मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

ख़्वाब .....






ख़्वाब ....
कभी मुंदी
और कभी खुली
पलकों से भी
सांस - सांस जिए जाते हैं

ख़्वाब .....
कभी साँसों में
और कभी
दिलों में भी
सहज ही पलते पनपते हैं

ख़्वाब .....
फ़क़त यूँ ही
देखते ही नहीं
धडकनों में भी
सुने और सहेजे जाते हैं

ख़्वाब .....
हरदम सिर्फ
ख़्वाब ही नहीं होते
ज़िन्दगी की
रेशा - रेशा हक़ीकत भी होते हैं
                           - निवेदिता 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

वो एक लम्हा कुंती के जीवन का ........



कुंती का नाम आते ही मुझे उसके जीवन का बस एक लम्हा याद आ जाता है जो अजीब सी वेदना भरी घुटन दे जाता है और उस लम्हे में कुंती एक आम सी स्त्री लगती है .....

कर्ण के जन्म के बाद ( यहाँ मैं चर्चा  बिलकुल  नहीं करूंगी कि किन परिस्थितियों में कर्ण का जन्म हुआ , उन घटनाओं की किसी भी  ऐतिहासिकता  अथवा  किवदंतियों  के विषय में बिलकुल भी नहीं ) , जब एक राजपुत्री की तथाकथित मर्यादा निबाहने के लिए , कुंती को कर्ण का परित्याग करना पड़ा ........ सिर्फ इस एक पल ने ही कुंती के  सम्पूर्ण जीवन को एक डगमगाती लहर बना दिया ...... मैं तो उस लम्हे के बारे में सोच कर भी संत्रस्त हो जाती हूँ कि कैसे  एक  माँ  ने अपने ही हाथों , अपनी आत्मा के , अपने शरीर के अंश को उन विक्षिप्त लहरों के हवाले किया होगा ....... कई पुस्तकों में पढ़ा  तो  मैंने  भी है कि उस   टोकरेनुमा नाव को बेहद  सुविधाजनक और सुरक्षित  बनाया  गया था साथ  ही उसमें इतनी प्रचुर मात्रा में धन भी रखा दिया गया था जिससे उस शिशु के पालन - पोषण में ,उसको पाने वाले को असुविधा न हो ...... परन्तु क्या कोई भी सुविधा इतनी सुविधाजनक हो सकती है जो माँ के अंचल की ऊष्मा दे सकती है ..... जिस  पल कुंती के स्पर्श की परिधि से वह नौका विलग हुई होगी ,कुंती ने अपने राजपुत्री होने का दंश अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर अनुभव किया होगा .....

पाण्डु से विवाह के बाद भी , जब कुंती ने अपने अन्य पुत्रों को जन्म भी उसी तथाकथित दैवीय अनुकंपा द्वारा ही दिया होगा , तब भी कर्ण अस्पृश्य ही रहा ...... सम्भवत: इस बार कुंती ने एक राजवधु होने का धर्म निभाया होगा ...... 

कर्ण को उसकी अपनी पहचान मिलने का मूल कारण महाभारत का युद्ध ही था ...... बेशक इस युद्ध ने अनेकों वीर योद्धाओं का और कई राज - वंश , का समूल विनाश कर दिया , पर कर्ण को "एक दानवीर योद्धा कर्ण" के रूप में पहचान भी दे गया ....

अगर ये व्यथित करने वाला लम्हा ,  कुंती  के  जीवन   में  न  आया  होता तो   सम्भवत : वह विवाह  के बाद हस्तिनापुर की उलझी हुई परिस्थितियों को अपेक्षाकृत अधिक संतुलित कर सकती थी । कुंती   ने अपने जीवन की हर सांस एक अपराधबोध के साथ ली ... पहले तो कर्ण को अपनी पहचान न दे सकने की और बाद में शेष पाण्डवों के जीवन के अभय वरदान के फलस्वरूप कर्ण के जीवन के लिए अनेकानेक  प्रश्नचिन्ह बना देने के लिए ..... काश वो अनचाहा सा लम्हा  कुंती के  जीवन में न आता और अगर उस लम्हे को आना ही था तो कुंती  को एक राजकन्या एवं राजवधू नहीं होना था ......
                                                                  - निवेदिता 

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

अमृत बरसाती करवा चौथ की रात !!!



हाँ ! बस
सजने ही वाली है
बड़े इंतज़ार से भरी
सलोने से चाँद की
अरमानों भरी वो करवा चौथ की रात !

वो सजे हुए करवे
चार दिशाओं का
भान कराती सींके
मांडे चौक पर अमृत बरसाती रात !

सतरंगी सजी चूड़ियाँ
मेहंदी से रची हथेलियाँ
कलाइयों और हथेलियों में
मनभावन रंग भरी आशीष सी रात !

वो नथ ,वो माँग का टीका
बाजूबंद - करधनी - कंगना
सहेजती अंगूठी की छुवन सी
पायल की रुमझुम गुनगुनाती रात !

 ख़ुश्क होते इन लबों से
अंतर्मन तक तृप्त मन के
रेशमी साड़ी की छुवन सी
सुहाग की चमक भरी चूनर की रात !

सबसे बड़ी ,सबसे प्यारी
आशाओं उम्मीदों भरी
जन्मों के रिश्तों के नाज़ुक से
एहसास सहेजती करवा चौथ की रात !!!
                                      - निवेदिता 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

" चूड़ी " .....


" चूड़ी " ..... इसके बारे में सोचते ही सबसे पहले एक मीठी सी आवाज़ " खन्न " की गूँज जाती है और इसके बाद तो इतने ढेर सारे रंग निगाहों में लहरा जाते हैं ,और वो भी ऐसे सतरंगी कि हर रंग मन में बस जाए .....

इस चूड़ी पर गाने भी तो कितने सारे और कितने प्यारे लिखे गये हैं ....... बोले चूड़ियाँ बोले कंगना ..... चूड़ी नहीं मेरा दिल है ...... चूड़ी मजा न देगी ..... गोरी हैं कलाइयाँ , पहना दे मुझे हरी - हरी चूड़ियाँ ......

हर समुदाय विशेष में इन चूड़ियों के बारे में धारणाएं भी अलग - अलग हैं ....... बंगाली समुदाय शंख की बनी हुई लाल और सफेद रंग की चूड़ियों को विशेष शुभ मानता है , तो पंजाबी समुदाय में लाह अथवा लाख की बनी चूड़ियों को ...... कांच की बनी चूड़ियाँ तो लगभग सभी पह्नते हैं ...... सिंधी और पंजाबी समुदाय में सिर्फ सोने की चूड़ियाँ भी पहनी जाती हैं , जबकि अन्य लोग सिर्फ सोने की चूड़ियाँ पहनना अशुभ मानते हैं , वो सोने के साथ कांच की चूड़ियाँ जरुर पहनते हैं .....

चूड़ी की धातु के साथ ही उसके रंगों का भी अलग - अलग परिवारों में रंगों की भी अपनी ही परम्परा होती है ...... अधिकतर लाल रंग को प्रमुखता देतें हैं ,पर कुछ सतरंगी को ( शायद इसके पीछे कारण यही रहा होगा कि साल भर विवाह वाली चूड़ियाँ ही पहनी जाती हैं ,तो सतरंगी चूड़ियाँ हर तरह के वस्त्रों पर अच्छी लगती हैं ) ....... कुछ परिवार काले रंग की चूड़ी को लाल रंग की चूड़ियों के साथ विवाह में वधु को दिये जाने वाले उपहार के साथ भेजना शुभ मानते हैं .....


चूड़ियों को पहनते समय उनकी संख्या का भी विशेष महत्व होता है ....... विवाहपूर्व कितनी भी संख्या में चूड़ियाँ पहन लें कोई कुछ नहीं कहता ,पर विवाहोपरांत तो याद दिलाया जाता है कि चूड़ी पहनते अथवा खरीदते समय संख्या विषम होनी चाहिए ,अर्थात एक कलाई में दूसरी कलाई से एक चूड़ी अधिक पहनते हैं ,इस चूड़ी को " आसीस " अथवा " सुहाग " की चूड़ी भी कहते हैं और  दुकानदार इसके पैसे भी नहीं लेते हैं ......सम्भवत: चूड़ियों की संख्या विषम रखने का कारण यही हो सकता है कि सम संख्यायें तो आपस में कट जायेंगी परन्तु विषम संख्या में एक ,जिसे सब सुहाग अथवा असीस की चूड़ी कहते हैं वो सुरक्षित रहेगी ......

अब तो सुविधा की दृष्टी से चूड़ियों के स्थान पर कांच के कड़े अधिक पहने जाते हैं और सोने के कड़े तो बस बैंक के लाकर की शोभा बढाने के लिए ही लिए जाते हैं .........

एक गीत हो जाए चूड़ियों के लिए जो मुझे बहुत प्रिय है .....
http://www.youtube.com/watch?v=pBP_9EwivkY
                                 -निवेदिता 

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

चलिए रावण को जलाने लायक बन लें ......

परिवर्तन प्रकृति का नियम है ,पर हम सब हैं कि उसी घिसी - पिटी लकीर को हर वर्ष तरोताज़ा करते रहतें हैं । अब देखिये हर वर्ष हम रावण का पुतला बनाते हैं और उसको जला कर विजयादशमी मनाने की परिपाटी का पालन कर लेते हैं । इस वर्ष मुझे लगता है कि रावण भी हर बार जलने के लिए बन - बन कर ऊब गया होगा , तो चलिए इस वर्ष रावण के बारे में सोचने के पहले अपने बारे में भी सोचते हैं कि हम अपने बारे में सोचते हैं कि हम स्वयं को इस योग्य बना लें कि हम रावण को ,उसकी सभी बुराइयों के साथ जला सकें । अब अग्नि से अग्नि को तो हम जला नहीं सकते , उसके लिए तो हमें पानी का ही प्रयोग करना होगा । बड़ी आसान सी बात है कि अब इस वर्ष हम रावण की बुराइयों की दाह से बचाने के लिए कम से कम कुछ तो अच्छी सोच को अपने व्यक्तित्व का अंग बना लें । बहुत ही आसान से छोटे - छोटे बदलाव लाने होंगे ........ सबसे पहले तो प्रतिक्रिया देने में शीघ्रता न दिखाएँ । प्रत्येक व्यक्ति में कुछ तो विवेक होता ही है और वो अपने विवेक के अनुसार ही अपनी सोच बनाता है । अगर उसकी सोच हमें न पसंद आ , हो तब भी उस के विवेक को सम्मान देते हुए अपनी अरुचि दिखाएँ ....... जो सम्मान  स्वयम के लिए चाहते हैं वही दूसरे को भी दें ....... दूसरों की विवशता को अपनी शक्ति अथवा सामर्थ्य न समझें ........ ऐसी ही कुछ छोटी - छोटी बातों से शुरुआत तो की ही जा सकती है , इसके आगे तो अपने आप को हम खुद ही जानते हैं कि कहाँ क्या सुधार लाया जा सकता है ....... पर हाँ ! एक बात जो अनिवार्य रूप से करनी चाहिए ,ऐसा मुझे तो लगता ही है , परिणाम की प्रवाह किये बिना ही गलत का विरोध और सप्रयास दमन करना चाहिए ........ अगर हम स्वयं को ईमानदारी से रावण को जलाने लायक बना लें तो यकीन मानिए अगले वर्ष हमको प्रतीकात्मक रूप से भी रावण को जलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी .........
                                                              - निवेदिता

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

ज़िन्दगी





                                         बिखरे पन्नों के हर शब्द में ,
                                                     झलक दिखाती संवारती है ज़िन्दगी
                                         हवाओं की सरगोशियों में भी ,
                                                     दरस दिखा ज़िंदा रखती है ज़िन्दगी
                                        अतीत भी कहाँ व्यतीत हुआ ,
                                                     हर लम्हा है जीती अपनी ज़िन्दगी
                                        आँसुओं की मुक्तामाला बिखेर ,
                                                      जीने के अंदाज़ सिखाती है ज़िन्दगी
                                                                                   - निवेदिता