सोमवार, 7 मार्च 2011

लकडी की छीलन सी ................

लकड़ी की छीलन सी, 
परत हटाती जाती ज़िंदगी !
नया रंग-रूप पाने में 
कभी रंदे की, 
कभी आरी की ,
धार सहती जाती ज़िंदगी !
नए आकार को 
सम्हाल पाने में ,
हथौड़े की ठोकर 
सहती जाती बेचारी ज़िंदगी !!!
                               निवेदिता 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कविता
    सच जिन्दगी मे पता नही क्या क्या सहन करना पडता है

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  2. "..हथौड़े की ठोकर
    सहती जाती बेचारी ज़िंदगी"

    यही तो यथार्थ है.

    सादर

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  3. कहीं टिके रहने के लिये जड़वत होती और कील के नीचे ठोकी जाती जिन्दगी।

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  4. आप सबका आभार ।
    प्रवीण भाई , आपने तो मेरी कविता पूरी कर दी ।शुक्रिया ।

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