सोमवार, 28 मार्च 2011

"तत्सम से तद्भव होते रिश्ते .."

             आज यूं ही बचपन में पढी हुई हिन्दी की व्याकरण याद आ गयी |उस समय ' तत्सम और  तद्भव ' बहुत उलझन डाल जाते थे |वैसे भी नियम का 
पालन नियम की तरह कर पाना अभी भी बहुत दुष्कर  लगता है |नियम तो 
जैसे उस विषय का रस गायब कर बोझिल और नीरस बना देते हैं | मैंने इस 
समस्या का समाधान अपने तरीके से खोज निकाला  था | 'तत्सम' को  तो समझा किसी शब्द का संस्कृतनिष्ठ शुद्ध रूप और'तद्भव' को मैंने मान लिया 
कि तब वो ऐसा हो गया ,अपनी बाल-बुद्धि के अनुकूल संधि- विच्छेद कर के
अपने तर्कों के आधार पर |परिवार में सबसे छोटी होने  का  फ़ायदा उठा कर सब को मानने पर भी मजबूर किया और खुश हो ली |सबसे ज्यादा खुशी तो तब हुई ,जब हिन्दी विषय के रूप में छूट गयी और अब मैं बिना किसी बंधन 
के हिन्दी की हर तरह की पुस्तक का आनंद लेने लगी |
         कुछ समय बाद जब रिश्तों का ताना-बाना समेटने और सुलझाने का 
अवसर आया तो तत्सम और तद्भव की अपनी बनायी परिभाषा हर लम्हे पर 
याद आ जाती है |कोइ भी रिश्ता जब जुड़ना शुरू होता है,तब सब कुछअच्छा
ही नहीं सबसे अच्छा होता है क्योंकि वो हमारा चुनाव होता है और हम तो कुछ गलत कर ही नहीं सकते |असल दिक्कत तो तब आनी शुरू हो जाती है 
जब वो सच हो कर आपसे जुड़ जाता है | भई सच कहूं तो अपनी पास की नज़र तो कुछ ज्यादा अच्छी है तमाम कमियां ही कमियां दिखाई देती हैं और अच्छे-भले सम्बंधों का बंटाधार हो जाता और श्रीमान तद्भव जी पूरे 
परिदृश्य पर कब्जा किये विराजमान हो जाते हैं | संस्कृतनिष्ठ और पूरे के 
पूरे समाज द्वारा स्वीकृत निर्मल रिश्ते 'तद्भव' जैसे बदले रूप को पा लेते हैं |
          कपडे सिलने के लिए काटते समय दोनों पल्लों को थोड़ा छोटा-बड़ा 
कर के काटते हैं |ऐसे अगर दोनों सामान धरातल पर आ जायें तो देखने में 
आँखों को पूरा खोलना पड़ता है और ऐसा करने में आँखों को थोड़ा कष्ट तो होता ही है |अगर नीचे देखना हो तो ज़रा सा आँख खोल कर काम चल जाता है अर्थात अपनी सुविधाओं के घेरे में मनमाफिक जितना और जो चाहे हम देख लेते हैं | परन्तु अगर सम्बंधों की एक मजबूत इमारत बनाने हो तो उस के सारे पाए बराबर होने चाहिए |समता के लिए खूबियाँ और खामियां दोनों 
ही देखना चाहिए क्योंकि पूरी तरह अयोग्य होने की योग्यता , मुझे नहीं लगता है किसी में भी होगी |सम्बंधों को तो एक इमारत की तरह सुदृढ़ होना 
ही चाहिए ,न कि कपड़ों की तरह अल्पजीवी ! 
          अकसर मन तो यही करता है ,एक वरदान जैसे कोई कारीगर कहीं से 
अनायास ही प्रगट हो जाए और आज के दौर के बिगड़ते और बदलते रिश्तों की गरिमा को रीफिटिंग के द्वारा सुधार जाए |
                                                                -निवेदिता 

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही गहन चिंतन प्रस्तुत किया है आपने.

    सादर

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  2. सम्बन्धों की नींव में न जाने कितना प्रेम डालना पड़ता है, तब कहीं जाकर सम्बन्ध आधार देते हैं।

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  3. सम्बंधो को बनाना और बिगाडना तो अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम किस रिश्ते को कितना महत्व देते है।
    आपने बहुत अच्छा चिन्तन किया ।
    आभार

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  4. सम्बंधों की एक मजबूत इमारत बनाने हो तो उस के सारे पाए बराबर होने चाहिए ... anytha kab kahan dher ho, kaun jane !

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  5. आदरणीय निवेदिता जी
    नमस्कार !
    .......अच्छा चिन्तन किया ।

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  6. ' तत्सम और तद्भव '... रिश्तों को बड़ी बारीकी से व्याख्यायित किया है आपने।

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  7. शब्दों से शब्द जोड़कर बढ़िया लेख...

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