00.004+05:302023-03-12T18:26:42.759+05:30होली गीत ... भांग लयी थी घोंट <p>होली गीत</p>
<p dir="ltr">भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में<br />
होली में हाँ सखियों टोली में!</p>
<p dir="ltr">मेवा मिठाई थाल सजाए<br />
पान औ मिश्री रच रच बनाये<br />
भोले को चढ़ाई भांग अब की होली में <br />
होली में हाँ सखियों टोली में!<br />
भांग लयी ....</p>
<p dir="ltr">गुलाल अबीर में इत्र मिलाया<br />
सांवरिया से दिल है लगाया<br />
रंग भर लीनी पिचकारी अब की होली में<br />
होली में हाँ सखियों टोली में!<br />
भांग लयी ....</p>
<p dir="ltr">रेशमी लहंगा मन न भाया<br />
सतरंगी चूनर परे सरकाया<br />
मृगछाल बनाई पोशाक अब की होली में<br />
होली में हाँ सखियों टोली में!<br />
भांग लयी ....</p>
<p dir="ltr">भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में<br />
होली में हाँ सखियों टोली में!</p><p dir="ltr">निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p dir="ltr">लखनऊ</p>
<p dir="ltr"><br /></p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-55377737067598027132023-03-06T07:42:00.001+05:302023-03-06T07:42:04.178+05:30पिया आए ... (होली लोकगीत)<p><br /></p><p>वन वन खोजूँ, मैं रसिया बाग रे</p><p>पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे </p><p>पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे!</p><p><br /></p><p>अलबेली लगती तेरी नगरिया </p><p>करमन की तो उलझी डगरिया</p><p>आशा की थामे इक गठरी </p><p>भटक रही है एक गुजरिया</p><p>रच रच गाये मन के राग रे!</p><p>आये पिया ...</p><p><br /></p><p>बरसे बदरिया जिया डर जाये</p><p>पवन झकोरा अँचरा उड़ाये</p><p>रात अँधेरी राह है धुँधली</p><p>सखी दियना जगाया बड़े अनुराग रे</p><p>मेरी किस्मत में लग न जाये दाग रे!</p><p>पिया आए ...</p><p><br /></p><p>महावर की जो बेल बनाई</p><p>हाथन में मेहंदी है रचाई</p><p>सिमटी सकुचि जाए नथनिया</p><p>ईंगुर से भर लिया माँग रे</p><p>जागा जागा रे हमरा सुहाग रे!</p><p>पिया आए ...</p><p>निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'</p><p>लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8823361892061198472.post-14894945524243155012023-02-24T10:56:00.007+05:302023-02-24T10:56:52.569+05:30हाइकु<p>मीठी है छूरी</p><p>कहते मठाधीश</p><p>बनते ईश।</p><p><br /></p><p>विश्वास पाश</p><p>छलिया है प्रकृति</p><p>करती नाश।</p><p><br /></p><p>सदा हँसता</p><p>कसौटी पे कसता</p><p>दम घुटता।</p><p><br /></p><p>सुरसा आस</p><p>हो रहा सर्वनाश</p><p>अबूझ प्यास।</p><p><br /></p><p>प्रश्नों के घेरे</p><p>लगाते हैं पहरे</p><p>टूटती आस।</p><p><br /></p><p>स्वार्थी का स्वांग</p><p>दावानल की आग</p><p>छाता विराग।</p><p><br /></p><p>#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी</p><p>#लखनऊ</p>निवेदिता श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.com0