शनिवार, 22 मार्च 2014

कमलकलिका का प्रस्फुटन .......



                                          मेरे आँखों की  
                                                  तैरती नमी में
                                                        चमक सी गयी 
                                                              तुम्हारी छवि                                                                                                                            कमलकलिका का 
                                                                           प्रस्फुटन यही तो है !

                                        ओस की बूँदें 
                                               कमलदल पर 
                                                      मेरी रगों में 
                                                             सूर्य किरण सी 
                                                                     खिलती चपला 
                                                                             अवगुंठन हटा 
                                                                                    यादों की बदली की !


                                        स्मित मेरे लबों की 
                                              आती - जाती रहती है 
                                                       पर हाँ ! नयन मेरे 
                                                                सदैव मुस्कराते हैं 
                                                                       अरे ! इनमें ही तो 
                                                                               सपनों सा तुम 
                                                                                     बरबस सजे रहते हो !
                                                                                                                 - निवेदिता 

गुरुवार, 20 मार्च 2014

संवेदना की वेदना

अभी कुछ दिनों पहले हमारे घर में सफाई का काम करने वाली ,बड़े ही उदास मन से काम कर रही थी,कारण पूछने पर उस की व्यथा  पीड़ित कर गयी  … उसकी पांच साल की अबोध बच्ची अपने ही चाचा के वहशीपन का शिकार होते - होते बची ,जब उसने अपने पति से ये बात कही तो उसने इसको अपने परिवार की बदनामी होने का डर बता अनदेखा करने को कहा ,पर वो बच्ची हर पल अभी भी उसी डर और दहशत के माहौल में घुट रही है  ..... 

एक मन है मेरे पास भी 
जो संवेदनशील है 
इसीलिये वेदना भी 
अनुभव होती है 
तुम्हारा देखना देता है 
एक एहसास सुरक्षा का 
और जैसे ही बदलती हैं 
तुम्हारे निगाहें ,चुभ जाती है 
अस्थिर कर जाती हैं 
तन ही नहीं मन को भी 
जो धागे बांधे थे मैंने तुम्हारी कलाई पर 
एक आस थी एक विश्वास था 
और थी दुआ तुम्हारी सुख - समृद्धि की 
कैसे कहूँ ,उन धागों से ही तो बुनी थी 
अपने माथे को ढँकने को सतरंगी चूनर 
तुम्हारे ही हाथ कैसे बढ़ आये खींचने को 
वो मासूम से नाज़ुक से रेशे 
जो धड़कते थे और सींचते थे 
हमारे नेह के फ़ाख़ताई बंधन को 
ये कौन सा पल आता है जब 
आशीष देते हाथों की नरमाई बदल 
पैमाइश करने लगती है बदन के ताने - बाने की 
हे प्रभु ! अगर तू सच में कहीं है 
बस एक ही काम कर 
या तो मुझसे ये संवेदना की वेदना ले ले 
या फिर उन हाथों की हर पल बदलती मनोवृत्ति को थाम ले 
मैं भी विश्वास कर सकूँ और जी सकूँ  …....... निवेदिता 

सोमवार, 17 मार्च 2014

आज का अनुभव .... एक प्यारा सा एहसास


पिछले वर्ष ११ जुलाई दीदी ,मेरी जिठानी ,के देहावसान की वजह से ,हमारे रोज के काम ही किसी प्रकार बस एक खानापूरी की तरह होते हैं , तो किसी भी पर्व को उत्सवित करने का तो प्रश्न ही नहीं था  .... वो तो हर पर्व ,विशेषकर होली को तो बहुत ही अधिक जोश से मनाती थीं  .... कल से मन उनके साथ बिताई हुई होली की यादों में लुकाछिपी सी खेल रहा था  .... इस उदासी के ही किसी पल में मेरी एक सहेली का फोन आया ये पूछने को कि आज मैं क्या कर रही हूँ  ,मैंने भी अनमना सा जवाब दे दिया कि कुछ नहीं और अपने को दूसरे कामों में उलझा लिया  .... थोड़ी ही देर बाद हमारे घर की घंटी बजी तो मैंने पतिदेव को कहा ," देखिये कोई आपका ही मित्र होगा "  .... गेट खुलने के साथ ही अपने नाम की पुकार सुनी  तो  थोड़ा  आश्चर्य हुआ मेरी सभी सखियाँ खड़ी थीं  .... जब मैंने कहा कि इस वर्ष तो हम कोई भी पर्व नहीं मना रही हैं ,तो उनका उत्तर मेरी पलकें भिगो गया  .... उन्होंने कहा कि हम इसीलिये सबसे पहले तुम्हारे घर आये हैं और हम भी कोई त्यौहार नहीं मना रहा हैं बस तुम्हारी मंगलकामना करने आये हैं ,हमारा साथ सिर्फ सुख का ही नहीं दुःख को भी बाँट कर हल्का करने का भी है  .... साथ में आयीं एक बुज़ुर्ग सी आंटी ,जो मुझको अपनी बेटी मानती हैं , ने एक टीका अबीर का मेरे माथे पर लगा दिया और कहा ,"तुम्हारे मन की उदासी तो समय और ईश्वर ही कम कर पायेगा ,पर ये टीका तुम्हारे उतरे हुए चेहरे पर कुछ तो रंग लाएगा "  .... 

अपनी इन सखियों के जाते ही ,जैसे ही मैं अपने घर के अंदर आने लगी कि एक और समूह मेरी कुछ और सखियों का भी आ गया  .... सबके माथे पर सिर्फ एक टीका लगा था अबीर का ,उन्होंने भी मुझे एक टीका लगाया और कहा कि ये टीका किसी भी पर्व का नहीं अपितु सिर्फ शुभके भाव का है  …. उनकी बातों से मैं इतनी अभिभूत हो गयी कि मैंने भी उनसे ही अबीर ले कर उनके माथे पर भी टीका सजा दिया और अनुरोध किया कि वो लोग होली के पर्व को अपने घरों में जरूर मनाएं  .... 

इन दोनों अनुभवों के बाद से मन इतना भरा - भरा सा है कि लग रहा अपने अनजाने में ही हम कितने प्यारे और अनमोल रिश्ते बना लेते हैं जो हमारे मन की उदासी को अपने मन से बाँटना चाहते हैं  .... 

आज इन दोनों बातों से एक बहुत बड़ी सीख भी मिली ,कि किसी के दुःख भरे लम्हे कम करने के लिए सिर्फ उसको अकेला छोड़ना ही हर बार पर्याप्त नहीं होता बल्कि साथ में भी कुछ बोलते हुए पल भी बिताना चाहिए                                                                                                               …. निवेदिता 

रविवार, 9 मार्च 2014

अटके हुए लम्हे ……




ये वक्त भी न  …… 
बड़ी ही अजीब सी शै है 
जब तक चलता रहता है 
सच ! कुछ पता नहीं लगने देता 
जब कभी ,कहीं भूले से भी 
एक नन्हे से लम्हे को भी 
अपने कदमों को थाम लेता है 
अगले पल ही दम घोटती साँसे 
जतला जाती हैं महत्ता 
आगे और आगे बस उस अनदेखे से देखे 
बदलते और बढ़ते जाते अनजाने समय की 

ये वक्त का थमना भी 
लगता है जैसे तुमने साथ चलते हुए
अपनी राहें बदल ली हों 
और मैं बेबस सी ठिठकी 
हटा रहीं हूँ बिना घिरे हुए बादलों को 
इन बिनबरसे बादलों की बूँदे 
बड़े ही दुलार से जैसे सहेज ली हो 
मैंने अपनी ही पलकों तले 
और हाँ  …… 
तलाश रही हूँ अर्थ उस लम्हे का 
जब तुमने अपने बढ़ते हुए कदमों को रोक 
जतला दिया था मान अपने साथ चलने का 
बताओ उदासी का भी कोई कारण होता है क्या .... निवेदिता