शनिवार, 26 जनवरी 2019

तिरंगे का पाँचवां रंग

तिरंगे का पाँचवां रंग
आँखों से बहते हुए आँसुओं ने जैसे उसके दिल में बसेरा कर लिया हो । अभी विज्ञापन देखा था जिसमें बच्चे ने शहीद हुए फौजी के रक्त को झंडे के पाँचवे रंग के रूप में गिनाया था ।
सच जब तक फौजी साँसें भरता है पराक्रम करता है तिरंगे की आन को बनाये रखता है ... पर जब उसकी साँसें थमती हैं तो जैसे उस झंडे में ही समाहित हो एक अनोखा सा रंग बन उभरता है । इस रंग के उभरने से राष्ट्र की चमक तो नहीं फीकी पड़ती पर उस फौजी के परिवार का क्या कहें ... कुछ समय बाद सब उसको भूल जाते हैं । कभी कुछ अनुकम्पा राशि या किसी दुकान की एजेंसी दे देते हैं ।उसके बाद .... उसके बाद कुछ खास नहीं बस 15 अगस्त या 26 जनवरी पर यादकर लेते हैं और कुछ फूल या माला अर्पित कर कर्तव्यमुक्त हो जाते हैं ।
पर क्या इतना ही पर्याप्त है एक फौजी के लिए कि वो निश्चिन्तमना हो अपने परिवार अथवा आश्रितों को भूल ,अपनी साँसें अपना जीवन वार दे राष्ट्र के नाम ....
क्या ये हमसब का कर्तव्य नहीं है कि उन के नाम सिर्फ सड़क ,पार्क अथवा मूर्ति ही न लगा कर कुछ सार्थक भी करें । जिन राजनेताओं की कोई कोई विशेष योग्यता - शौक्षणिक अथवा शारीरिक / सामाजिक - नहीं होती उनके लिये भी अच्छाखासा वेतनमान और अन्य सुविधाएं दी जाती हैं ।हम आम जन भी वेतन भत्ते के साथ ही कुछ न कुछ सुविधाओं का उपभोग करते हैं । जिन वीर फौजियों के लिये के बल पर हम स्वतंत्र साँसें भरते हैं ,उनके लिए कोई विशिष्ट प्रावधान क्यों नहीं करते ।
मुझे लगता है कि हमको उन जांबाजों का मनोबल बनने के लिये उनके परिवार के लिये नींव सदृश होना चाहिए ।उनके लिये आर्थिक ,सामाजिक हर स्तर पर अतिविशिष्ट दर्जा देना चाहिए ।
तब ही हम तिरंगे के पाँचवें रंग का सम्मान करते हुए उसको गर्व से फहराने योग्य हो पाएंगे । अगर ऐसा नहीं कर सकते हैं तो आइये एक रस्म की तरह बोल लेते हैं ..... जय हिंद !!!
                                                           .... निवेदिता

बुधवार, 23 जनवरी 2019

जो तुम चाहो ....

देनेवाला ऊपर बैठा
निहारता वारता
बहुत कुछ
देता ही रहता
तब भी बहुत कुछ
कसकता अनपाया सा
रह जाता
आज सोचती हूँ
माँग ही लूँ
शायद कहीं
लिखनेवाले ने
लिखा हो
जो तुम चाहो ... निवेदिता

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

लघुकथा : रंगो की त्रिवेणी

#लघुकथा

रंगों की त्रिवेणी

सुबह से ही बरसती फुहार में चहलकदमी कर रही थी कि अनायास ही लगा सामने से रंगों की क्यारी सी उमग आयी है । ये रंग भी न अपने मे ही मगन हवा के झोंको से लहराते कभी इस सूत पर तो कभी उस सूत पर बरस उसको अपने ही रंग से सराबोर कर देते । सूत भी कहाँ रुकनेवाले थे कभी किसी के साथ तो कभी अकेले ही विभिन्न रूप भर लेते थे ।

अचानक इस खिलखिलाते इन्द्रधनुष पर जैसे अमावस की कालिमा घेरने लगी । चांदनी से धवल रंग ने इसका कारण जानना चाहा तो उन रंगों की त्रिवेणी ने भारी सी साँस भरी ... "इन रंगों से सज कर मैं तिरंगा बन आसमान में कितनी शान से लहराता हूँ । सबसे श्रद्धासुमन और सैल्यूट मिलने पर झूम उठता हूँ ... पर जानते हो जिनके शौर्य से मैं इतनी ऊँचाई पर लहराता हूँ ,उन वीरों के निस्पंद लहू से नहाये शरीर पर जब मुझको चढ़ाया जाता है ,बस उस एक लम्हे को ही याद कर मैं धूमिल हो रहा हूँ । कभी गलत राजनीतिक नीतियाँ तो कभी तथाकथित महिमामण्डित वैश्विक परिदृश्य इन जोशीलों को निस्पंद कर देता है .... और पलक झपकते ही मैं आन बान शान का प्रतीक एक कफ़न बन उन पर बिछ जाता हूँ और माँ की दम तोड़ती सिसकी सा भारी हो जाता हूँ ।"
                        -- निवेदिता

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

लघुकथा :पतंग और डोर

लघुकथा

पतंग और डोर

इधर से उधर ,मानों पूरे फर्श को रौंदते से अनिकेत बड़बड़ाये ही जा रहे हैं ," पता नहीं क्या समझती हो खुद को । हो क्या तुम कुछ भी तो नहीं है तुममें । हुंह एक हाउसवाइफ हो दिन भर आराम से पसरी रहती हो । अरे जब कोई मेरे बारे में कुछ उल्टा पुल्टा बोलता है तब अलग खड़ी रहती हो चुप लगाकर ,जैसे तुम मेरी कुछ हो ही नहीं । "

अन्विता ने बड़ी ही सहजता से नजरें मिलाते हुए कहा ,"ये जो तुम कह रहे हो न कि मैं तुम्हारी कोई नहीं ,तो इसको ही सच मान लो तुम ... शायद तब तुम चैन से रह पाओगे ,पर जानते हो ये जिसको तुम कोई नहीं कहते रहते हो न वो पतंग की उस डोर की तरह है जो पतंग को उसके कर्तव्य पथ से भटकने नहीं देती । दूर आसमान की ऊँचाइयों पर रंगबिरंगी पतंग ही दिखती है ,डोर तो तब दिखाई देती है जब पतंग कट कर हवा के थपेड़ों से लड़खड़ा कर नीचे आने लगती है । उस वक्त न तो चरखी दिखती है न ही उस पतंग को उड़ानेवाला व्यक्ति कहीं आसपास होता है । "

जैसे एक साँस भरती सी वो फिर बोल उठी ," हाँ मै अस्तित्वहीन सी लगती हूँ ,पर जानते हो पतंग आसमान में ऊँचाइयों पर हो या कट कर नीचे पड़ी हो ,पानी की एक बूँद भी उसको गला कर नष्ट कर देती है ,पर डोर तो मिट्टी में दबने के बाद भी निकल कर अपना आकार ले ही लेती है । हाँ उसको मनोबल तोड़नेवाली बातों के द्वारा काटा तो जा सकता है ,पर अब डोर ने अपनेआपको काँच लगा मांझा बनाना सीख लिया है ।"
                     .... निवेदिता

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

लघुकथा : समस्या समाधान

लघुकथा : समस्या समाधान

छुटकू को गोद में दुबकायी कब से दुलरा रही थी ,पर पता नहीं किस बात से डरा अबोध मन सहज नहीं हो पा रहा था । अंत मे ये सोचकर कि कभी कभी अनदेखा करना भी समाधान ढूंढ लाता है ,मैं अपने काम समेटने लगी ... पर ये देख कि उसके हाथों से मेरा पल्लू छूट ही नहीं रहा था ,मैं काम करते करते उसको कहानियाँ सुनाने लगी ।

अचानक से वो चौंक कर बोला ,"माँ मुश्किलें बिल्ली ऐसे रास्ता रोके खड़ीं हो तो कैसे भगा सकते 🤔"

समस्या का कारण अब मैं समझ गयी थी 😊

मैंने उसको दुबारा से गोद में समेट लिया ,"बेटा हर समस्या का समाधान उस समस्या में ही छुपा रहता है ,हमको जरूरत सिर्फ उसको समझने और समाधान मिलने के अवसर पर ध्यान देने की है । अब जैसे बिजली चली जाने पर अचानक से अंधेरा हो जाता है न तब हमारे पास सिर्फ दो रास्ते रहते हैं ... पहला चुप बैठ कर डरते और गुस्सा कर बड़बड़ाते समय नष्ट कर देने का ,दूसरा थोड़ा सा समय खुद को देकर जब आँखें अंधेरे की थोड़ी अभ्यस्त हो जायें तब मोमबत्ती जला कर अंधेरा दूर करने का ।"

उससे बातें करते मैं छत की तरफ आ गयी थी ,"देखो जरा सा अपने को संतुलित कर लिया जाये न तो रास्ता रोकने वाली इस बिल्ली की तरह समस्याएं भी प्रतिरोध से थक जाती हैं फिर रास्ता छोड़ चली जाती हैं या फिर ऊब कर सोने लगती हैं और हम उस बगल के रास्ते से निकल सकते हैं ।"
              ..... निवेदिता