मंगलवार, 22 जनवरी 2019

लघुकथा : रंगो की त्रिवेणी

#लघुकथा

रंगों की त्रिवेणी

सुबह से ही बरसती फुहार में चहलकदमी कर रही थी कि अनायास ही लगा सामने से रंगों की क्यारी सी उमग आयी है । ये रंग भी न अपने मे ही मगन हवा के झोंको से लहराते कभी इस सूत पर तो कभी उस सूत पर बरस उसको अपने ही रंग से सराबोर कर देते । सूत भी कहाँ रुकनेवाले थे कभी किसी के साथ तो कभी अकेले ही विभिन्न रूप भर लेते थे ।

अचानक इस खिलखिलाते इन्द्रधनुष पर जैसे अमावस की कालिमा घेरने लगी । चांदनी से धवल रंग ने इसका कारण जानना चाहा तो उन रंगों की त्रिवेणी ने भारी सी साँस भरी ... "इन रंगों से सज कर मैं तिरंगा बन आसमान में कितनी शान से लहराता हूँ । सबसे श्रद्धासुमन और सैल्यूट मिलने पर झूम उठता हूँ ... पर जानते हो जिनके शौर्य से मैं इतनी ऊँचाई पर लहराता हूँ ,उन वीरों के निस्पंद लहू से नहाये शरीर पर जब मुझको चढ़ाया जाता है ,बस उस एक लम्हे को ही याद कर मैं धूमिल हो रहा हूँ । कभी गलत राजनीतिक नीतियाँ तो कभी तथाकथित महिमामण्डित वैश्विक परिदृश्य इन जोशीलों को निस्पंद कर देता है .... और पलक झपकते ही मैं आन बान शान का प्रतीक एक कफ़न बन उन पर बिछ जाता हूँ और माँ की दम तोड़ती सिसकी सा भारी हो जाता हूँ ।"
                        -- निवेदिता

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