शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

" सुख - दुख की धूप - छांव "

      हम सब ये जानते हैं और मानते भी हैं कि  सुख और दुःख धूप-छांव की 
तरह आते जाते रहते हैं | इनमें से कोई भी पल स्थायी नहीं है | परन्तु हमें 
दुख भरे पल बेहद लम्बे प्रतीत होते हैं , जब कि  वो उतने बड़े  होते नहीं है |
दरअसल हमारी मनोवृत्ति  कुछ ऐसी है कि अपना दुःख ब्रम्हांड  में  सबसे
कष्टकारी और असहनीय लगता है | संभवत: यहाँ पर ही हमसे गलती होती 
है | हम अपने दुखों के बारे में इतना अधिक सोचने लगते हैं कि सुख भरे लम्हों को ,जो हमने भरपूर जिया है  ,एकदम ही नकार देते हैं | सच्चाई तो 
ये है कि खुशियों भरे पल ९० से ९५ प्रतिशत होते हैं ,जो ५ से १० प्रतिशत 
दुःख भरे पलों के नीचे दब जाते हैं |
       इन भारी लगते  लम्हों को प्रमुखता दे कर हम खुद से ही शत्रुता करते 
हैं | कभी सोच कर देखिये जब भी  हमारा मन उदास होता  है , हमारा मन किसी  काम में  नहीं लगता है , चाहे वो काम हमारा कितना भी मनपसंद
क्यों न हो | उदास लम्हे  मस्तिष्क की तन्त्रिकाओं को संकुचित कर  देते 
हैं जिससे शरीर की सामान्य क्रियाए प्रभावित होती हैं |जब  हम  तनाव में 
रहते हैं तो वो चहरे पर भी दिखने लगता है  और फिर आतंरिक अंगों  पर      
भी असर आ जाता है | 
       इन लम्हों को अधिक महत्ता देने के  सबसे घातक परिणामस्वरूप खुद को असहाय मानता हुआ व्यक्ति अकेला पड़ता जाता है | ऐसे में जहाँ उस को 
सहानुभूति मिलती है , आकर्षित होने  लगता  है और  कभी - कभी  गलत 
परिस्थितियों में भी पड़ जाता है | 
        इन सब से बचने के लिए ,हमें सुखद पलों को याद कर के  दुखद पलों 
का सामना करना चाहिए , अन्यथा दुखद  यादें  हमारे मस्तिष्क को बर्बाद 
कर देगीं और हम तरह - तरह की बीमारियों का शिकार हो जायेगें |

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभु की माया...कहीं धूप कहीं छाया.... आपने बिलकुल सही कहा धुप छाँव दोनों साथ ही चलते हैं

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  2. बहुत सही कहा आपने.हमारे सुख के पल थोड़े से दुःख भरे पलों के नीचे दब जाते हैं.आवश्यकता इस बात की है हम दुःख को अपने ऊपर हावी न होने दें.

    सादर

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