मंगलवार, 25 जुलाई 2023

अपने सपने बच्चों के कन्धे


बच्चे के जन्म लेने से मिली खुशी के सपनीले झोंको से सम्हलते ही, मन स्वयं को ही झूला बना कर कितनी पेंगे भरने लगता है कि अपने हॄदयांश के लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उनके लिए आसमान के सितारों को भी तोड़ लाने का हौसला रखते हुए सोचने लगते हैं कि उनकी कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहने देंगे। बस इसी क्रम में अपनी कुछ अनावश्यक सी अपूर्ण इच्छाओं की याद आ ही जाती है और हम सोचने लगते हैं कि उन को भी बच्चों से ही पूरा करवाएंगे।

इस सारे सिलसिले में बच्चों के नन्हे कन्धों पर दो बोझ डाल देते हैं, जिसमें से एक की चर्चा बोल के कर देते हैं तो दूसरी दिल की तहों में छुपा कर। हर माता पिता की पहली इच्छा यही होती है कि अन्तिम यात्रा उन बच्चों के कन्धों पर ही हो और दूसरी होती है कि हम अपनी ज़िन्दगी में जो भी नहीं कर पाए, वो सब हमारे बच्चे कर गुजरें। बस सारी गड़बड़ यहीं से प्रारंभ हो जाती है और नन्हे कन्धे बड़े हो कर भी बेताल सरीखा बोझ तले दबे रह जाते हैं।

बच्चे के किसी कलात्मक अभिरुचि एवं ईश्वरीय देन से सम्पन्न होने पर भी माता पिता उनको डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि कोई उच्च पदस्थ अधिकारी बना हुआ ही देखना चाहते हैं चाहें इस प्रक्रिया में बच्चे घुटन अनुभव करें या फिर तरक्की न कर कर पाएं, पर उनको अपने अभिभावकों की चाहतों को पूरा करना ही पड़ता है। जीवनसाथी में जिन गुणों की चाहत उनको होती है अथवा हो सकती है, उससे सर्वथा विपरीत साथी के साथ जीवन बिताना पड़ता है क्योंकि वो उनके अभिभावकों की चाहत होती / होते हैं और वो स्वयं सिर्फ़ अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के साधन।

माता पिता को यह समझना चाहिये कि जितना मुश्किल अपूर्ण इच्छाओं के  बोझ के साथ जीवन जीना कठिन है, उससे कहीं अधिक मुश्किल है कन्धों पर आभासी बोझ ले कर जीवन की चुनौतियों का सामना करना।

माता पिता को अपने अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन करते हुए भी बच्चों को अपने फैसले स्वयं उन बच्चों को ही करने देना चाहिए। वैसे भी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा मूलमंत्र यही है कि जियो और जीने दो।

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें