गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

एक टुकडा बर्फ़ का .......


हाँ ! मानती हूं 
मैं हूं बस 
एक टुकडा 
उस बर्फ़ का 
जिस पर शव भी 
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी 
पिघलती जाती है
कोई आये और 
डाले सागर में उसे
मेरी तो प्रकृति है 
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर 
पिघल जाऊँ
या ......
किसी सागर में  
पहुँच छलक जाऊं
मेरे लिये तो कहीं 
कोई अन्तर नहीं
मुझसे छुप जाए 
किसी की सड़न 
या ....
कम हो कड़वाहट
या फिर पा सके 
मन की शीतलता....
                    - निवेदिता 

18 टिप्‍पणियां:


  1. सिर्फ इंतज़ार में नहीं पिघलती,
    प्रेम की गर्माहट भी तो पिघलाती है बर्फ....

    सस्नेह
    अनु

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  2. पिघलना ही है , प्रेम की धूप से पिघले या आग से.खूबसूरत बिम्ब.

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  3. और इन्तज़ार में भी
    पिघलती जाती है
    कोई आये और
    डाले सागर में उसे
    मेरी तो प्रकृति है
    बस पिघलते जाना
    खुद की लाश पर
    पिघल जाऊँ=================बहुत सुन्दर पंक्तिया

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  4. उम्दा लेखन के लिए हार्दिक बधाई। मेरे ब्लॉगपर आपका स्वागत है...........

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  5. बहुत सुन्दर रचना | आभार |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  6. बर्फ का टुकड़ा पिघल कर नदियों को प्लावित रखता है...सागर में तो सबको जा मिल जाना ही है।

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  7. हाँ ! मानती हूं
    मैं हूं बस
    एक टुकडा
    उस बर्फ़ का
    जिस पर शव भी
    रखा जाता है
    और इन्तज़ार में भी
    पिघलती जाती है
    इन्तजार....
    सुन्दर अभिव्यक्ति....
    सादर..

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  8. बहुत खुबसूरत अहसास
    http://guzarish6688.blogspot.in/2013/04/blog-post_25.html

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  9. बहुत सुंदर रचना
    क्या कहने

    मेरी तो प्रकृति है
    बस पिघलते जाना
    खुद की लाश पर
    पिघल जाऊँ

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  10. पिघल जाती हूँ मैं बर्फ की मानिंद
    क़तरा क़तरा
    इश्क़ में तपिश भी तो कम नहीं होती।

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  11. हाँ ! मानती हूं
    मैं हूं बस
    एक टुकडा
    उस बर्फ़ का
    जिस पर शव भी
    रखा जाता है
    और इन्तज़ार में भी--------

    जिन्दा रहने का सच
    प्रेम को जीवित रखने का सच
    गहन अनुभूति का सच
    अदभुत
    बधाई मन को भेदती रचना हेतु

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों


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  12. बहुत ही उम्दा , एक बेहतरीन बिम्ब चुना आपने

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