हाँ ! मानती हूं
मैं हूं बस
एक टुकडा
उस बर्फ़ का
जिस पर शव भी
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी
और इन्तज़ार में भी
पिघलती जाती है
कोई आये और
कोई आये और
डाले सागर में उसे
मेरी तो प्रकृति है
मेरी तो प्रकृति है
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर
खुद की लाश पर
पिघल जाऊँ
या ......
या ......
किसी सागर में
पहुँच छलक जाऊं
मेरे लिये तो कहीं
मेरे लिये तो कहीं
कोई अन्तर नहीं
मुझसे छुप जाए
मुझसे छुप जाए
किसी की सड़न
या ....
कम हो कड़वाहट
या फिर पा सके
या फिर पा सके
मन की शीतलता....
- निवेदिता
जवाब देंहटाएंसिर्फ इंतज़ार में नहीं पिघलती,
प्रेम की गर्माहट भी तो पिघलाती है बर्फ....
सस्नेह
अनु
पिघलना ही है , प्रेम की धूप से पिघले या आग से.खूबसूरत बिम्ब.
जवाब देंहटाएंऔर इन्तज़ार में भी
जवाब देंहटाएंपिघलती जाती है
कोई आये और
डाले सागर में उसे
मेरी तो प्रकृति है
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर
पिघल जाऊँ=================बहुत सुन्दर पंक्तिया
परहित सरस धरम नहीं भाई ,
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन के लिए हार्दिक बधाई। मेरे ब्लॉगपर आपका स्वागत है...........
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना | आभार |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
बहुत सुन्दर भाव समेटे कविता |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (26-04-2013) जय जय श्री हनुमान : चर्चा मंच १२२६ में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका !!!
हटाएंबर्फ का टुकड़ा पिघल कर नदियों को प्लावित रखता है...सागर में तो सबको जा मिल जाना ही है।
जवाब देंहटाएंहाँ ! मानती हूं
जवाब देंहटाएंमैं हूं बस
एक टुकडा
उस बर्फ़ का
जिस पर शव भी
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी
पिघलती जाती है
इन्तजार....
सुन्दर अभिव्यक्ति....
सादर..
बहुत खुबसूरत अहसास
जवाब देंहटाएंhttp://guzarish6688.blogspot.in/2013/04/blog-post_25.html
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंक्या कहने
मेरी तो प्रकृति है
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर
पिघल जाऊँ
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
आभार आपका !!!
हटाएंपिघल जाती हूँ मैं बर्फ की मानिंद
जवाब देंहटाएंक़तरा क़तरा
इश्क़ में तपिश भी तो कम नहीं होती।
हाँ ! मानती हूं
मैं हूं बस
एक टुकडा
उस बर्फ़ का
जिस पर शव भी
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी--------
जिन्दा रहने का सच
प्रेम को जीवित रखने का सच
गहन अनुभूति का सच
अदभुत
बधाई मन को भेदती रचना हेतु
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
बहुत ही उम्दा , एक बेहतरीन बिम्ब चुना आपने
जवाब देंहटाएंsundar...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति
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