मंगलवार, 14 मई 2019

लघुकथा : जिंदगी की चाय

लघुकथा : जिंदगी की चाय

चाय इतनी बेस्वाद सी क्यों लग रही है ...
कब से बैठी यही सोच रही हूँ कि चाय पत्ती ,चीनी ,दूध ,अदरख सब तो उसी अनुपात में ही डाला था ,फिर क्या हो गया ! इतना बेस्वाद तो न था अपना हाथ कभी । हमेशा यही सुना और पाया कि ये तो अपने अंदाज से ही सादे से पानी को भी स्वादिष्ट पेय बना देती है ।

अजीब उलझन है ये जिंदगी ... कभी सीधी पगडंडी तो कभी एकदम सरल दिखती पर रेत सी रपटीली ।अनायास भटकते मन को सप्रयास समेटने का प्रयास करती सी वो अल्बम के पन्ने पलटने लगी ...

पलटते पन्नों में जैसे समस्या का समाधान मिल गया ... दो कप चाय बनाने और साथ पीने की आदत थी और आज एक कप बनाई थी । चाय का स्वाद नहीं बदला था ,वो तो उस दूसरे कप की कमी को उसका अवचेतन अनुभव कर अनमना हो गया था ।

उसने खुद को जैसे जगा लिया था कि सर्दियों में अदरखवाली चाय पीती थी ,पर मौसम बदलते ही लेमनग्रास या इलायची चाय में जगह बना अदरख को विदा कर देते थे । ये भी तो मन के समय का बदलता मौसम ही है जो चाय का कप अकेला पड़ गया है । बिछड़े सभी बारी - बारी ,पर चाय तो तब भी बनी ही ... यही जीवन है ।

वो नयी ऊर्जा से भर जिंदगी के प्याले में नया स्वाद भरने चल दी ... निवेदिता

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-05-2019) को "आसन है अनमोल" (चर्चा अंक- 3335) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर दिल को छूती रचना।

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  3. बहुत बहुत सुंदर रचना सकारात्मकता भरते चलो।

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  4. वाह!!बहुत सुंदर । इसी का नाम जीवन है ।

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