शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

चंद साँसे ....

आज फिर से 
निखरती हवाओं ने 
साँसे भरी हैं 
कुछ नामालूम सी 
बिखरी पत्तियों ने 
यादों का द्वार 
फिर से खटखटाया है 
बढ़ते ठिठकते जाते 
कदमों ने जैसे 
एक हिचकी से ली है 
दूर जाते पलों को 
निहार कर संजो लिया 
उन उड़ते हुए 
पत्तों के रेशों पर 
पाँव पड़ जाने के डर से 
यादों की धड़कन ने 
साँसों को रोक 
रूखे -सूखे पत्तों की 
किरचों को 
चंद साँसे अता कर दी 
और मैंने 
बस पलकें मूँद कुछ साँसे 
सहेज ली हैं  …… निवेदिता 

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