मेरी यादों के पाँव तले
तुम्हारे वादों के कंटक
जब - तब चुभ जाते हैं
और मैं
सिहर सी जाती हूँ
तड़क भी जाती हूँ
मिटटी सा बिखर भी जाती हूँ
बादल सा बरस भी जाती हूँ
नन्हे बीज सा चिटक भी जाती हूँ
तभी जैसे पलकें खिल जाती हैं
हां ! मिटटी सा बिखर जाती हूँ
पर इस बिखरने में ही उर्वरा हो जाती हूँ
बादलों की बारिश से ही तो
जीवन की नमी मिल जाती है
बीज की चिटकन ही तो
वृक्ष की विशालता छुपाये रखती है
जब - जब बिखरूँगी - टूटूँगी - चटकूंगी
कुछ सृजन कर ही जाउंगी .... निवेदिता
वाह......यानि कुछ नया देकर ही जाउंगी....
जवाब देंहटाएंवाकई.......
जवाब देंहटाएंस्त्रीत्व की गरिमा और हौसले को परिभाषित करती कविता । खूब बढ़िया
वाह! यही तो करती आई है आज तक हर स्त्री।भावपूण अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-11-2015) को "अब भगवान भी दौरे पर" (चर्चा अंक 2152) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
साहित्यकारों का असल सृजन तो आखिर टूटकर ही होता है। सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंयूँ ही होते रहे नवसृजन
जवाब देंहटाएंक्या बात है !.....बेहद खूबसूरत रचना....
जवाब देंहटाएंआप को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@आओ देखें मुहब्बत का सपना(एक प्यार भरा नगमा)
नयी पोस्ट@धीरे-धीरे से
वाह, बेहद खूबसूरत रचना की प्रस्तुति।
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