*पहाड़ भी मरते हैं*
आप गए तब सोचती रह गयी
एक चट्टान ही तो दरकी रिश्तों की
अब देखती हूँ
वो सिर्फ एक चट्टान नहीं थी
वो तो एक सिलसिला सा बन गया
दरकती ढहती चट्टानों का
आप का होना नहीं था
सिर्फ एक दृढ़ चट्टान का होना
आप तो थे एक मेड़ की तरह
बाँधे रखा था छोटी बड़ी चट्टानों को
नहीं ये भी नहीं ....
आप का होना था
एक बाँध सरीखा
आड़ी तिरछी शांत चंचल फुहारों को
समेट कर दिशा दे दशा निर्धारित करते
उर्जवित करते निष्प्राण विचारों को
एक चट्टान के हटते ही
बिखर गया दुष्कर पहाड़
मैं बस यही कहती रह गयी
सच मैं देखती रह गयी
पहाड़ को भी यूँ टूक टूक मरते ... निवेदिता
आप गए तब सोचती रह गयी
एक चट्टान ही तो दरकी रिश्तों की
अब देखती हूँ
वो सिर्फ एक चट्टान नहीं थी
वो तो एक सिलसिला सा बन गया
दरकती ढहती चट्टानों का
आप का होना नहीं था
सिर्फ एक दृढ़ चट्टान का होना
आप तो थे एक मेड़ की तरह
बाँधे रखा था छोटी बड़ी चट्टानों को
नहीं ये भी नहीं ....
आप का होना था
एक बाँध सरीखा
आड़ी तिरछी शांत चंचल फुहारों को
समेट कर दिशा दे दशा निर्धारित करते
उर्जवित करते निष्प्राण विचारों को
एक चट्टान के हटते ही
बिखर गया दुष्कर पहाड़
मैं बस यही कहती रह गयी
सच मैं देखती रह गयी
पहाड़ को भी यूँ टूक टूक मरते ... निवेदिता
बहुत ही सुंदर रचना है शिखा और उससे भी गहरी भावनाएँ छिपी हैं उसके शब्द शब्द में.
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