सोमवार, 24 जुलाई 2023

सती प्रथा क्या सच में बन्द हो गयी है

सती प्रथा के पक्ष और प्रतिपक्ष में, बचपन से ही सुनती और पढ़ती आ रही हूँ। तब इस के विषय में बहुत अधिक, या कह लूँ कि कुछ भी समझ नहीं आता था। बस एक विषय की तरह पढ़ा और परीक्षा में लिख कर फुर्सत पा लेते थे। परन्तु जब समझ में आया कि यह कृत्य कितना अमानवीय है, तब यह सोच कर ही काँप उठती थी। एक जीवित और स्वस्थ स्त्री को सिर्फ़ इसलिए ही जला देना होगा कि उसके पति की मृत्यु हो गई है ... यह मृत्यु भी कभी बीमारी की वजह से तो कभी उम्र की वजह से भी होती थी। उस दौर के अधिक आयु के अन्तर वाले बेमेल विवाह में कभी-कभी पत्नी अबोध बालिका भी होती थी तो पति उम्र के चौथेपन में!


उस दौर में जब सती प्रथा के बन्द होने के बारे में जाना तो कहीं न कहीं एक सुकून मिला कि अब विधवा स्त्री को भी अपनी ज़िन्दगी जीने का अधिकार होगा परन्तु ... इस परन्तु ने फिर से प्रश्न उठाया कि क्या सिर्फ़ पति के साथ, उसकी चिता में उसकी विधवा पत्नी को जलाये न जाने से ही क्या उस स्त्री को जीवन जीने का अधिकार मिलने लगा?

दुःख की बात है कि सती प्रथा नाम के लिए बन्द हो गयी है परन्तु अपना रूप बदल कर प्रत्येक पल विधवा स्त्री को जलाती रही है। यह बदला हुआ रूप कभी परम्पराओं के नाम पर बहुत ही सहज चीजों / बातों से वंचित करने लगा तो कभी आश्रय देने के नाम पर शारीरिक शोषण भी करवाता रहा।

समय के साथ जब शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो परिस्थितियाँ थोड़ी सुधरी परन्तु जिसको मानसिक दिवालियापन कहने का मन करता है, ने उनके वैधव्य को उनके उन बुरे कर्मों का परिणाम बता कर दंशित किया जो उनके इस जन्म के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों का परिणाम बताया।

आज की तकनीकी क्रान्ति के युग में भी, बेशक पति की चिता की लपटों में उसकी पत्नी को दैहिक रूप से बेशक नहीं जलाया जाता है, परन्तु प्रतिपल उसको दाहक दंशो के दावानल में जल कर के सती होने को विवश किया जाता है।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

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