मंगलवार, 2 सितंबर 2025

देख रही मैं सपन अनोखे ...

 देख रही मैं सपन अनोखे

आ पहुँची प्रिय प्रणय की बेला!

निशा भोर की गैल चली है
तारों ने तब घूँघट खोला।
मन्द समीर उड़ाये अंचल
रश्मि किरण का मन है डोला।
पागल मन हो जाता विह्वल
रोज सजाता जीवन मेला !

माया में मन भटक रहा है
पल-पल करता जीवन बीता।
अनसुलझी परतों के भीतर
जीवन का हर घट है रीता।
अंत समय जब लेने आया
मन फिर से हो गया अकेला !

बन्द नयन वह खोल रहा है
सच जीवन का बतलाने को।
रिश्ते-नाते तोल रहा है
उलझी गाँठें सुलझाने को।
रहा अकेला चला अकेला
मन सा सूना बचा तबेला !
✍️निवेदिता श्रीवास्तव निवी
    लखनऊ

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 3 सितंबर 2025 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

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