सोमवार, 2 जनवरी 2023

लघुकथा : बंजर

 लघुकथा : बंजर

लहराती इठलाती हुई सरिता अपने उद्गम से मदमाती गति में प्रवहमान स्मित बरसाती चली जा रही थी। अब उसको अपना प्रवाह मंद से, मंथर गति में परिवर्तित होता लगने लगा था। बीच-बीच में वह कनखियों से भाँपने का भी प्रयास करती थी कि किसी को उसके उद्गम स्रोत का पता तो नहीं चल गया है!

अपने प्रबल आवेग में बहती हुई, किनारे बसे तटों को देखती और उनकी हरीतिमा को अपनी ही उपलब्धि मान उच्च स्वर में अट्टहास करती। वह मार्ग के अवरोधों को युक्तियों से हटाती हुई, अपने ही एक किनारे को व्यर्थ मानती हुई, दूसरे किनारे की तरफ़ बढ़ती गयी। वो नादान भूले बैठी थी कि निःसन्देह किनारा बदल दिया हो उसने, परन्तु रूप बदल कर दूसरा किनारा, उसकी सीमा दिखाता सा साथ ही चल रहा था।

बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप वह किनारा, जिसको श्रेष्ठ मान वह मुड़ती जा रही थी, भी उसकी शोर मचाती लहरों में दम घुटता सा अनुभव करता, ऊब कर उसकी तरफ़ बाँध बनाने लगा था। बाँध की मजबूती और ऊँचाई का अनुमान नहीं लगा पाने के फलस्वरूप कुछ समय तो वह अकारण ही उस पर अपनी लहरों  से दस्तक देती रही। अनसुना रह जाने पर उसने छूटे हुए किनारे को वापस पकड़ना चाहा, परन्तु अब उस किनारे और सरिता की लहरों के बीच रुक्ष पड़े वीरान तट की दूरी आ गयी थी ... वह तट अपने दामन में पनप आये दलदल पर अपना अस्तित्व बनाने के लिए प्रयासरत था और सरिता कुछ अपने में ही सिमटती हुई नये किनारे की तलाश में आगे बहने का प्रयास कर रही थी।
सच! ये अवहेलना की बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!
#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी
#लखनऊ

4 टिप्‍पणियां:

  1. अवहेलना की बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!
    बहुत कुछ कह गई ये पंक्तियाँ निवेदिताजी। अर्थपूर्ण लघुकथा।

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  2. गहरे भाव लिए है आपकी यह लघु कथा दी आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर वापस लौटना हुआ है। आशा है संवाद बना रहेगा दी आप भी आइये ब्लॉग पर फिर लौटते हैं अपनी इस दुनिया में जहां से चले थे कभी...

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