गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

मैंने कहा न बस यूँ ही ....


धुंध 
आजकल कुछ ज्यादा ही ,
राह रोक रही है निगाहों की 

अकसर 
बहुत सी चीजें होती हैं पर 
अनजानी अनदेखी ही रह जाती हैं 

मैं हूँ वहीं 
पर तुम देख नहीं पा रहे हो 
शायद चाहत ही नहीं देख पाने की 

धूप
जब प्रखर होती कसूरवार बन जाती 
आँखे पलको की अंकवार से बाहर आती नहीं 

न रहूँगी मैं 
तुम्हारी आँखों की चमक बढ़ जायेगी 
अँधेरे की रौशनी कुछ अधिक ही तीखी होती है ....... निवेदिता 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

मेरे जीवन की अनबोली सी वजह ..........



आज 
बहुत सोचा 
और 
निर्णय लिया 
तुम मुझको 
भूल गये 
चलो मैं भी 
भूल जाती हूँ 
तुमको ..... 
तभी कहीं 
इक जुगनू सा 
चमक गया ....
गर हम
एक - दूसरे को 
यूँ ही 
भूलते रहे  
क्या कभी 
कुछ भी 
मिलेगा 
कभी कहीं 
याद भी करने को 
या कहूँ 
क्यों भूलूँ 
क्योंकि .......
अरे ! तुम 
हाँ , तुम
तुम ही तो हो 
मेरे जीवन की 
अनबोली 
सी वजह ........... निवेदिता 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

बरसी एक सपने की .......



कल ,सोलह दिसंबर की , तारीख फिर से कुछ खरोंचे छोड़ जायेगी उस सपने के अंत होने के एक वर्ष पूर्ण होने की .... पिछले वर्ष कल के दिन ही एक मामूली सी लड़की जीवन की विकृत त्रासदी का सामना करते - करते हम सब की खुली आँखों को झंझोड़ कर खोल गयी ... मजबूर कर दिया उसने आत्ममंथन के लिए .... पता नहीं क्यों ,पर कहीं न कहीं मुझे ऐसा लगता है कि उस समय के तमाम आंदोलन ,विरोध प्रदर्शन ,और मातम सब व्यर्थ ही गये .... हाँ ! अंतर बस इतना आया है कि तन - मन से कुचला गया स्त्री  वर्ग कुछ हद तक विरोध में आवाज़ उठाने लगा और उन उठती हुई आवाज़ों को अब कुछ और आवाज़ों का साथ भी मिल जाने लगा है ... पर उस मूल समस्या का क्या हुआ ... कुछ भी नहीं ,वो तो रक्तबीज की तरह से जस की तस बनी हुई है ....

आज हम जिससे भी बात करें वही कहता हुआ मिल जाएगा कि उस आंदोलन का असर ही है कि आसाराम ,उसका बेटा नारायण स्वामी ,जस्टिस गांगुली जैसे लोग क़ानून के शिकंजे में आये ,पर अगर हम खुद की आत्मा के प्रति अगर ईमानदार हो कर जवाब दें तो क्या ये कुछ नया हुआ है ... पहले भी ऐसे तथाकथित संतों के झांसे में लोग आये भी हैं और उनका खुलासा भी हुआ और विभिन्न स्तर के अधिकारियों पर भी शिकंजा कसा गया है ..... तब उन तमाम आंदोलनों का क्या असर हुआ .... या फिर बातें हैं बातों का क्या .... करते रहो हर तरह की बातें अनर्गल प्रलाप की तरह .....

इतनी ,तथाकथित , जागरूकता और आत्ममंथन के बाद भी ऐसा समाज - ऐसे हालात क्यों नहीं बन पाये जब  नि:शंक हो कर महिलाएं सांस भी ले पाएं ... स्वयं को स्वतंत्र महसूस कर पाएं ... अब भी उनके वस्त्रों पर , उनके आचरण पर , उनकी बात करने की शैली को उनके ऊपर होने वाले आक्षेप या शोषण का कारण कहा जाता है .... इतनी समझ तो महिलाओं में भी है कि वो स्थान और परिस्थियों के अनुसार ही वस्त्रों का चुनाव करती हैं ..... अधिकतर स्थानों पर वो मध्धयम मार्ग का ही अनुसरण करती हैं ... न तो वो हर जगह घूँघट में घूमती हैं और न हीं अंगप्रदर्शक  वस्त्रों में  .... पूजा के स्थान अथवा ग्रामीण परिवेश में जाने पर पल्ला माथे पर रखना भी जानती हैं और सैर - सपाटे के समय पल्ले को कमर पर रखना भी जानती हैं ..... वो जींस पहने या सूट वो जानती हैं कि कहाँ क्या पहनना और कैसे व्यवहार करना उनको सहज रखेगा ... अरे भई अगर पुरुषों के वस्त्र पहनना उनकी सुविधा के अनुसार होता है तो ये दोतरफा व्यवहार क्योंकि हर बात के लिए स्त्री ही ज़िम्मेदार ठहरायीं जाए .....

नारीमुक्ति आंदोलनों के पुरोधा ,आज से ही "निर्भया" या "अभया" के नाम से जलाने के लिए ,मोमबत्तियाँ सहेज रहे होंगे पर उनसे एक ही निवेदन है कि उन मोमबत्तियों को प्रज्ज्वलित करने से पहले एक बार अवश्य सोचें कि क्या मोमबत्ती जलाने से ही उनकी प्रतिबद्धता सम्पन्न हो जायेगी ..... ये प्रकाश देना तभी सार्थक होगा जब हम भी अर्थात स्त्रीवर्ग खुली सोच में जीवन के पल जी पाएं ...... दूसरे शब्दों में कहूँ तो ऐसे हालात ही न आयें कि स्त्रियाँ दूसरे लोक की जीव बनी रहें जिनको सम्हालने और सहेजने की जरूरत हो ..... और न ही उनको चिड़ियाघर जैसे घर के किसी पिंजड़े में बंद कर के रखा जाए जिनसे मिलने के लिए टिकट लेने की नौबत आये ....

"निर्भया" का नाम तभी लें और उसकी बरसी भी तभी मनाएं जब कहीं भी कोई दूसरी निर्भया अपने सपने को पूरा करने के पहले ही ,आँखें मूँदने को मजबूर न कर दी जाए और मोमबत्तियां कुछ रोशनी फैला सकें तभी जलाई जाएँ अन्यथा वो भी गल कर व्यर्थ  होंगी ............ निवेदिता .

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

एक पोटली खुशियों की ......

 



न जाने किस पल 

विधाता ने देखा 

मुझको 

और संजो लिए 

कुछ रेशे 

रंगों और उमंगों के 

थमा दी मेरी 

साँसों के हाथों में  

एक पोटली सी 

खुशियों की 

पता नहीं 

उसमें थे

छेद ही छेद  

या ताना - बाना ही

ऊपर वाले ने  

बना कर भेजा 

तंद्रिल .......

मुस्कानों के जुगनू 

रास्ता पा एक 

नयी ही मंज़िल 

की तलाश में 

चमकते इठलाते 

चल दिये .....

और मैं ....

बस उन चमक बिखेरती 

धुँधले चमकते सुरीले 

पुच्छल तारों के पीछे 

बेसुध और बेबस सी 

यूँ ही भटक रही हूँ 

उजियारे से अंधेरों के बीच ....... निवेदिता  

( दोस्तों ये कोई व्यथा नहीं है ,ये तो जीवन की रीत है ........ )

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

बस ऐसी ही हूँ मैं .....


हाँ ! 
इस सच को 
मानती हूँ 
और
जानती भी हूँ 
कि 
सब को
सब कुछ 
न कभी मिला है 
और
न ही 
कभी मिलेगा 
तब भी 
जो भी 
जितना भी 
मेरा है 
उसको तो
कभी कहीं 
जाने भी तो 
नहीं दे सकती 
बस ऐसी ही हूँ मैं ..... निवेदिता 

शनिवार, 23 नवंबर 2013

इखरे - बिखरे - निखरे आखर ( ४ )


    बड़ी अजीब होती हैं ये आती - जाते साँसे .....… जब आती हैं तब हँसा जातीं हैं और जब जाती हैं या कहूँ थमती हैं तब बहुत कुछ बिखेर जाती  हैं .....… जब एक नये जीवन की शुरुआत होती है तब माता - पिता अपनी एक-एक साँसों की एक सीढ़ी सी बना नये आने वाले सदस्य की राह निहारते हैं ....… न जाने कितने मासूम से सपनें और कितनी चाहतें उन पलकों तले आस भरती हैं .....… एक - एक लम्हा एक - एक कदम वो नन्ही उँगलियों को थामे अपेक्षाकृत दृढ़ हाथ कभी लम्बा तो कभी छोटा सफर तय करते हैं ....

    अचानक ही जैसे पूरी दुनिया ही बदल जाती है ..... कमजोर दिखती नन्ही उंगलियाँ दृढ़ होती जाती हैं और दृढ़ हाथों में क्रमश: शिथिलता पसरने लगती है .....… उम्र का वो पड़ाव वृद्ध होते माता - पिता के लिए बहुत कष्टप्रद होता है ...… एक अजीब सा खालीपन आ जाता है ....… लगता है कि करने को कुछ बचा ही नहीं .....… ये मन:स्थिति मन के साथ ही उनके शरीर को भी तोड़ देती है .....

    उम्र के इस पड़ाव पर उनको अपने हर रिश्ते , चाहे वो निकट के हों या दूर के , की चाह रहती है और कमी भी खलती है ..... अगर ईश्वर बहुत कृपालु होता है ,  तब उस समय उन का साथ देने को उनके बच्चे अपनी सुरक्षा का कवच बनाये उनके साथ रहते हैं ....

       समय एक बार फिर करवट लेता है और शारीरिक शिथिलता के साथ ही विभिन्न रोग भी प्रभावी होने लगते हैं ...... अब बच्चे अपनी एक - एक साँस की माला सी बना कर अपने माता-पिता को बचा लेना चाहते हैं  .....…  रोग को प्रभावी होते देख बच्चों की छटपटाहट ,उनकी व्याकुलता सबको बेबसी का एहसास करा जाती है .......

    बहुत पीड़ा देता है किसी अपने को ऐसी स्थिति में देखना , बस यही लगता है जैसे हम अपने अपनों की अंतिम साँस की राह देख रहें हो ..... अंतिम साँस के थमने पर भी कभी किसी के इंतज़ार का बहाना बनाते हैं तो कभी विभिन्न कर्मकांडों की तैयारी का बहाना बना कर  उस जाते  हुए रिश्ते को , अपने अस्तित्व के उस अंश के एहसास को कुछ और देर थामे रखना चाहते हैं ...... कभी किसी सामान का बहाना बना कर तो कभी कुछ - पूछते पूछते भूल जाने का आभास देते हुए उस स्थान पर आना , बस एक - एक निगाह उस अपने को अपनी यादों में ,अपनी निगाहों में सहेज लेना की लिप्सा ही तो रहती है .....

      जानती हूँ ये असम्भव है , तब भी यही कामना जगती है कि किसी को भी किसी अपने को ऐसे हर पल तिल - तिल कर जाते हुए न देखना पड़े ...... निवेदिता 

रविवार, 17 नवंबर 2013

तुम्हारी कुछ भी नहीं ......


ये चाहतें
बड़ी अजीब ही
नहीं
अजीब - अजीब सी
कभी भी
कहीं भी
यूँ ही सी
सरगोशियाँ करने
लग जाती हैं
अब देखो न
कैसी चाहत
उभर आयी है
चाहती हूँ
तुम्हारी कुछ भी
नहीं बनना ...
क्यों ?????
अरे ...
अभी तो
बहुत कुछ
और हाँ
बहुत सारे हैं
तुम्हारे पास
पर
जब कभी
ये सब कहीं
भटक जाएँ
ज़िंदगी की
उलझनों में
तब भी
कभी भी
तुमको
नहीं खलेगा
अकेलापन
तब
मैं हूंगी न
तुम्हारी
कुछ भी नहीं ...... निवेदिता 

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

साँसों के थमने पर ....



अजीब सा सफर है ये ज़िंदगी का भी ...... बस पहली सांस से आख़री सांस तक का ......  देखा जाए तो ये दूरी बड़ी छोटी सी है ..... बस पहली से आखरी सांस तक की , बड़ी ही नामालूम सी अजनबी की तरह गुजर जाती है बगैर कुछ बताये ..... बस दे जाती है कुछ चाहे और कुछ अनचाहे से रिश्तों के ताने - बाने .. ये ऐसे रिश्ते होते हैं जो एक  लम्हे को  जिंदगी  की सबसे  बड़ी  हकीकत  लगते हैं तो अगले ही लम्हे में सबसे बड़ी कड़वाहट से भरे झूठ ...... उन रिश्तों की चीख  पुकार को सुन कर लगता है ,जैसे उस जाने वाले के साथ ही उनकी भी ये आने वाली आख़री साँसे हैं ..... क्या सच में कभी ऐसा मुमकिन हो पाया है ..... हकीकत में तो शरीर के जाने के साथ ही, जिंदगी तुरंत ही शुरू हो जाती है ....... कभी घर की शुद्धि के नाम पर की जाने वाले साफ़ - सफ़ाई के नाम पर तो कभी इंतज़ामात के नाम पर ....... कभी यादगार और रवायतों का नाम दे कर लेने -  देने वाली सौगातों के नाम पर तो कभी व्यंजनों की एक लम्बी सी सूची के नाम पर .....

एक और भी अजीब सी हकीकत  आती है ... जिन कदमों में इतना साहस कभी नहीं होता की वो उस दहलीज़ की तरफ ख्यालों में भी आ सकें और हसरत से देखता है ,वही उस घर की हर दर -ओ - दीवार को अपनी हर सांस में भर लेता है और बाद में अपनी हसरत को अजीब सी हिकारत से देखता है ...

ताउम्र जिस शान शौकत से इंसान जीता है ,अपने तमाम शौक पूरे करता है ...... बस पलकों के बंद होते ही दूसरों का मोहताज़ हो जाता है ,जैसे लगता है की कब कोई आये और उसको अंतिम स्नान कराये ..... ताउम्र कितनी भी रंगीनियों में जीता रहा हो पर अब ....... उसकी तमाम नापसंदगी की बावजूद , कोरा बेरंग कफ़न पहनाया जाता है ....... बेशक उसको फूलों से एलर्जी रही हो पर फूलों की चादर ओढ़ाई ही जायेगी ........ और सबसे बड़ी बात जो बहुत बड़ी नाइंसाफी ( ? ) की है वो ये कि ये तमाम काम वही शख्स करता है जो उसको और जिसको वो सख्त नापसंद थे और कभीकभार तो उस सांस के आखरी रह जाने का कारण भी वही शख्स ही रहता है  ....

 सच बड़ी ही अजीब से होते हैं हालात सांसों के अटकने से लेकर थमने तक के ..... कई की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू करवाते हैं तो कई अनचाहे इंसानों के अनचाहे रहने पर सवालिया निशान भी लगाते हैं ....... आख़री सांस बड़ी ही बेरहम होती है ....... बहुतो के बड़े ही मासूम से लगते  अस्तित्व को झकझोर कर रख देती है और बहुतों की निगाह में बेबाकी से बेनक़ाब भी कर जाती है .............. निवेदिता

सोमवार, 4 नवंबर 2013

पता .....



पता .....
ये भी
एक अजीब ही
शै बनी रही
नाउम्मीदी में भी
फ़क्त इसको
तलाशते ही रहे
उम्र भर
पर ....
आख़री सांस
के आने पर भी
पता का भी
पता न मिला
कभी ......
अपने होने का
छलावा बन
एक नाम
तो कभी
एक नंबर के
होने का एहसास
जगा जाते हैं
पर .....
अगला ही लम्हा
जैसे खिड़की के
खुले काँच पर
चंद खरोंचें दे
बाहर की कंटीली
शाखों के होने का
सोया सा एहसास
खुली पलकों में
वीरानी की चमक
सा बरस जाता ......
                 -निवेदिता 

रविवार, 3 नवंबर 2013

आरती .....


अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे सखी सम्मिलन में आरती करने की पूरी प्रक्रिया पता चली ,जो निम्नवत है ........   

हम जिस भी देवता की पूजा करते है हम पूजन के सम्पूर्ण होने के प्रतीक सवरूप उस देवता की आरती भी करते हैं ।  हर देवता के बीज मंत्र भी भिन्न होते हैं जिनके द्वारा हम उनकी पूजा करते हैं । ऐसी मान्यता है की बीज मंत्र को स्नान थाल ,घंटी और जल पात्र पर चंदन अथवा रोली से लिखना चाहिए । यदि बीज मंत्र न पता हो तो हम ॐ  बना लेते हैं । 

हर देवता की आरती करने की संख्या भी अलग होती है । विष्णु भगवान को बारह बार आरती घुमाई जाती है । सूर्य देव को सात बार ,दुर्गा जी की नौ बार ,शंकर भगवान की ग्यारह बार ,गणेश जी की चार बार आरती घुमाई जाती है । यदि  देवता की संख्या न पता हो तो सात बार भी कर दी जाती है । 

आरती करने की प्रक्रिया को भी चार भागों में बाँटा गया है । सबसे पहले चरणों की ,फिर नाभि की , तत्पश्चात मुख की और सबसे अंत में सम्पूर्ण विगृह की । आरती कर लेने के बाद उसको ठंडा भी किया जाता है ,इसके लिए शंख अथवा फूल में जल ले कर आरती के चारों तरफ घूमाया जाता है उसके बाद ही आरती ली जाती है !

आरती की थाली में सामन्यतया अक्षत ,फूल , धूप , दीप , अगरबत्ती , कर्पूर , फल ,मिष्ठान्न रखा जाता है !   -निवेदिता 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

ख़्वाब .....






ख़्वाब ....
कभी मुंदी
और कभी खुली
पलकों से भी
सांस - सांस जिए जाते हैं

ख़्वाब .....
कभी साँसों में
और कभी
दिलों में भी
सहज ही पलते पनपते हैं

ख़्वाब .....
फ़क़त यूँ ही
देखते ही नहीं
धडकनों में भी
सुने और सहेजे जाते हैं

ख़्वाब .....
हरदम सिर्फ
ख़्वाब ही नहीं होते
ज़िन्दगी की
रेशा - रेशा हक़ीकत भी होते हैं
                           - निवेदिता 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

वो एक लम्हा कुंती के जीवन का ........



कुंती का नाम आते ही मुझे उसके जीवन का बस एक लम्हा याद आ जाता है जो अजीब सी वेदना भरी घुटन दे जाता है और उस लम्हे में कुंती एक आम सी स्त्री लगती है .....

कर्ण के जन्म के बाद ( यहाँ मैं चर्चा  बिलकुल  नहीं करूंगी कि किन परिस्थितियों में कर्ण का जन्म हुआ , उन घटनाओं की किसी भी  ऐतिहासिकता  अथवा  किवदंतियों  के विषय में बिलकुल भी नहीं ) , जब एक राजपुत्री की तथाकथित मर्यादा निबाहने के लिए , कुंती को कर्ण का परित्याग करना पड़ा ........ सिर्फ इस एक पल ने ही कुंती के  सम्पूर्ण जीवन को एक डगमगाती लहर बना दिया ...... मैं तो उस लम्हे के बारे में सोच कर भी संत्रस्त हो जाती हूँ कि कैसे  एक  माँ  ने अपने ही हाथों , अपनी आत्मा के , अपने शरीर के अंश को उन विक्षिप्त लहरों के हवाले किया होगा ....... कई पुस्तकों में पढ़ा  तो  मैंने  भी है कि उस   टोकरेनुमा नाव को बेहद  सुविधाजनक और सुरक्षित  बनाया  गया था साथ  ही उसमें इतनी प्रचुर मात्रा में धन भी रखा दिया गया था जिससे उस शिशु के पालन - पोषण में ,उसको पाने वाले को असुविधा न हो ...... परन्तु क्या कोई भी सुविधा इतनी सुविधाजनक हो सकती है जो माँ के अंचल की ऊष्मा दे सकती है ..... जिस  पल कुंती के स्पर्श की परिधि से वह नौका विलग हुई होगी ,कुंती ने अपने राजपुत्री होने का दंश अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर अनुभव किया होगा .....

पाण्डु से विवाह के बाद भी , जब कुंती ने अपने अन्य पुत्रों को जन्म भी उसी तथाकथित दैवीय अनुकंपा द्वारा ही दिया होगा , तब भी कर्ण अस्पृश्य ही रहा ...... सम्भवत: इस बार कुंती ने एक राजवधु होने का धर्म निभाया होगा ...... 

कर्ण को उसकी अपनी पहचान मिलने का मूल कारण महाभारत का युद्ध ही था ...... बेशक इस युद्ध ने अनेकों वीर योद्धाओं का और कई राज - वंश , का समूल विनाश कर दिया , पर कर्ण को "एक दानवीर योद्धा कर्ण" के रूप में पहचान भी दे गया ....

अगर ये व्यथित करने वाला लम्हा ,  कुंती  के  जीवन   में  न  आया  होता तो   सम्भवत : वह विवाह  के बाद हस्तिनापुर की उलझी हुई परिस्थितियों को अपेक्षाकृत अधिक संतुलित कर सकती थी । कुंती   ने अपने जीवन की हर सांस एक अपराधबोध के साथ ली ... पहले तो कर्ण को अपनी पहचान न दे सकने की और बाद में शेष पाण्डवों के जीवन के अभय वरदान के फलस्वरूप कर्ण के जीवन के लिए अनेकानेक  प्रश्नचिन्ह बना देने के लिए ..... काश वो अनचाहा सा लम्हा  कुंती के  जीवन में न आता और अगर उस लम्हे को आना ही था तो कुंती  को एक राजकन्या एवं राजवधू नहीं होना था ......
                                                                  - निवेदिता 

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

अमृत बरसाती करवा चौथ की रात !!!



हाँ ! बस
सजने ही वाली है
बड़े इंतज़ार से भरी
सलोने से चाँद की
अरमानों भरी वो करवा चौथ की रात !

वो सजे हुए करवे
चार दिशाओं का
भान कराती सींके
मांडे चौक पर अमृत बरसाती रात !

सतरंगी सजी चूड़ियाँ
मेहंदी से रची हथेलियाँ
कलाइयों और हथेलियों में
मनभावन रंग भरी आशीष सी रात !

वो नथ ,वो माँग का टीका
बाजूबंद - करधनी - कंगना
सहेजती अंगूठी की छुवन सी
पायल की रुमझुम गुनगुनाती रात !

 ख़ुश्क होते इन लबों से
अंतर्मन तक तृप्त मन के
रेशमी साड़ी की छुवन सी
सुहाग की चमक भरी चूनर की रात !

सबसे बड़ी ,सबसे प्यारी
आशाओं उम्मीदों भरी
जन्मों के रिश्तों के नाज़ुक से
एहसास सहेजती करवा चौथ की रात !!!
                                      - निवेदिता 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

" चूड़ी " .....


" चूड़ी " ..... इसके बारे में सोचते ही सबसे पहले एक मीठी सी आवाज़ " खन्न " की गूँज जाती है और इसके बाद तो इतने ढेर सारे रंग निगाहों में लहरा जाते हैं ,और वो भी ऐसे सतरंगी कि हर रंग मन में बस जाए .....

इस चूड़ी पर गाने भी तो कितने सारे और कितने प्यारे लिखे गये हैं ....... बोले चूड़ियाँ बोले कंगना ..... चूड़ी नहीं मेरा दिल है ...... चूड़ी मजा न देगी ..... गोरी हैं कलाइयाँ , पहना दे मुझे हरी - हरी चूड़ियाँ ......

हर समुदाय विशेष में इन चूड़ियों के बारे में धारणाएं भी अलग - अलग हैं ....... बंगाली समुदाय शंख की बनी हुई लाल और सफेद रंग की चूड़ियों को विशेष शुभ मानता है , तो पंजाबी समुदाय में लाह अथवा लाख की बनी चूड़ियों को ...... कांच की बनी चूड़ियाँ तो लगभग सभी पह्नते हैं ...... सिंधी और पंजाबी समुदाय में सिर्फ सोने की चूड़ियाँ भी पहनी जाती हैं , जबकि अन्य लोग सिर्फ सोने की चूड़ियाँ पहनना अशुभ मानते हैं , वो सोने के साथ कांच की चूड़ियाँ जरुर पहनते हैं .....

चूड़ी की धातु के साथ ही उसके रंगों का भी अलग - अलग परिवारों में रंगों की भी अपनी ही परम्परा होती है ...... अधिकतर लाल रंग को प्रमुखता देतें हैं ,पर कुछ सतरंगी को ( शायद इसके पीछे कारण यही रहा होगा कि साल भर विवाह वाली चूड़ियाँ ही पहनी जाती हैं ,तो सतरंगी चूड़ियाँ हर तरह के वस्त्रों पर अच्छी लगती हैं ) ....... कुछ परिवार काले रंग की चूड़ी को लाल रंग की चूड़ियों के साथ विवाह में वधु को दिये जाने वाले उपहार के साथ भेजना शुभ मानते हैं .....


चूड़ियों को पहनते समय उनकी संख्या का भी विशेष महत्व होता है ....... विवाहपूर्व कितनी भी संख्या में चूड़ियाँ पहन लें कोई कुछ नहीं कहता ,पर विवाहोपरांत तो याद दिलाया जाता है कि चूड़ी पहनते अथवा खरीदते समय संख्या विषम होनी चाहिए ,अर्थात एक कलाई में दूसरी कलाई से एक चूड़ी अधिक पहनते हैं ,इस चूड़ी को " आसीस " अथवा " सुहाग " की चूड़ी भी कहते हैं और  दुकानदार इसके पैसे भी नहीं लेते हैं ......सम्भवत: चूड़ियों की संख्या विषम रखने का कारण यही हो सकता है कि सम संख्यायें तो आपस में कट जायेंगी परन्तु विषम संख्या में एक ,जिसे सब सुहाग अथवा असीस की चूड़ी कहते हैं वो सुरक्षित रहेगी ......

अब तो सुविधा की दृष्टी से चूड़ियों के स्थान पर कांच के कड़े अधिक पहने जाते हैं और सोने के कड़े तो बस बैंक के लाकर की शोभा बढाने के लिए ही लिए जाते हैं .........

एक गीत हो जाए चूड़ियों के लिए जो मुझे बहुत प्रिय है .....
http://www.youtube.com/watch?v=pBP_9EwivkY
                                 -निवेदिता 

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

चलिए रावण को जलाने लायक बन लें ......

परिवर्तन प्रकृति का नियम है ,पर हम सब हैं कि उसी घिसी - पिटी लकीर को हर वर्ष तरोताज़ा करते रहतें हैं । अब देखिये हर वर्ष हम रावण का पुतला बनाते हैं और उसको जला कर विजयादशमी मनाने की परिपाटी का पालन कर लेते हैं । इस वर्ष मुझे लगता है कि रावण भी हर बार जलने के लिए बन - बन कर ऊब गया होगा , तो चलिए इस वर्ष रावण के बारे में सोचने के पहले अपने बारे में भी सोचते हैं कि हम अपने बारे में सोचते हैं कि हम स्वयं को इस योग्य बना लें कि हम रावण को ,उसकी सभी बुराइयों के साथ जला सकें । अब अग्नि से अग्नि को तो हम जला नहीं सकते , उसके लिए तो हमें पानी का ही प्रयोग करना होगा । बड़ी आसान सी बात है कि अब इस वर्ष हम रावण की बुराइयों की दाह से बचाने के लिए कम से कम कुछ तो अच्छी सोच को अपने व्यक्तित्व का अंग बना लें । बहुत ही आसान से छोटे - छोटे बदलाव लाने होंगे ........ सबसे पहले तो प्रतिक्रिया देने में शीघ्रता न दिखाएँ । प्रत्येक व्यक्ति में कुछ तो विवेक होता ही है और वो अपने विवेक के अनुसार ही अपनी सोच बनाता है । अगर उसकी सोच हमें न पसंद आ , हो तब भी उस के विवेक को सम्मान देते हुए अपनी अरुचि दिखाएँ ....... जो सम्मान  स्वयम के लिए चाहते हैं वही दूसरे को भी दें ....... दूसरों की विवशता को अपनी शक्ति अथवा सामर्थ्य न समझें ........ ऐसी ही कुछ छोटी - छोटी बातों से शुरुआत तो की ही जा सकती है , इसके आगे तो अपने आप को हम खुद ही जानते हैं कि कहाँ क्या सुधार लाया जा सकता है ....... पर हाँ ! एक बात जो अनिवार्य रूप से करनी चाहिए ,ऐसा मुझे तो लगता ही है , परिणाम की प्रवाह किये बिना ही गलत का विरोध और सप्रयास दमन करना चाहिए ........ अगर हम स्वयं को ईमानदारी से रावण को जलाने लायक बना लें तो यकीन मानिए अगले वर्ष हमको प्रतीकात्मक रूप से भी रावण को जलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी .........
                                                              - निवेदिता

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

ज़िन्दगी





                                         बिखरे पन्नों के हर शब्द में ,
                                                     झलक दिखाती संवारती है ज़िन्दगी
                                         हवाओं की सरगोशियों में भी ,
                                                     दरस दिखा ज़िंदा रखती है ज़िन्दगी
                                        अतीत भी कहाँ व्यतीत हुआ ,
                                                     हर लम्हा है जीती अपनी ज़िन्दगी
                                        आँसुओं की मुक्तामाला बिखेर ,
                                                      जीने के अंदाज़ सिखाती है ज़िन्दगी
                                                                                   - निवेदिता 

शनिवार, 28 सितंबर 2013

मेरे दुलरुआ आज तुम्हारे जन्मदिन पर .....


                              ये है हमारा छोटा बेटा अभिषेक और आज इसके जन्मदिवस पर एक दुआ  …. 


दुआ है
तुम्हारे लिये
और हाँ ....
तुम्हारे उन सभी
अपनों के लिए
कभी भी
तुम्हे जरूरत
न हो
किसी की
दुआओं की .........

आँखों को
हसरत न रहे
नींद की
चाहतें जब
अधूरी न रहें
नींद तो
अपनेआप ही
समा जायेगी
इन प्यारी आँखों में ...........

हर ऊँचाई
चूमे कदम तुम्हारे
बस उन
ऊँची ऊँचाइयों से
देख लेना
अपने अपनों को
और हाँ ...
दुनिया के सभी
जरुरतमंदों को भी !!!
                        …… तुम्हारी माँ ....... मम्मा   :)

रविवार, 22 सितंबर 2013

एक बरसात कुछ अलग सी ……


मेरे  
सपनों की 
बालकनी में 
आवाज़ देते 
तुम  ……

तुम्हारी 
यादों की 
बारिश में 
भीगती 
मैं  ……. 

हमारे 
दरमियाँ 
भाप से 
धुंधलके का 
अनजानापन  ……

अजीब सी है 
ये रिश्तों की 
गहराती दलदल 
आओ डूब कर 
कहीं दूर मिल जायें …… 
                            -निवेदिता 

रविवार, 15 सितंबर 2013

न बह जाएँ ……






ये आँसू 
बड़े ही 
धोखेबाज़ हैं 
जब जी चाहे 
अपनी सी 
कर ही  जाते हैं 
थामना चाहूँ 
तब भी 
थिरक कर 
बिखर जाते हैं 
पर आज  
सोचती हूँ 
इन आँसुओं को 
पलकों की ही 
कैद में रख लूँ 
कहीं बहते हुए 
आंसुओं संग 
तुम्हारी झलक 
या कह दूं
कसकती 
खिलखिलाती  
तुम्हारी यादें 
तुम्हारी बातें 
भी न बह जाएँ  …
                     - निवेदिता 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

चाहत एक अजीब सी ……



चाहा था 
तुम्हे थोड़ा 
कम ही चाहूँ 
पर  …… 
रोक न सकी 
खुद को 
और तुम 
तुमने तो बस 
एक भी पल 
न लगाया 
राह बदलने में 
शायद तुम थे 
कम चाहत लायक 
और हाँ ……. 
मैं भी थी 
कम  …… बहुत कम 
पीड़ा पाने लायक  ……. 
पर 
शायद 
ये तो एक उलझन है 
दिल और दिमाग के बीच 
दिमाग तो 
तुमको छोड़ 
आगे बढ़ जाना चाहता है 
पर 
ये दिल  …
ये तो बस तुम्हे ही 
अपनी साँसों में 
यादों में बसाना चाहता है  ……
                                      - निवेदिता 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

आस और प्यास




एक आस हर पल 
थामती हैं साँसें 
इस आस में छुपी  
एक अनबुझी सी 
प्यासी प्यास भी है  
आस की प्यास 
जगाती रहती है 
प्यास की आस
आस और प्यास 
कितनी और कैसी हैं 
सुलझी हुई उलझन
ये उलझन जलाती 
उम्मीदों के दिए
कालिमा से भरे 
अँधियारों के उजाले  
सोचते 
न प्यास की आस 
बुझती  …. 
न आस की प्यास 
भरती  …
सच 
कैसी अजीब सी 
ये प्यासी आस है  ……
                 - निवेदिता 

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

इखरे - बिखरे - निखरे आखर ( ३ )


नज़रों के सामने है अथाह जल राशि ,अपनी सम्पूर्ण भयावहता से असीमित विस्तार को भी सीमित करती … मन बावरा भटका सा अटका सा ,जैसे विराम का कोई  नन्हा  सा  लम्हा तलाशता ऊपर जैसे ईश्वर की आस लिए निगाहें फेरता है ,पर वहाँ भी आकाश अपनी ओर - छोर हीन विपुलता लिए सूर्य - चाँद - सितारों की सज्जा की चमक लुटाता , निगाहों को ठगे जाने की शिकस्त का बोध करा रहा है … 

निगाहें फिर से व्याकुल सी जल को देखतीं हैं ,पर उसकी गहराई भी नहीं थाह पा रहीं हैं … मन - प्राण एक तिनके सा हवा के झोंकों के वशीभूत ,अजनबी सी यात्रा पर निकल पड़ा है … लगता है आज पंच तत्वों ने अजीब सी साज़िश रच ली है ,अपनी सम्मिलित शक्ति के प्रबल आवेग से तिनके का और भी रेशा निकाल उसका अस्तित्व ही समाप्त करना चाहते हैं …

वो रुक्ष सा तिनका तलाश रहा है अपने आत्मिक बल ,उन दो नन्हीं चितवन को ,जो उसके क्षीण से कलेवर के समक्ष दृढ़ स्तम्भ सरीखे कवच सी छा जातीं हैं … हर आता हुआ लम्हा ,कभी तीक्ष्ण सी चुनौती बन तो कभी एक आस के दीप स्तम्भ सा जगमगा जाता है … 

आसमान की विशालता जैसे उस तिनके के इरादों की अडिगता को परख रहीं हो ,तो जल की गहराई उसके विश्वास की सीमाओं को समेटने के लिए और भी नीचे उतरती जा रही हो …

तिनके के इस अडिग प्रयास के पीछे का मूल तत्व उसका एकमात्र विश्वास है कि उसकी उपस्थिति के बिना ये सृष्टि अपूर्ण ही रह जायेगी … बेशक एक तिनके भर ही ,पर पूर्ण रूप से सम्पूर्ण हो पाना सम्भव ही नहीं और नि:संदेह यही उस तुच्छ और रुक्ष से तिनके की शक्ति है और उखड़े मन के भटके से ख्याल भी ……                                                                                                            - निवेदिता 

शनिवार, 31 अगस्त 2013

क्यों आते हो .......




एक दिन 
दिल ने लचक कर 
आँसुओं  से कहा 
क्यों आते हो …… 
आँखें भी 
थक गईं हैं 
तुम्हे ……… 
हाँ तुम्हे 
स्थान देते - देते 
सब तस्वीरें 
धुंधला गईं 
यादों की टीस 
सहते -सहते !
 
ये शिकवे 
सुन - सुन कर 
आँसुओं ने भी 
थक कर 
घर नया 
तलाश लिया  
आँखों में तो
रेत सी रूखी 
खुश्की 
आ ही गयी  
मगर दिल  ……
क्यों इतना  
नम औ भारी सा 
हो गया  ……
                   -- निवेदिता 


रविवार, 25 अगस्त 2013

जन्मदिन तुम्हारा मुबारक हो हमको ………



बच्चों के जन्मदिन पर मैं हमेशा ही यादों की मनमोहक वीथियों में भटक जाती हूँ ,और पता नहीं कितनी बातें - यादें तरोताज़ा हो जाती हैं । आज भी तस्वीरों की तलाश में ये तस्वीर मिल गयी और इससे जुड़ी हुई उनकी शरारत भी दुलरा गयी। उपहार अकसर गिफ्ट - बॉक्स में ही दिया जाता है ,अपने दोनों बच्चों की ये तस्वीर मुझे यही याद दिलाती है और साथ ही ये याद आता है कि कैसे इन दोनों ने सामान आते ही फटाफट सब निकाल के इधर उधर फेंक दिया था और उस डिब्बे में दोनों घुस के बैठ गये थे और पावडर के नये डिब्बे से पावडर की बरसात भी की थी :)


आज हमारे बड़े बेटे "अनिमेष "का जन्मदिवस है :)


ईश्वर के वरदान की तरह ही मिला है अनिमेष हमें । एकदम मस्तराम - मनमौजी , अपनी ही धुन में मग्न , पर संवेदनशील भी बहुत ही ज्यादा है । सबकी मदद के लिए भी हमेशा तैयार । मुझसे तो वैसे भी इन दोनों की टेलीपैथी बहुत जबरदस्त है । जब भी कभी मैं थोड़ा सा भी विचलित होती हूँ या पीड़ा में होती हूँ उसी पल इन में से किसी का फोन आ जाता है और मैं जैसे एनर्जी ड्रिंक लेकर फिर से तरोताजा हो जाती हूँ । आज ही जब मुझे M.R.I. के लिए जाना था ,तो एक अजीब सी उलझन थी …….… मन कर रहा था कि वहां से भाग आऊँ पर अचानक ही दोनों बच्चों के चेहरे नजरों के सामने तैर गये और शक्लें आँखों में बसाए पूरी प्रक्रिया से कब गुजर गयी पता ही नहीं चला और जैसे ही बाहर आयी अनिमेष की फोन कॉल भी अचानक ही आ गयी  ………

अनिमेष की मासूम सी शरारतों की वजह से ही उसका नम्बर मेरे फोन में " नॉटी " के नाम से सुरक्षित है , कब वो दुलार में "नाटू " से होते हुए "नट्टू " तक पहुँचेगा ,ये तो उसकी उस समय की उसकी कान्हा - लीला पर निर्भर करता है  :)

पहले घर ,फिर I.I.T. कानपुर और अब X.L.R.I. जमशेदपुर में अनिमेष को देखती हूँ तो बस एक गीत याद आता है …… 




इस कान्हा से कम नटखट नहीं है मेरा कान्हा :) जितनी भी दुआएँ हो सकती हैं आज के दिन ही क्यों अपनी हर श्वांस में मेरे "नट्टू" को …… 
                          -निवेदिता 


शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

शब्दों की तलाश ………



                                                शब्द यूँ ही भटकते - अटकते रहे
                                                कभी ख़्वाबों तो कभी ख़यालों में
                                                इक नामालूम सी श्वांस सरीखी
                                                मासूम सी पनाह की तलाश में
                                                बेपनाह आवारगी का दामन थाम
                                                अजीब सी चाहत पहचानी राह में
                                                खामोशी से उभर अपना ख़्वाब बनी
                                                मेरी चाहत के शब्दों को , काश
                                                मिल जायें बस स्वर तुम्हारे ........
                                                                                  -- निवेदिता 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

"ॐ नम: शिवाय"


एक अजीब सी विचलित और व्यथित मन:स्थिति में , अभी कुछ दिनों पूर्व हमलोग गुजरात यात्रा पर गये थे । अवसर या कह लें कि बहाना एक विवाह का था । बिटिया "मुग्धा" की डोली जाने के साथ ही मन और भी अधिक विचलित होने लगा था । उस समय ही एक दूसरे बच्चे "प्रतीक" ने हम लोगों के लिए अहमदाबाद से सोमनाथ होती हुए वडोदरा तक का एक लुभावना यात्रा वृत्त बना दिया और एक तवेरा भी मुहैय्या कर दी । पर मन बावरा पूरे रास्ते अशांत ही रहा । रास्ते भर ड्राइवर हम लोगों को सोमनाथ धाम की महिमा बतलाता रहा और मैं उद्विग्न सी अनसुना ही करती रही ,पर जैसे ही हम सोमनाथ पँहुचे मन एकसार होने लगा । 


सोमनाथ मन्दिर परिसर में पहुँचते ही मन जैसे एक स्थिरता पाने लगा । मन्दिर का सम्पूर्ण परिसर इतना व्यवस्थित और शांत था कि अनजाने ही मन " ॐ नम:शिवाय " की जपमाला बन गया ! दो - दो पंक्तियाँ स्त्रियों और पुरुषों के पृथक दर्शन के लिए थीं , जिसमें साथ लाये हुए पुष्प - पत्र को अर्पित करने और मत्था टेकने के लिए पर्याप्त समय देने के बाद अगले ही पल आगे बढ़ा दिया जाता था । इन पंक्तियों के बगल में ही दोनों तरफ पर्याप्त स्थान  था जिसमें  खड़े हो कर अथवा बैठ कर  ,मनचाहा समय बिताने का । हमलोग सुबह लगभग ६ बजे प्रात:आरती के लिए पहुँच गये थे और दो घंटे तक पूरा स्नान , श्रुंगार , आरती दर्शन का आनन्द लिया । डमरू की आवाज से आरती का प्रारम्भ होते ही बड़ा रोमांचक अनुभव हो रहा था और व्यथित मन जैसे स्वयमेव ही असीम स्थिरता और शान्ति के प्रभाव चक्र में समा गया  ………………. 


ये सोच कर फिर से जी जाऊँ , 
                       मन मेरा तेरा शिवालय है 
मेरी हर आती जाती साँस , 
                        बस तेरे नाम की माला है 
मेरी नस नस में बहती , 
                       तेरी गंगा की पावन धारा है 
व्यथित मन को मिली , 
                      तेरे चाँद सी शुभ्र शीतलता है 
मेरे मन की पीड़ा को ,
                       तेरे भस्म फुहार ने उड़ाया है 
तेरे डमरू के धमकने से , 
                      बढ़  चलती  मेरी  पगधारा है 
मेरे मन की बाती में , 
                      "ॐ नम: शिवाय" की ज्वाला है !
                                                          -निवेदिता 

सोमवार, 22 जुलाई 2013

माला तो हमेशा आपके गले में सजती थी ये फिर ऐसा क्यों …………

  वो  २९ जून का ही दिन था जब अचानक ही मेरे देवर "आशू" का फोन आया था अमित जी के पास " भाभी को लोहिया में  एडमिट कर दिया गया है "........  हम कुछ समझ ही नहीं पाए थे ऐसा कैसे हो गया क्योंकि वो तो एकदम स्वस्थ थीं ......... परिस्थितियाँ इतनी तीव्र गति से बदलीं कि रात के दस बजते - बजते हम सब दीदी को लेकर पी .जी .आई .में थे ......... इमरजेंसी में दीदी का हाथ थामे हुए अपने समस्त आत्मबल को संजोये हुए बस "ॐ नम:शिवाय" जप रही थी ........ हर बीतता हुआ पल जैसे ह्मारे धैर्य  की  सीमा का आकलन कर रहा था ......... देर रात तक हमारा पूरा परिवार एक दूसरे का सम्बल बढाता इकट्ठा हो गया था ......... रात बीतते न बीतते वो वेंटिलेटर   पर आ गईं थीं ........ अजीब सी मन:स्थिति लिए हम सब  एक  दूसरे में विश्वास बीजते रहे ....... दोनों बच्चे अपनी छोटी चाची के साथ मन्दिर - मजार - दरगाह पर दुआ मांग रहे थे ,कितने अनुष्ठान भी किये जा रहे थे ........ दोनों बच्चे हाथों में प्रसाद लिए जब भी वापस आते ,उनकी खामोश निगाहें मानो एक ही आस लिए रहती कि शायद इस बार कोई आशाजनक पल उनके हिस्से में आ जाए ,पर हम सब जैसे निगाहें चुराते उनसे ही आशा का सम्बल मांगते थे ......... उन बेबस दिनों में ,मैं प्रतीक्षालय में बैठी  बस यही दुआ करती कि किसी भी प्रकार दीदी की चेतना जागृत हो जाए ,बेशक कितना भी समय लगे पर हम अपनी सेवा से उनको वापस पा लेंगे क्योंकि सुना तो यही था कि वेंटीलेटर पर जाने के बाद भी ठीक हो जाते हैं ,पर ...........

बाहर बैठी - बैठी उन दिनों मैं आने वाले दिनों के बारे में सोचती थी कि दीदी के स्वस्थ होने को हम सब कैसे उत्स्वित करेंगे ,कैसे उनसे एक बार तो लड़ भी लूंगी कि ऐसी भी क्या नाराजगी जो हमारी नींद उड़ा कर ऐसे सो रहीं हैं ,पर दस जुलाई की शाम हम सब पर इतनी भारी पड़ गयी जब डाक्टर ने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी ......... तब हर एक पल इतना भारी होता चला  गया ......... बेबस सी सोचती रही 'हुमायूँ और बाबर का किस्सा' पर शायद ऐसा कहानियों में ही सम्भव है ,असली जीवन में कोई व्यक्ति अपने हिस्से की साँसे किसी अन्य को किसी भी तरह नहीं दे सकता ......... पूरी रात एक चमत्कार की उम्मीद लगाये सी . सी . यू . की सीढ़ियों पर अपलक निहारती रही कि शायद किसी भी पल हमको दीदी के होश में आने का सुसमाचार मिल जाए ,पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और ग्यारह जुलाई की सुबह अपना अन्धकार फैला कर , हमारे परिवार की जीवन्तता का पर्याय ,दीदी को अनजान राहों पर ले गयी और हम सब अपनी असमर्थता के एहसास का बोझ लिए लिए बिखर गये थे .........

दीदी को उनकी अंतिम यात्रा के लिए अपने ही हाथों से सजाया और अंतिम प्रणाम भी किया ,पर आज भी हर पल लगता है कि वो किसी भी कोने से हंसती हुई निकल आयेंगी .......... 

ग्यारह जुलाई के पहले मन में अनेक आशाएं संजोये हुए मैं आने वाले दिनों के बारे में सोचती रहती थी ,पर उसके बाद अभी तक मैं बीते हुए दिनों के बारे में ही सोचती रहती हूँ ...... मेरी कोई बहन नहीं थीं ,विवाह के बाद दीदी को बड़ी बहन के रूप में ही माना था ......... विवाहोपरांत मेरे पहले जन्मदिन के दो तीन दिन पहले हमारे लाडले देवर आशू की 'छोले भटूरे' की फरमाइश को दीदी ने टाला तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था क्योकि वो उनकी फरमाइश सबसे पहले पूरा करतीं थीं , बाद में पता चला कि मेरे जन्मदिन के उपलक्ष्य में बनने वाले व्यंजन की सूची उन्होंने पहले ही तैयार कर ली थी जिसमें छोले भटूरे भी थे ........ अपने इस जन्मदिन पर ये याद मुझे बहुत कचोट गयी ( 

दीदी व्यवहारिक थीं परिस्थितियों के अनुसार वो कई बातों को टाल भी जातीं थीं ,जबकि मैं उनके विपरीत जो भी सोचती थी बेख़ौफ़ बोल जाती थी ........... कभी-कभी इसी वजह से हम में मतभेद भी जाते थे पर हममें मनभेद कभी भी नहीं हुआ ........... इतना विश्वास था मन में कि कभी भी उनसे कुछ भी बातें कर सकती थी ......... आज एक आश्वस्ति है मन में कि कभी भी जाने अथवा अनजाने में उनकी अनदेखी नहीं की ........... 

अल्पायु भी समझ में आती है ,पर इतनी अल्प ........अविश्वसनीय ही नहीं त्रासद भी है ....... समझाना चाहती हूँ खुद को कि ......
                             "तुलसी  या  धरा  को  प्रमान   यही  
                                     जो फरा सो झरा ,जो बरा सो बुताना "

 रोज जब आपकी तस्वीर को सबसे निगाहें  छुपाते हुए प्रणाम करती हूँ तो बस दिल कचोट उठता है कि माला तो हमेशा आपके गले में ज्यादा सजती थी फिर ऐसा क्यों  …………
                                                                             -निवेदिता 

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

उम्र हो कम ग़म नहीं .......


उम्र हो कम ग़म नहीं 
श्वांस थके ग़म नहीं 
क़दम रुके ग़म नहीं 
पलकें मुंदी ग़म नहीं 
धडकनें रुकी ग़म नहीं
 पर इतनी कम ......
  ...... 
उम्र हो कम पर 
इतनी भी कम 
झटके से छूटती 
जैसे श्वांसों की कच्ची डोर
हाथों से हाथ छूटे 
ऐसी बेबस ,बेसबब 
बेरहम ज़िन्दगी तो नहीं
 .......
हाथों की लकीरों से बसे 
धडकनों से सजे सपने
श्वांस - श्वांस पुकारती 
तुम्हारे होने के एहसास 
पर अमृत कलश छलकाती
ये तरसती आँखें बस 
तुम्हारी पायल की रुनझुन 
ढूंढ़ - ढूंढ़  बरस जाती  ...... 
         
                                -निवेदिता 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

आशीष बन बरस जाओ ......

खट खटाक खड़क 
सन्नाटे में गूंजती 
कदमों की आवाजें 
सिटकनी लगाते 
अटकती झिझकती 
श्वांसों की राह  
रोकते अनदेखे 
नक्षत्र ........
मुंदी पलकें 
उलझी अलकें 
रक्त कणिका बन 
रुक्ष तन्तुओं में 
जीवन बन 
बरस जाओ 
हे प्रभु ! 
दुआओं में 
जुड़े हाथों में 
आशीष बन 
बरस जाओ ......
         - निवेदिता 

शनिवार, 29 जून 2013

इखरे - बिखरे - निखरे आखर ( २ )


मासूम से लम्हों को ,लगता है छोटे - छोटे नगण्य से जीवों पर भी दुलार आ ही जाता है । 

वो नन्ही फ़ाख्ता सबकी कुशल चाहते - चाहते बस यूँ ही अपने शीश पर विस्तार पाये नभ की विशालता को भी एक निगाह निहार लेती थी । उन निहारते हुए नामालूम से लम्हों में ही यदाकदा , शायद , उसकी निगाहों में आ बसी निश्छलता को दूर कहीं सबसे छुप कर बैठा ऊपर वाला भी अपनी कसौटी पर कसता रहता था । जब भी उसके दिल को फ़ाख्ता का कोई नन्हा सा मासूम लम्हा भा जाता था , वो उस नन्हे नगण्य से पंछी पर अपनी इन्द्रधनुषी छटा बरसा देता था और उस की अपने में मगन फुदकन , बेशक कुछ लम्हों को ही पर सबका आकर्षण का केंद्र बन ही जाती थी !!!

आज लगता है , उसके पंजों में कभीकभार चुभने वाले तिनके , हाँ ! तिनके ही लग रहे हैं अब काँटे जैसे तो एकदम नहीं , जैसे ईश्वर द्वारा किया जा रहा कोई परीक्षण रहता होगा । ये भी हो सकता है एकदम विपरीत लगती सी परिस्थितियों में भी उस के मन की अडोल निश्छलता को ईर्ष्यालु होने का , रपटीली पगडंडियों को स्वीकारने अथवा नकारने की सहज मानवीय पलों की कसौटियों पर कसता वो सर्वश्रष्ठ स्वर्णकार का अबूझा सा कारनामा हो !!!

उस ऊपरवाले को मन की शुचिता का ही ध्यान रहता है ,शायद इसीलिये वो नन्ही सी खुली हुई चोंच में अपनी सारी मिठास पूरित करने के अवसर देते हैं और आप्लावित भी कर देते हैं । बस वो भी ,ये देखते अवश्य हैं कि ये छोटापन  उसके वाह्य आकार का ही है न कि उसके मन का !!!
                                                                                         - निवेदिता 

मंगलवार, 25 जून 2013

बस बेजुबान हो जाना !


आज खामोशी को ,
बेजुबान कर दिया 
इसलिए नहीं कि ,
कहने को कुछ नहीं 
सुनने को भी बहुत है
और सुनाने को भी !
बस इस पल शायद 
सुनने और समझने  
की तुम्हे चाह नहीं 
जानती हूँ ऐसा क्यों 
सुनना भी तो होगा 
एक तरह का स्वीकार !
कुछ कदमों का जुड़ना 
जैसे तटस्थ श्वांसों का 
निर्लिप्त सा आते जाना 
श्वांस बंध टूटने पर 
नि:श्वांस भर 
बस बेजुबान हो जाना !
                   -निवेदिता 

शुक्रवार, 21 जून 2013

इखरे - बिखरे - निखरे आखर



नन्ही सी फ़ाख्ता दुनियावी तौर - तरीको से बेखबर अपनी छोटी सी दुनिया में मगन थी । अपने नन्हे - नन्हे  पंजों में समा पाने लायक आसमान को ही उसने अपनी दुनिया बना रखा था । उसको न तो बड़ी सी दुनिया की चाहत थी और न ही दूसरों को मिली असीमित सीमाओं से शिकायत ! छोटी - छोटी आँखों में पलते सपने भी बड़े मासूम थे । उन सपनों से ही जैसे उसका जीवन ऊर्जा पाता था । 

बदलते लम्हों को जैसे उसकी निर्द्वन्द किलकारियां असह्य हो गईं और हर पल उसकी सीमाओं का एहसास उसको कराया जाने लगा । उसकी अच्छाइयां ही जैसे उससे शत्रुता करने लगीं थीं ! उसकी मासूमियत उसकी सबसे बड़ी बाधक बन गयी । उसने कभी निगाहों की भाषा और लबों की भाषा में अंतर नहीं रखा , शायद इसीलिये  उसके पंखों को नोचने बढ़ते हाथों को वो देख नहीं पायी । 

कभी सुना था कि कार्य से अधिक सोच या कह लें नीयत अधिक फल देती है और उसने इसका अनुभव भी हर पल में किया । शायद सबका शुभ चाहने और सोचने की उसकी सहजता उसको फल देने लगी थी । अब उसके नन्हे पंजों और कमजोर पंखों में अब ईश्वर अपना स्नेह भरने लग गया था और उसके नन्हे कदम और छोटी - छोटी उड़ान अब उसकी गरिमा मानी जाने लगी । उसका उपहास बनाते लम्बे कदम भी छोटे - छोटे कदम रखने का प्रयास करने लगे हैं । शायद यही उस कमजोर फ़ाख्ता की नीयत की शुभता थी .......
                                                                                                               - निवेदिता 

शुक्रवार, 7 जून 2013

उसने कहा .......


                                                             उसने कहा 
                                                           आँखे तुम्हारी 
                                                           पानीदार बड़ी  
                                                      और मानसून आ गया !

                                                            उसने कहा 
                                                           दिल तुम्हारा 
                                                        शीशे सा पारदर्शी 
                                                    और शीशे में बाल आ गया !

                                                            उसने कहा 
                                                           साथ तुम्हारे 
                                                          जन्नत हैं मेरी 
                                                  और साथ ख़्वाब बन  गये !

                                                            उसने कहा 
                                                           साँसे तुम्हारी 
                                                          ज़िन्दगी मेरी 
                                                  और साँसे नि:शेष हो गईं !


                                                             उसने कहा 
                                                            रूह तुम्हारी 
                                                          अमानत है मेरी 
                                                और अमानत में खयानत हो गयी !
                                                                                          -निवेदिता 

रविवार, 2 जून 2013

रिश्ते और ऑरथराइटिस




जब भी कोई कष्ट में चलता दिखता है ,तो सबसे पहला ख़याल यही आता है दिक्कत तो इस बंदे के जोड़ों में ही होगी । इसका एकमात्र कारण यही है कि कोई भी परेशानी हमारे सबसे कमजोर पलों में ही हावी हो पाती है और कोई भी बीमारी शरीर के दुर्बल होते अंगों पर ही अपना असर दिखा पाती है । मुझे लगता है कि जहाँ हम खुद को बहुत सामर्थ्यवान समझते हैं वहीं हम सबसे ज्यादा कमजोर भी होते हैं । सुपर इंजीनियर जिसको हम ईश्वर कहते हैं ,ने कितने सारे जोड़ लगा कर हमारे शरीर को एक दृढ़ता प्रदान की है पर हम अपनी गलत जीवन - शैली से उसमें भी दरारें पैदा कर लेते हैं और मजबूती देने वाले जोड़ हादसों को दावत दे जाते हैं । इन दरारों के होने का कारण कभी तरलता की न्यूनता बताई जाती है तो कभी अस्थि - मज्जा की शिथिलता और एक नाम इस बीमारी को मिल जाता है "ऑरथराइटिस " का । डाक्टर और फ़िजियो दोनों ही यही कहते हैं कि  इसका कोई इलाज नहीं है इसलिए ये बीमारी नहीं है ,पर ये जाती नहीं इसलिए लाइलाज बीमारी है । इसका इलाज सिर्फ यही है कि  सावधानी रखी जाए कुछ व्यायाम करें ,वजन कम करें .... इत्यादि ।   

रिश्ते हर लम्हे जाने - अनजाने में हमारे साथ रहते हैं ,कभी खुशी देते तो कभी गम । ये रिश्ते ही हैं जो भीड़ में भी तन्हा कर जाते हैं और तन्हाई में भी जीवन भर देते हैं । जिन रिश्तों पर हमें खुद से भी ज्यादा भरोसा होता है वो भी यूँ ही कभी बेबात बिखर जाते हैं । शायद रिश्तों को जीवंत रखने के लिए हमको एक नट का सा ही संतुलन बनाये रखना चाहिए । मुझे तो लगता है कि रिश्ते और ऑरथराइटिस दोनों में बहुत समानता है । दोनों ही हमको अपनी महत्ता का एहसास तब करा ही जाते हैं ,जब भी हम उनको अपनी सुविधा और इच्छानुसार अनदेखा कर देते हैं । 

रिश्तों को भी छोड़ा नहीं जा सकता और शरीर को भी नहीं और दोनों को बचाए रखने का एक ही तरीका है कि अपने हाव-भाव और अपनी मुद्रा ठीक रखें । ऑरथराइटिस से बचने के लिए मुद्रा अर्थात अपने उठने-बैठने का तरीका  , जैसी हमारी संरचना हुई है वैसी रखें । पीठ सीधी रखते हुए और घुटनों का ध्यान रखते सहज भाव से बैठे । रिश्तों को बनाये रखने के लिए अपनी सोच का संतुलन साधने की आवश्यकता होती है । इस तथ्य को तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि न तो हमारी प्रत्येक बात या आदत किसी को पसंद आ सकती है और न ही हमको किसी की । यहाँ बस इतना ही करना है कि उस रिश्ते की प्राथमिकता निर्धारण हमको स्वयं ही करना  है । अपनी सोच को इतना दृढ़ करना होगा कि जिन रिश्तों के बिना हम को अपना जीवन बेमकसद लगे ,उन की न अच्छी लगने वाली बातों को अनदेखा कर सकें । 

ऑरथराइटिस और रिश्ते दोनों एक जैसी सजगता चाहते हैं । पर इन दोनों में एक नाज़ुक सा अंतर भी है । ऑरथराइटिस में विकृति ( कष्ट ) को अनदेखा नहीं करना चाहिए ,परन्तु रिश्तों को बनाये रखने के लिए विकारों को कभी - कभी अनदेखा करना होगा । 

शुक्रवार, 17 मई 2013

तुम्हारी परछाईं ....


सब आजमाते है
जैसे मैं ही हूँ
तुम्हारी परछाईं
सच कहूँ
नहीं बनना मुझे
तुम्हारी परछाईं

कभी कहीं आ गयी 
ज़िन्दगी में तपिश
तुमसे दूर कभी
जा भी न पाऊँगी
अंधियारे पलों में
हाथ कैसे छुडाउंगी !

हाँ !
बना सको तो
बना लो
मद्धिम सी
साँसे अपनी
दोनों साथ ही
चल कर थमेंगे !

बसा सकते हो
बसा लो बस
रूह में अपनी
क्यों ?
अरे जानते नहीं
रूहें साथ रहती हैं
जन्मों तक .......
                    - निवेदिता

शनिवार, 4 मई 2013

वो भीगी - भीगी सी आवाज़ .......


आवाज़  में  भी  इतनी नमी आ सकती है ,और वो भी इतनी कच्ची आवाज़ में ,पहले कभी सोचा नहीं था । इधर कुछ दिनों से ,जब भी बेटे से बात होती है उसकी आवाज़ में एक नामालूम सी नमी रहती है । बस एक माँ का दिल तो बच्चे की अनजान सी धडकन भी सबसे पहले पहचान जाता है ,तो मैं भी थोड़ा सा डर जाती थी कि इस नमी का कारण क्या हो सकता है ! अजनबी सी बदली का एहसास सिहरा जाता था । कल रात भी बात करते हुए एक बार फिर से थाह लेने की कोशिश करते ,जैसे एक सिरा मिल गया और मन को भी सुकून । 

इंजीनियरिंग की पढाई के अंतिम वर्ष की अंतिम परीक्षा की पूर्णता के लम्हे जैसे - जैसे पास आते गये ये नमी भी बढती गयी थी । अब परीक्षा समाप्त हो गयी है और बच्चे वापस अपने - अपने घरों को और अपने अगले गंतव्य को बढ़ चले हैं । सब अपने इन चार वर्षों के साथ में बिठाये हर एक छोटे - बड़े लम्हे को फिर से जीने और कुछ लम्हों को ही सही ,थामे रखने का प्रयास कर रहे हैं । यही उनके दिलों के भारीपन और आवाज़ में आने वाली नमी का कारण है । 

अपने घरों  की सुरक्षित  छाँव  छोड़  कर  मासूम फाख्ताओं   जैसे ये बच्चे , अपने छात्रावास के इस मासूम से एहसास को , जिसमें खट्टे - मीठे न जाने कितने पल गुज़ारे होंगे , बहुत तीव्रता से महसूस कर रहें हैं । शायद उनको ये भी लग रहा होगा कि अब ज़िन्दगी में फिर कब ,कहाँ और किन स्थितियों में फिर कब मिलेंगे ! शायद कुछ से तो अब कभी मिलना संभव भी न हो । 

अब समझ गयी हूँ कि बच्चे अपने दूसरे घर ,जहाँ वो जन्म से नहीं अपितु दोस्तों के मन से जुड़े थे ,के छूटने की पीड़ा और आने वाले ज़िन्दगी की चुनौतियों , दोनों का ही सामना करने के द्वंद की सृजनात्मक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । 

बस यही दुआ है ईश्वर !उनका मार्ग प्रशस्त करे और उनकी बाँह थामे रहे !!!
                                                                                       - निवेदिता 

बुधवार, 1 मई 2013

नेता जो ढूँढन मै चली ............



आजकल कोई भी समाचारपत्र पढ़ने का प्रयास करें अथवा किसी खबरी चैनल देखें ,हर जगह सम्भावित चुनाव और उसके सम्भावित प्रत्याशियों पर ही अटकलें लगाईं जा रही हैं । अब इस चुनावी मौसम की बहती गंगा में अपना भी दायित्वबोध जाग्रत हो गया ,क्या करें मजबूरी जो थी कितना सोया जाए ! 

हमने सोचा हर बार आरोपों की ढेरी नेताओं ,यहाँ मेरी तात्पर्य राजनेताओं से है कृपया किसी भी प्रकार की गलतफ़हमी को बढ़ावा न दिया जाए ,की तरफ बड़ी इज्जत के साथ सरका देते थे ,परन्तु इस बार बस स्वाद बदलने के लिए थोड़े से ज़िम्मेदार बनने का प्रयास कर लिया जाए ! चलिए इस पूरे रहस्य पर से पर्दा हटा देते हैं :) 

हमने सोचा एक चुनावी दल हम भी बना लें जिसमें पढ़े - लिखे आम जन ही सम्मिलित हों ! बेशक बाद में वो आमजन भी ख़ास बन जायेंगे ! 

कोई भी नया और अच्छा काम करना हो तो निगाहें सबसे पहले युवा सोच को ढूँढती हैं ,तो हमने भी सोचा अब आजकल तो बच्चों की लगभग सभी परीक्षाएं समाप्त हो गईं हैं और वो भी अपेक्षाकृत सुकून भरे हुए कुछ नया करने की सोच रहे होंगे । बस इसी ख्याल की उम्मीद से भरपूर युवाओं को तलाशने लगी और "जिन खोजा तिन पाइयां"की तर्ज़ पर जोश से भरे हुए एक समूह पर अपनी खोजी दृष्टि अटक गयी । बड़ी उम्मीदों से भर उनको समझाने का प्रयास शुरू किया ही था कि उन्होंने समझदारी और त्वरित - बुद्धि का परिचय देते हुए पतली गली से खिसकने का प्रयास शुरू किया । पर आज तो हम पर भी राष्ट्र के प्रति प्रेम कुछ ज्यादा ही जोर मार रहा था । हमने उनको पहले तो बहलाने का प्रयास किया पर जब बात नहीं बनी ,तो हमने सोचा कि सीधा रास्ता अपनाते हुए दो टूक पूछ ही लिया जाए । पर वाकई आज के युवा कितना लिहाज करते हैं और सुसंकृत हैं पता चल गया । मेरे हर तरह के सीधे - टेढ़े सवालों के जवाब में उन्होंने कहा कि उन्होंने तो पढाई की है तो उनको कोई काम मिल ही जाएगा और वो उस काम को पूरी ईमानदारी से करते हुए भी राष्ट्र सेवा कर लेंगे पर  अगर इस काम को एक दूसरे नजरिये से किया जाए तो बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान हो जाएगा ।   हमारी जिज्ञासा के समाधान में उन्होंने कहा कि नेतागिरी के लिए किसी प्रकार की शैक्षिक योग्यता की जरूरत ही नहीं है ( 


अब सारी आशाओं का केंद्र बना सामने से अपनी ही मस्ती में झूम कर आता हुआ एक मलंग ! बचे हुए मक्खन के साथ हम एकदम वायुवेग से उसकी तरफ लपके कि  कोई और न उसको लपक ले । अब इस बाहुबली को हमने समझाना शुरू किया । तमाम पैंतरे अपनाते हुए नेता बनने के तमाम फायदे बतलाये । पर ये तो कुछ ज्यादा ही समझदार निकला ,बिना एक पल भी गँवाए उसने मेरे प्रस्ताव को ध्वनिमत ,अरे नहीं गुर्राहट से ठुकरा दिया कि जब बिना मेहनत किये ही उसको चुनाव के समय में तमाम सुविधाएं मिल जाती हैं तो वो काहे को खद्दर पहन कर नेतागिरी चमकाये !


अपनी युवा - शक्ति और मलंग से निराश हो कर एक आम से दिखते हुए मानवतन धारी से अनुरोध किया ( अब क्या करते इस महँगाई के दौर में मक्खन खत्म हो गया था न )और यथासंभव उसको पुदीने की झाड़ पर चढ़ाने का प्रयास किया । ये आम इंसान भी बड़ा समझदार निकला ,उसने तो तुरंत ही हाथ जोड़ दिए , "भइये ये नेतागिरी तो किसी ऐसे ही व्यक्ति को सजती है जिसके पास धन बल ,बाहु बल और जिसमें अपनी बातों को समयानुसार बदलने की सामर्थ्य हो । अब एक आम इंसान तो बातों पर ही मरता रहता है , कभी अपनी तो कभी दूसरों की बातें ।"

अब कोई और शख्स तो मुझे समझ में नहीं आ रहा जिसके कंधों का सहारा लेकर अपने चुनावी दल का श्रीगणेश  करूँ ,तो सोचती हूँ अपना पुराना काम ही करती रहूँ ,वही खुद कुछ न कर के भ्रष्टों के हाथों में सत्ता और शक्ति सौंप कर उनमें कमियाँ निकालती रहूँ और अपनी और उनकी गलतियों का खामियाज़ा भरती रहूँ (



            " नेता जो ढूँढन मै चली ,हाय नेता न मिलया कोय 
                       चरित्र बखान जो किया ,हाथ जोड़ भागे सब कोय "
                                                                                   -निवेदिता 





रविवार, 28 अप्रैल 2013

उसने कहा ........ ( 2 )



उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
सीप सी 
और मैंने 
मोती बरसा दिए !


उसने कहा 
आँखों में तुम्हारी 
आँसू क्यों ....
आँखों से लुढ़के 
और पानी बन गये !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
गोमुख सी 
लब लगाये 
और पावन हो गये !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
ज़िन्दगी मेरी 
साँसे मेरी 
बस  बहक गईं !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
प्यासी बड़ी 
नजरें मिलीं 
और भर गईं !
              -निवेदिता 

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

शब्दों का कारवाँ



आज 
तलाश रही हूँ 
कुछ ऐसे भीने  
शब्दों का कारवाँ 
जिनका असर हो 
सबसे ज्यादा 
पहली साँसों से 
सुने - गुने
शब्दों का रेला 
हर सांस में 
दस्तक दे
दामन थाम 
अपनेपन को 
जतला 
आगे आ 
साँसों में 
बसना चाहता है 
पर शायद 
कहीं राह 
उल्टी दिशा को 
बह चली है 
सबसे ज्यादा 
भीने मासूम से 
शब्द तो 
रह ही गये 
अनबोले से 
लबों की खामोशी
और  
आँखों के बोल 
अब क्या बोलूँ .......
                   -निवेदिता 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

एक टुकडा बर्फ़ का .......


हाँ ! मानती हूं 
मैं हूं बस 
एक टुकडा 
उस बर्फ़ का 
जिस पर शव भी 
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी 
पिघलती जाती है
कोई आये और 
डाले सागर में उसे
मेरी तो प्रकृति है 
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर 
पिघल जाऊँ
या ......
किसी सागर में  
पहुँच छलक जाऊं
मेरे लिये तो कहीं 
कोई अन्तर नहीं
मुझसे छुप जाए 
किसी की सड़न 
या ....
कम हो कड़वाहट
या फिर पा सके 
मन की शीतलता....
                    - निवेदिता 

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

झरते हुए मंजीर और ......




शायद मेरी सोच ही कुछ अजीब है तभी तो जब सब पेड़ पर लगे हुए फलों को देख कर मुग्ध होते हैं ,मैं उस पेड़ के नीचे गिरे हुए मंजीरों को देखती रह जाती हूँ ! उन गिरे हुए मंजीरों का जीवन चक्र तो वृक्ष की शाखा का साथ छोड़ते ही पूरा हो जाता है बस एक औपचारिकता सी रह जाती है उनके अस्तित्व की समाप्ति की । कभी बागबां खुद ही अपनी बगिया के सौन्दर्य में अवरोधक बने उन झरे हुए मंजीरों को हटा देता है ,तो कभी ऋतुयें इस काम को अपनी सहज मंथर गति से कर देती हैं । बस यही लगता है कि उनका जीवन - चक्र अनदेखा या कहूँ अवांछित बना रह कर ही सम्पूर्ण हो गया । 

एक दूसरी सोच भी दिल - दिमाग को झकझोर कर राह रोकती सी है - - - - - अगर वो मंजीर न झरे होते और सब अपना पोषण पा सकते तो उस पेड़ पर पत्तियों से अधिक फल लगे होते । हाँ ! ये भी हो सकता है कि वो मंजीर टिकोरे बन कर भी तेज हवा के झोंकों का सामना करने में असमर्थ हो झर जाते ,पर तब भी कुछ साँसें तो वो भी ले लेते ! 

एक स्वार्थी सी सोच भी जग जाती है कि अगर सारी मंजीरें अपना क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण यौवन प्राप्त कर भी लेती तो उस बिचारे वृक्ष का क्या होता ? क्या वो उनका तेज या ये कहूँ उनका भार सह पाता ? शायद उन परिपक्व फलों के भार का वहन  करने में असमर्थ हो उसकी डालियाँ टूट जातीं ! परन्तु सिर्फ उन डालियों का अस्तित्व बना रहे इसके लिए उन मासूम से मंजीरों को असमय काल - कवलित होने की सजा दी जाये !
                                                                                                                 -निवेदिता