कब मिलोगे ...
पूरे चाँद की चमकती रात अंधेरी लगती है ,
अकसर ख़ामोश सी पूछती है कब मिलोगे !
बिखरी अलकों से पूछती अधखुली पलकें
तुम्ही बताओ ऐ स्वप्न सच बन कब मिलोगे !
मुझसे दूर जाती नामालूम से लम्हों की कतारें ,
ठिठकती अटकती सी पूछती है कब मिलोगे !
दूर जाते क़दमों की सुनती हूँ जब कोई आहट ,
धड़कना छोड़ कराहती पूछती है कब मिलोगे !
मोती बनने की चाहत में स्वाति नक्षत्र खोजती ,
सीप में समाती हर बून्द पूछती है कब मिलोगे !
कहते हो तुम भोले का महानिवास (श्मशान) मुझे भाता ,
पता है कहीं मिलो न मिलो वहाँ जरूर मिलोगे !
यादों की मंजूषा छुपाये कितना शांत है साग़र
सिसकती लहरों से 'निवी' पूछती हैं कब मिलोगे !
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
मिल लेंगे... :)
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (०८-०८-२०२०) को 'मन का मोल'(चर्चा अंक-३७८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....,सादर नमन
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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