गुरुवार, 17 जनवरी 2019

लघुकथा :पतंग और डोर

लघुकथा

पतंग और डोर

इधर से उधर ,मानों पूरे फर्श को रौंदते से अनिकेत बड़बड़ाये ही जा रहे हैं ," पता नहीं क्या समझती हो खुद को । हो क्या तुम कुछ भी तो नहीं है तुममें । हुंह एक हाउसवाइफ हो दिन भर आराम से पसरी रहती हो । अरे जब कोई मेरे बारे में कुछ उल्टा पुल्टा बोलता है तब अलग खड़ी रहती हो चुप लगाकर ,जैसे तुम मेरी कुछ हो ही नहीं । "

अन्विता ने बड़ी ही सहजता से नजरें मिलाते हुए कहा ,"ये जो तुम कह रहे हो न कि मैं तुम्हारी कोई नहीं ,तो इसको ही सच मान लो तुम ... शायद तब तुम चैन से रह पाओगे ,पर जानते हो ये जिसको तुम कोई नहीं कहते रहते हो न वो पतंग की उस डोर की तरह है जो पतंग को उसके कर्तव्य पथ से भटकने नहीं देती । दूर आसमान की ऊँचाइयों पर रंगबिरंगी पतंग ही दिखती है ,डोर तो तब दिखाई देती है जब पतंग कट कर हवा के थपेड़ों से लड़खड़ा कर नीचे आने लगती है । उस वक्त न तो चरखी दिखती है न ही उस पतंग को उड़ानेवाला व्यक्ति कहीं आसपास होता है । "

जैसे एक साँस भरती सी वो फिर बोल उठी ," हाँ मै अस्तित्वहीन सी लगती हूँ ,पर जानते हो पतंग आसमान में ऊँचाइयों पर हो या कट कर नीचे पड़ी हो ,पानी की एक बूँद भी उसको गला कर नष्ट कर देती है ,पर डोर तो मिट्टी में दबने के बाद भी निकल कर अपना आकार ले ही लेती है । हाँ उसको मनोबल तोड़नेवाली बातों के द्वारा काटा तो जा सकता है ,पर अब डोर ने अपनेआपको काँच लगा मांझा बनाना सीख लिया है ।"
                     .... निवेदिता

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-01-2019) को "सेमल ने ऋतुराज बुलाया" (चर्चा अंक-3221) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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