कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी
बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी
डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी
पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी
अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी
हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता
पेट पीठ में उसके समायी थी
बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी
डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी
पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी
अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी
हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता
आपके शब्दों का चयन और प्रवाह इसे पठनीय बना रहा है | शानदार बन पड़ी हैं पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-08-2019) को "गीत बन जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3441) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'