गुरुवार, 22 सितंबर 2011

आज फिर कहीं इक तारा टूटा .......

               
             आज कुछ सवाल उन बच्चों से जो ज़िन्दगी के मुश्किल हालातों से इतनी जल्दी घबडा जाते हैं कि              आत्मघात जैसा कदम उठाने के सोच लेतें हैं .......



आज फिर कहीं इक तारा टूटा 
दूर कहीं गगन की छाँव में ,
या कहूँ फिर कहीं सपनें टूटे 
पलकों की छाँव से दूर जाके 
ये है क्या हमारी अपेक्षाओं के 
बोझ तले दबे कोमल कंधे 
या हमने कहीं कमी कर दी 
आत्मबल को थाम लेने में 
आओ पास बैठो हम बातें कर लें 
सुलझ जायेंगी तेरी हर उलझन 
इस देखे हुए जहाँ की उलझनों से 
घबरा कर तुम यूँ कहाँ भाग चले 
अगर वहाँ भी अटकी राह तब ...
सोच कर बतला दो किधर जाओगे 
संजोये रखा तुम्हे धडकन की तरह 
तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे 
हमारी आस तुम हर श्वास तुम 
हम साँसों के आने-जाने का बोझ
तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........
                           -निवेदिता 

25 टिप्‍पणियां:

  1. किस घटना से उद्वेलित हो फूटी है ये पंक्तिया ?

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  2. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति....

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  3. bolo... तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे

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  4. आओ पास बैठें बातें कर लें।बहुत खुब।
    अच्छी रचना।

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  5. जीवन बहुमूल्य है, यथासंभव बचा कर रखा जाये।

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  6. रचना में निहित संवेदना आत्मीयता से पाठक को अपने साथ एकाकार कर लेती है।

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  7. बहुत ही मार्मिक और एक अच्छा संदेश देती हुई कविता।

    सादर

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  8. हम साँसों के आने-जाने का बोझ
    तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........bhaut hi sundar abhivaykti....

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  9. काश संवाद कायम हो सके और ऐसे आत्मघाती कदम उठाने से बच जायें ।

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  10. हम साँसों के आने-जाने का बोझ
    तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे ....

    बहुत ही अच्‍छी रचना ।

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  11. मै कल वही था जहा की घटना ने आपको द्रवित होने के ये पंक्तियाँ लिखा दी . हमारी पूर्ण संवेदना है .

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  12. अपनी ही एक कविता में व्यक्त करूंगा अपनी टिप्पणी....
    बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
    आसमां की किस हद को छू पायेगा तू....
    आदमी के जाल से कब तक बच पायेगा तू.....
    बोल रे परिंदे....कहाँ जाएगा तू....
    तेरे घर तो अब दूर होने लगे हैं तुझसे
    शहर के बसेरे तो खोने लगे हैं तुझसे
    अब तो लोगों की जूठन भर ही खा पायेगा तू
    बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
    दिन भर चिचियाने की आवाजें आती थी सबको
    मीठी-मीठी बोली हर क्षण लुभाती थी सबको
    आदमी का संग-साथ कब भूल पायेगा तू....
    बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
    बस थोड़े से दिन हैं तेरे,अब वो भी गिन ले तू
    चंद साँसे बस बची हैं,जी भरके उनको चुन ले तू.
    फिर वापस इस धरती पर नहीं आ पायेगा तू....
    बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......

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  13. तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे ....
    बहुत बढ़िया और सामयिक चिंतन !
    शुभकामनायें !

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  14. एक तारा क्यों टूटा, क्यों बच्चे आत्मघाती कदम उठाते हैं उनके पेरेण्ट्स पर क्या गुजरती होगी। अपने इतनी अपेक्षाएँ क्यों की हैं उनसे कि वे अपने जीवन को ही दाँव पर लगा रहे हैं। बहुत गहरी पीड़ा है आपके पोस्ट में। बच्चे भी अपने जीवन में गरिमामय स्पेस चाहते हैं जैसे हम, हम इसे कब समझेंगे।

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  15. संवेदना से भरी रचना मन को आंदोलित कर गयी । धन्यवाद ।

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  16. यह एक त्रासदी है , परिवार और गुरुजन सही राह दिखा कर इन बच्चों में आत्मविस्वास जगायें ।
    कवि नीरज जी के शब्दों में-"कुछ सपनों के खो जाने से ,
    जीवन नहीं मरा करता है ।"

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  17. मन को आन्दोलित कर जाते विचार. सुंदर प्रस्तुति.

    बधाई.

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  18. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  19. Animesh Srivastava :apka best creation hai abhi tak ka...

    मेरे बड़े बेटे अनिमेष की ये टिप्पणी मेरे लिए "लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड" सी है .....

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