सोमवार, 8 मार्च 2021

लघुकथा : #शंखनाद_कतरन_का



फ़ोन रख कर विधी सफ़ाई के छूटे हुए काम को ,फिर से पूरा करने में लग गयी थी ,परन्तु काकी के डाँटते हुए बोल अभी भी कानों में गूँज रहे थे ,"क्या बहू ! इतनी समय लगाती हो फ़ोन उठाने में ... कर क्या रही थी ... जानती तो हो कि इसी समय मैं इतनी फ़ुरसत पाती हूँ कि इत्मीनान से तुमसे बात कर सकूँ ,तब भी ... "


काम निपटा भी नहीं था कि फिर से फ़ोन की घण्टी ने बजते हुए अपने होने का अनुभव कराया । उधर से देवर जी बोल रहे थे , "भाभी कभी तो फ़ोन तुरन्त उठा लिया करो ... करती क्या रहती हो ?" आवाज़ की तुर्शी को अनदेखा करते हुए उसने बात की और फिर से शेष बचे कामों के गठ्ठर को खिसकाने का प्रयास करने में लगी ही थी कि दरवाज़े की घण्टी ,प्रशांत के आने की आहट देती बजने लगी ।


खुलते हुए दरवाज़े के सामने प्रशांत झल्लाया सा खड़ा था ,"क्या यार ! मैं रोज इसी समय तो आता हूँ ,फिर भी दरवाज़ा खोलने में इतना समय लगाती हो । अपना काम पहले खतम नहीं कर सकती हो क्या !"


थोड़ी देर में ही सब व्यवस्थित हो कर चाय नाश्ते का आनन्द ले रहे थे कि बेटा बोल पड़ा ,"वाह माँ ! आपने कतरनों से कितनी अच्छी डोर मैट बना दी है । सच आप तो बहुत बड़ी कलाकार हो ।"


सब समेट कर ,विधि पर्स ले बाहर निकलने को हुई तो सबकी प्रश्नभरी नज़रें उसकी तरफ ही टँगी हुई थीं । उसने स्मित बिखेरते हुए कहा ,"तुम लोग परेशान मत होओ ... मैं तो नया कपड़ा लेने जा रही हूँ ... अब कतरनों से मैं कुछ भी नहीं बनाऊँगी ... न तो कपड़े की और न ही समय की ।"

       ... निवेदिता श्रीवास्तव #निवी

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