मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

लघुकथा : सौगात

लघुकथा : सौगात

सुवर्णा शान्त भाव से घर को गुंजायमान करती अपने परिवार और मित्रों की आवाजें सुन रही है । सभी जैसे प्राण प्रण से एक दूसरे को सहयोग करते हुए उसके षष्ठिपूर्ति उत्सव को सफल बनाने के लिये प्रयासरत हैं । सच उसको बहुत अच्छा लग रहा था कि इतने समय बाद पूरा परिवार इकट्ठा हुआ है ।

दिन की पूजा के बाद ,शाम की पार्टी की तैयारी के लिये कर्मचारियों को निर्देश दे कर सब उस के पास आ गये और अपने - अपने उपहार उसको दिखाने लग गये । आखिर कल सुबह ही तो सब वापस जानेवाले थे । वह भी बच्चों में बच्चा बनी उनकी लायी हुई चीजों को देख कर तारीफ भी करती जा रही थी । पर मन कुछ खोया - खोया सा लग रहा था ।

उसकी छुटकू सी पोती इरा ने उसके गले में हाथ लपेटते पूछ पड़ी ,"दादी माँ ! आपको ये सब उपहार नहीं पसन्द आये न ... छोड़िये इन लोगों को आप मुझे बताइये कि आपको क्या चाहिए मैं लाऊँगी न ... "

सब उसकी बात सुन कर हँस पड़े ,परन्तु उन्होंने इरा को गोद में दुलराते हुए डबडबा गयी आँखों से कहा ,"आज तक सबने मुझको बहुत सारे उपहार दिये ,परन्तु सब अपनी ही पसन्द के ले आते रहे । मुझसे किसी ने भी मेरी पसन्द पूछा ही नहीं ... जानती है इरु मुझको कभी भी ये सब चीजें नहीं चाहिए थीं । मुझको तो सबका सिर्फ थोड़ा सा समय चाहिए था । जानती हूँ ,सब बहुत व्यस्त रहते हैं अपने काम और जीवन में ,पर एक फोन ... वो भी चन्द लम्हों का ,जिसमें उनकी आवाज सुनाई दे जाये ... औरर कोई खास बात नहीं बस यह एहसास चाहिए था कि उनके जीवन में मेरी भी जरूरत है । "

       ..... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 29 दिसंबर 2019

एक चुप्पी ....



जब मैं मर जाऊँ
रुक जायेंगी मेरी साँसे
पलकें भी पलक भरना
भूल ,मुंद ही जाएंगी
और दिल ....
वो तो बेचारा
अनकहे जज़्बात छुपाने में
धड़कना भूल ही जायेगा
और घर .....
घर को तो आदत सी है
मुझे चुप एकदम चुप
निस्पंद निर्जीव देखने की
बस एक ही बात मानना
मुझे शोर बिल्कुल नहीं भाता
मेरी अंतिम निद्रा न टूटे
किसी की झूठी सिसकी
या यादों की बातों से
सबसे बस यही कहना
एक चुप्पी चुपचाप चली गयी
    ...  निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

लघुकथा : निशान अँगूठी का

लघुकथा : निशान अँगूठी का

क्यों उदास बैठी हो ...
कुछ नहीं माँ ...
अब तो वह रिश्ता टूट गया जिसने तुमको तोड़ दिया था ,फिर क्यों परेशान हो ?
माँ अंगूठी तो उतार दी ,पर अंगूठी के  इस निशान का क्या करूँ ...

.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 15 दिसंबर 2019

लघुकथा : सन्तुलन धड़कनों का


लघुकथा :  सन्तुलन धड़कनों का

दिल अपनी ही तरंग में झूमता अपनी मनमर्जी कर रहा था ... कभी बिना बात ही गुनगुना कर थिरकने लगता ,तो कभी रहस्यमयी चुप्पी ओढ़ लेता । अपने किसी भी काम के बारे में न तो उसको करने के पहले सोचता था ,और न ही बाद में ।

दिमाग दिल की इन हरकतों से बहुत परेशान हो जाता । अक्सर वह दिल को दिमाग की ( अपनी ) समझाइश की परिधि में लाने का प्रयास करता ... परन्तु परिणाम तो वही ढ़ाक के तीन पात सा होता ।

दिल और दिमाग की इस रस्साकशी में धड़कनें बेकाबू होने लगती । अपनी हाँफती साँसों को सम्हालने का प्रयास करते उन दोनों को समझाने का प्रयास करती थी ,परन्तु  ...

दिल दिमाग की बात न मानते हुए अपने दर्द की अनदेखी करते हुए ,प्रत्येक प्रकार की मनमर्जियाँ करता हुआ दर्द के चरम पर पहुँच गया था । दिमाग ने एक बार फिर दिल को समझाते हुए अनुशासन की लगाम बड़ी ही मजबूती से अपने हाथों  में थाम ली थी ,परन्तु इस कठोरता से दिल बेचैन होने लगा और उसकी धड़कन डूबती सी लगी ।

दिल और दिमाग के इस द्वन्द में धड़कनों की हलचल डूबने सी लगीं ,मानो वह कह रही हों ,"काश .... काश तुम दोनों ने एक - दूसरे की बातों और क्षमताओं को समझ कर तालमेल बैठा लिया होता ,तब मुझको इस तरह से दम घुटने की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती ... ।"
                .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

लघुकथा : प्रयोपवेशन

लघुकथा : प्रयोपवेशन

सामने अग्नि का विशाल सागर निर्बन्ध हो सब कुछ निगल जाने को जैसे उमड़ा चला आ रहा हो । अग्नि की दहक इतनी दूर से भी अपनी तीक्ष्णता का पूरा अनुभव करा रही है ।

पसीने की बहती अनवरत धार को पोंछते हुए विदुर जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति भी चंचल हो उठा ,"भैया - भाभी अब भी समय है ,चलिये यहाँ से निकल चलते हैं ।कुछ ही देर में अग्नि इतना विकराल रूप ले लेगी कि फिर हम चाह कर भी नहीं निकल पाएंगे ।"

हताश से धृतराष्ट्र बोल पड़े ,"नहीं अनुज अब मैं थक गया हूँ। मेरे अंदर का दावानल इतना विकराल हो गया है कि इस दावानल की दाहकता कुछ अनुभव ही नहीं हो रही है । अगर तुम जाना चाहो तो निःसंकोच चले जाओ ,साथ में कुंती को भी ले जाओ ।"

विदुर अपनी स्थितिप्रज्ञता से उबर चुके थे ,"सही कहा भैया आपने । आपके अंतर्मन की दाहकता ने आपको विवेकशून्य सा कर दिया है । आप ने तो अपनी संतति की गलतियों को अनदेखा कर के हस्तिनापुर में ही प्रयोपवेशन करता सा जीवन जीया है । आप निराशा के अंधकार में ही जीते रहे और अंत भी वैसा ही चाहते हैं ।पर मैं ... हाँ भैया मैंने पूरा जीवन सकारात्मक सृजन में ही लगाया है । मैं अब भी हार नहीं मान सकता । मैं जा रहा हूँ नव सृष्टि के सृजन के लिये ।"
       ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

हाइकु

हाइकु

मुरलीधर
रचाओ महारास
वृन्दा पुकारे

प्रिय हों संग
मनभाये संसार
आयी बहार

राधा मगन
बंसी बाजे मधुर
चाहे नर्तन

गाये पायल
सुध - बुध बिसरी
खिली मंजरी

मुदित मन
सजती मधुशाला
रीता है प्याला

साथ तुम्हारा
खिलाये इंद्रधनुष
इतराऊँ मैं
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

लघुकथा : इंक्वायरी

लघुकथा : इंक्वायरी

प्रभास उलझन में इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था, जैसे किसी उलझन में फंसा हो और निर्णय नहीं ले पा रहा हो । विभु उसकी पीड़ा से व्यथित होती उसको देख  रही थी । दोनों ही अनिर्णय के भँवर में फँसे छटपटा रहे थे ।

"विभु ! तुम क्या कहती हो ... मुझे क्या करना चाहिए ,क्योंकि मेरे किसी भी निर्णय का असर सिर्फ मुझ पर ही नहीं बल्कि पूरे परिवार पर और खासतौर से तुम पर भी होगा । "

"प्रभास ! बहुत समय सोचने में गंवा चुके हैं हम सब । अब तो निर्णय लेने का समय है । कहीं ऐसा न हो कि हम सोचते ही रह जायें और देर हो जाये । काम सही हो तब भी ,कभी राजनीतिक विवशता तो कभी सामाजिक तनाव बता कर ,सस्पेंशन और इंक्वायरी तो चलती ही रहती है । अंतरात्मा की आवाज पर किये गये सही काम के लिये सब मंजूर है । उस बेबस बच्ची की तड़प भी जो नहीं देख पाये ,उसका अन्त होना ही चाहिए ।"

"सही कह रही हो विभु ! अभी तक दरिन्दे यही समझते थे कि जला कर खत्म कर दो तो वो साक्ष्य के अभाव में बच जायेंगे ... पर शायद अब किसी के दामन को पकड़ने से पहले इस एनकाउंटर को याद कर रुक जायेंगे ।"

संविधान के दोनों रक्षक समझ रहे थे इलाज से जरूरी बचाव है जो अपराधियों में दहशत पैदा कर के ही सम्भव है ।
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

लघुकथा : अभाव


लघुकथा : अभाव

वो सहमी सी ,अपने घुटनों में अपना चेहरा छुपाये बैठी ,बरसती आँखों से जमीन को देख रही थी ... मानो उसके देखने से ही जमीन दो टुकड़ों में विभक्त हो कर वैदेही की तरह अपनी गोद में छुपा लेगी । पर नाम वैदेही होने पर भी तो प्रकृति उस पर सदय नहीं हो रही थी ।सब तरफ से आती आवाजों से वह बिंध रही थी ...

जरूर इसी ने पहल की होगी ...

अरे नहीं ,इसने कुछ नाजायज मांग की होगी और पूरी न होने पर उसको बदनाम कर रही है ...

देखो इसको शरम भी नहीं आ रही है ,कैसे सबके सामने सब बोले जा रही है ...

वैदेही की पीड़ा चीत्कार कर उठी ," मुझे नोंचने के बाद उन कुत्तों ने मुझे जला दिया होता या फन्दे में लटका कर मार दिया होता ... या फिर किसी गाड़ी से फेंक कर अधमरा कर दिया होता ,तब ... हाँ ! तब आप सबकी सम्वेदना जागती ... मोमबत्तियाँ और पोस्टर भी तभी निकलते ... जिन्दा हूँ मैं परन्तु मेरी आत्मा तो मर ही चुकी है । पीड़ा मुझे भी उतनी ही हो रही है ... बल्कि उससे कहीं ज्यादा ... क्योंकि मैं जिन्दा हूँ ,साँस भरते तुम सब मुर्दों के सामने ... जानते हो क्यों ... क्योंकि तुम सब में चेतना का अभाव है ।"
      .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"