शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लघुकथा : सैनिटाइज़

लघुकथा : सैनिटाइज़

वसुधा बहुत बेचैन थी । उसके शरीर पर जगह - जगह छाले उभर गये थे ,जिनसे उठने वाली टीस ,वसुधा के हलक से कराह बन कर सिसक उठती थी । जब वह अपने केशों को देखती ,तब वह बिलख उठती थी । उसके घने केशों को कैसे काट दिया गया था और सजावटी ब्रोच लगा दिए गए थे ,पर वो ब्रोच उसको चोट पहुँचाते खरोंच से भर देते थे । निर्मल नयन भी अपनी निर्मलता खो कर धूमिल हो चले थे ।

जब उससे पीड़ा नहीं सही गयी ,तब वो बिलख कर कातर स्वर में गगन को पुकार उठी ,"ओ मित्र ! मेरी इस पीड़ा को शमित करो न ।"

गगन व्यथित मन से बोल उठा ,"वसुधा ! तुम्हारी सहायता करने कोई और नहीं आएगा । तुम स्वावलम्बी बन अपना उपचार स्वयं करो । कभी करवट ले कर तो कभी गर्मी बढाकर सेंक लें कर । कभी छालों को ठण्डा करने के लिये शीतलहर भी बहाना होगा । देखना सब बेचैन हो कर तुमको कोसेंगे भी ,परन्तु तुम बिलकुल भी विचलित मत होना । "

वसुधा भी विचारमग्न हो कह पड़ी ,"हाँ ! मुझे प्रकृति को भी तो खुद को सैनिटाइज करना चाहिए  ... फिर कुछ तो  बैक्टीरिया छटपटाहट में मेरी भी पीड़ा समझ कर सम्हल जाएंगे ।"
                                            ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2020) को     शब्द-सृजन-18 'किनारा' (चर्चा अंक-3683)    पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपने तो बहुत ही गहरी बात कह दी भाभी माँ । बहुत कमाल की लघुकथा ।

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