कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी
बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी
डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी
पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी
अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी
हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता
सारा दर्द शब्दों में निचोड़ कर रख दिया आपने |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-08-2019) को "संवाद के बिना लघुकथा सम्भव है क्या" (चर्चा अंक- 3436) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'