देख रही मैं सपन अनोखे
आ पहुँची प्रिय प्रणय की बेला!निशा भोर की गैल चली है
तारों ने तब घूँघट खोला।
मन्द समीर उड़ाये अंचल
रश्मि किरण का मन है डोला।
पागल मन हो जाता विह्वल
रोज सजाता जीवन मेला !
माया में मन भटक रहा है
पल-पल करता जीवन बीता।
अनसुलझी परतों के भीतर
जीवन का हर घट है रीता।
अंत समय जब लेने आया
मन फिर से हो गया अकेला !
बन्द नयन वह खोल रहा है
सच जीवन का बतलाने को।
रिश्ते-नाते तोल रहा है
उलझी गाँठें सुलझाने को।
रहा अकेला चला अकेला
मन सा सूना बचा तबेला !
✍️निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ