सोमवार, 26 दिसंबर 2016

माँ - पिता




माँ कदमों में ठहराव है देती 
पिता मन को नई उड़ान देते
माँ पथरीली राह  में दूब बनती
पिता से होकर धूप है थमती
माँ पहली आहट से हैं जानती
पिता की धड़कन आहट बनती
ये ठहराव ,ये उड़ान क्यों अटकती
हर आहट क्यों धड़कन सहमाती
अब न तो दूब है ,न ही धूप का साया
तलवों तले छाले हैं ,सर पर झुलसन
न ही कोई ओर है न ही कोई छोर
कितनी लम्बी लगती सांसों की डोर ...... निवेदिता

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016



पापा .... 
ये एक शब्द है 
या एक रिश्ता 
या सच कहूँ तो है 
मेरी आत्मा की 
दृढ़ता का प्रतीक
कभी दुलराया नहीं
जतलाया भी नहीं
पर जानती हूँ
मैं भी थी आपकी
अनबोली आस्था की
आपके विश्वास का
प्रतीक चिन्ह
मैंने भी कभी नहीं कहा
पर .....
जानते हैं
आपके आँखे मूँदते ही
मैंने अनुभव किया
चटक चांदनी में
झुलसाती लू के थपेड़े
आज बस एक ही बात
समझना जानना चाहती हूँ
ऐसी भी क्या जल्दी थी
यहाँ से जा कर
धूप का ताप सहलाने की .... निवेदिता

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

नींव का पत्थर





एक चुभन सी हुई 
सोचा अपने नाम की 

नामालूम सी 
अनदेखी ठोकरें खाती 
इक ईंट खिसका दूँ 
पर तभी अनायास ही
नजरें टिक गयीं
इमारत की बुलन्दी पर
और .....
कुछ खास नहीं
बस मैंने अपने हाथ हटा लिये
और नींव का पत्थर बन गयी ..... निवेदिता

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

लाडलों का प्यार .....




चाहतें भी कैसी कैसी 
साँसे लेती रहती हैं 
बताओ न अब 
बाँटना चाहती हैं 
अपने जीवन की 
अनबोली सी वजह
अपने लाडलों का प्यार .....
चाहतों में हलचल मची
ये बाँटना तो कभी नहीं है
चाहत है मिले लाडलों को
दुगना प्यार अपरम्पार

हमारा भी और ........ निवेदिता

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

तुम्हारा नाम लिख दिया ........



तुम्हारी पलकों तले 
कुछ सरगोशी सी हुई 
मोहब्बत  ...... 
धड़कनों ने भी तो 
भर ली हैं 
बस चन्द साँसे 
और हौले से पूछा 
ये क्या होती है 
और मैंने 
अपनी अलकों से 
बस  ..... 
तुम्हारा नाम लिख दिया  ........ निवेदिता 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

क्यों ....... सुनो .......



क्यों  ....... सुनो  ....... 
ये दो शब्द नहीं 
ये सात जन्मों के साथ के 
अनकहे दो द्वार हैं
मेरी क्यों कोई सवाल नही 
तुम्हारी सुनो कोई जवाब नही 
रूठने मनाने जैसा साथ हो 
बताओ न क्या यही साध है  ..... 

चौथ का चाँद पूजती हूँ 
पूर्णमासी का चाँद नही 
जानते हो क्यों  ..... 
ये अधूरापन भी तो 
सज जाता है चांदनी के श्रृंगार से 
मेरी क्यों भी तो पूरित होती है 
तुम्हारे सुनो की पुकार से  .... 

जानती हूँ  .... ये सफर जीवन का 
इतना सहज भी नही  .....  
इसीलिए तो साथ हमारा प्यार है 
कहीं किसी राह में लगी ठोकर 
लड़खड़ाते कदम भी संभल जाएंगे 
थामे एक दूजे के हाथ 
शून्य से क्षितिज पर आ ही जाएंगे  ..... निवेदिता 

बुधवार, 10 अगस्त 2016

ये छतरी है मेरे दुलार की .....



मुश्किलों की बरसात में 
बेवजह किसी तकरार में
याद में ये बसाये रखना
ये छतरी है मेरे दुलार की
मुस्करा कर आ जाना ... निवेदिता

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

ये अंतिम सांस ....

अरे ! तुम आ गए 
पर अब क्यों आये 
अब इस सांसों के 
थमने की घड़ी में 
तुम्हारा आना भी 
बड़ा ही बेसबब है
सच अब यूँ आना
भी न थाम सकेगा
मेरी टूटती सांसों की
थरथराती सी डोर
हाँ ! चाहा था मैंने
तुम्हे पूरी चाहत से
अपने जीवन के हर
काले उजले पल में
तुम तो थे जीने की आस
चलो ... मुक्त करो मुझे
मुझे जीने दो मेरी
बस ,ये अंतिम सांस .... निवेदिता

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

मन बावरा भटक जाता है ......


हर कदम पर
ज़िन्दगी मुझसे
और मैं भी
ज़िन्दगी से
सवाल पूछ्तें हैं

इन सवालों के
जवाब तलाशती
राहें भी कहीं
अटक सा जाती हैं
नित नये सवालों की
उलझनें सुलझाती
और भी उलझती सी
मन के द्वार तक
दस्तक नहीं दे पातीं
एक अजीब सा
सवाल जगा जातीं हैं
हम वो सवाल भी
क्यों हैं पूछते ,
जिनके जवाब
हम देना नहीं चाहते
शायद सवाल तभी
जाग पातें हैं
जब जवाब देने का
ज्ञान कहीं सो जाता है
अनजानी-अनसुलझी
वादी में मन बावरा
भटक जाता है ......... निवेदिता
1

रविवार, 10 जुलाई 2016

10 / 07 / 16



बात में ही कोई बात होगी 
यूँ न साँसे अटक पाएंगी 
सवाल करती साँसे भी 
एक पल को ही सही 
कहीं अटकी तो कहीं 
भटक भी गईं होंगी 

मुझे देखो न अब क्या करूँ 
बड़ी ही ईमानदार से की थी  
एक कोशिश याद करने की 
कुरआन की वो आयतें 
पर तुम याद आ गये 
और  ....... 
मैं तो बस मर ही मिटी  ..... निवेदिता 

शनिवार, 18 जून 2016

चलो न आज केसर बना जाए .....







ये मन भी न बड़ा बावरा है 
बताओ न कैसी कैसी 
चित्र विचित्र सी चाहतो की 
पौध रोपता रहता है 
देखो न आज भी 
ये कैसी चाहत चाह रहा है 
कहता है  ... 
चलो न आज केसर बना जाए 
जब शुभकामना देनी हो 
या करना हो पूजित 
मुझे बस अपने माथे पर 
थोड़ी जगह दे सजा लेना 
और सुनो न  ..... 
कहीं आवष्यकता हो 
तुम्हे औषधि की 
बस याद से मुझे 
अपने में संजो लेना 
निर्विकार हो जाओगे 
अरे हाँ  ..... 
तनिक सी जगह दे देना 
अपने भोजन के थाल में 
देखना सुवास और स्वाद का 
कैसा अनमोल होगा वो संतुलन 
देखो न  ...... 
बस हर पल हर सांस 
प्रत्येक पग प्रत्येक डगर 
इस धरा से उस जहाँ तक 
रहना और रखना साथ मे  ..... निवेदिता 

गुरुवार, 2 जून 2016

2 / 6 / 16




रात के दामन में 
आसमान ने 
टाँके थे सितारे 
बरसती ओस ने 
धुंधली कर दी 
चमक सितारों की 
एक आस भी है 
एक प्यास भी 
सूर्य किरण की 
आये और चमक कर 
इंद्रधनुष खिल जाये  ...... निवेदिता 

रविवार, 29 मई 2016

जब तक तुम हो ......





आइना भी कितना दिलफरेब है 
ये तो बस चेहरा ही देखता है 
नज़रें मेरी तरस बरस कर
हर पल बस तुम्हे देखती हैं 
तुम दिख जाते हो न 
तभी तक ये आँखे देखती हैं 
पगला दिल धड़कना भूल जाता है 
निगाहों से जब तुम ओझल होते हो 
ये लब तो है मेरे पर देखो न 
हर पल बस नाम तुम्हारा ही लेते हैं 
सच है ये साँसे भी तभी आती हैं 
जब तुम कहीं आस पास होते है 
मनो या न मानो "बस यूँ ही" समझो 
जब तक तुम हो तभी तक मैं हूँ  .......... निवेदिता 

मंगलवार, 24 मई 2016

हाँ ! यहीं तो वो मुस्कान रहती थी ......



चाहती हूँ हर पल मुस्कराना 
न न ये कभी न सोचना 
मैं हो गयी हूँ बावली 
न ही ये सोच रही हूँ 
ये पल है अंतिम 
जी लूँ जी भर कर 
बस अचानक ही 
एक ख्याल बहक सा गया है 
क्या पता मेरी मुस्कराहट 
बन जाये कारण 
किसी और की मुस्कराने की 
काश ये स्वप्न सच हो जाये 
और मेरी मुस्कराहट ही 
मेरी पहचान बन जाये  
और चहलकदमी करते से 
कदम ठिठक कर थमें 
और कहें  ...... 
हाँ ! यहीं तो वो मुस्कान रहती थी ..... निवेदिता 

सोमवार, 16 मई 2016

तुझ जैसे लाडले हैं .......



तुझ जैसे  लाडले ,हैं  लाखों में एक 
मिलते  है जिसकी , नीयत हो नेक 

लड़खड़ाते डगमगाते चलना सिखाया 
थाम मेरी बाँहे  आगे बढ़ना सिखाया 

अंधियारे मेरे मन के झरोखे  सँवारे 
दिल में मेरे रौशन उम्मीदें जगायी 

पढ़ना सिखाया लिखना सिखाया 
पढ़ मेरे मन तुमने जीना सिखाया  ...... निवेदिता 


अबके बरस बरसात न बरसी ........




उफ़्फ़ अबके बरस बरसात न बरसी
इन आँखों से ये बारिश उधार ले लो
सूर्यमुखी से तुम न तपिश में झुलसो
मेरी दुआ के साये तले बसेरा कर लो
लड़खड़ाते हैं ये कदम तुम्हारे तो क्या
मेरे मन के विश्वास का सहारा ले लो
साँसे मेरी अब थमने को हैं तो क्या
अपनी यादों में ही जिंदगी मुझे दे दो .... निवेदिता

शनिवार, 14 मई 2016

छुम छन्नन्न छुम छन्नन्न ...........



कुछ लम्हे यूँ ही चुरा लूँ वक़्त से 
कभी साज़ से कभी आवाज़ से
कहीं रंगों सी रंगीन खिले चमक
कहीं बच्चों के खिलौनों सी हो
मासूम छुवन .......
तपती दुपहरी में अल्हण सी थिरक
झूमें लरजते बादलों की धड़कन
बादलों में खिले न खिले इंद्रधनुष
मन में कहीं कम न पड़े ये रसरंग
छुम छन्नन्न छुम छन्नन्न ..... निवेदिता

सोमवार, 2 मई 2016

ये रिश्ते ,ये जिंदगी ........



ये रिश्ते ,ये जिंदगी 
सच  .... 
कितने रंग दिखाते 
और हाँ !
कभी न कभी 
रंग भर के भी सिखाते हैं 
एक रिश्ता माँ पिता का 
पाया जन्म की 
पहली साँस से 
एक रिश्ता संतति का 
पाया उनके जन्म की 
पहली साँस से 
सच  ..... 
हर रिश्ते की 
अपनी सीमा है 
और अपनी ही गरिमा भी 
तब भी  .... 
कैसी तो चाहतें 
जन्म लेती हैं 
और 
तोड़ती भी है दम 
गलती कुछ तो 
अपनी इन चाहतों की भी होगी 
पहले रिश्ते को 
याद रखा 
एक आपदा संतुलन जैसे 
तो देखो न 
दूजे को माना 
अपने कभी आने वाले 
बुढ़ापे की लाठी  
शायद कुछ बातें सँवर जाती 
अधिक नहीं बस इतना सा कर पाते 
रिश्ते तो दोनों ही रहते 
बस अपनी इन दोनों ही 
चाहतों को बना लेते 
किस्मत उन 
अनमोल से रिश्तों की  ....... निवेदिता 

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

26 / 04 / 2016



सच कहा तुमने
बहुत सोचती हूँ
पर ये भी कभी 

सोच कर देखना
सोचती हूँ इतना
तभी तो अभी तक
धड़कनों ने
याद रखा है धड़कना
और हाँ !
याद रखना
ये जो मेरी सोच है
यही तो हूँ मैं
पूरी की पूरी
आत्मा तक
मैं .....
बताओ न
क्या कभी कर पाओगे
स्वीकार मुझको
जैसी हूँ मैं
वैसी ही मुझको ..... निवेदिता

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

नन्हे नन्हे से बिंदु ...... ????




अक्सर नन्हे नन्हे से सुई की नोक बराबर बिंदुओं को देख सोचती हूँ ,अगर इन बेतरतीब से बिखरे हुए बिंदुओं को एक सीधी साधी सी रेखा जैसे एक सामान्य से दिखते हुए क्रम में रख दूँ ,तब शायद इस ख्यालों के ट्रैफिक जाम से मुक्तमना हो मन कुछ सहज सा सोच समझ पायेगा  ..... पर अगले ही पल लगता है क्या बिखराव को ,इन बिंदुओं की एक सरल रेखा बनाना क्या सम्भव है  .... और हाँ !  तो  कि इस सब प्रक्रिया का प्रयोजन क्या है  .... इनका  अस्तित्व ,शायद इनके बिंदु बने रहने में ही है   ...... 

अगर ये समस्त बिंदु दिखने में एक सरल सी दिखने वाली रेखा में परिवर्तित हो भी जाएँ ,तब भी जब इनके स्वत्व को ,इनकी पहचान को ठोकर लगेगी तब आने वाला बिखराव शायद इनको एक बिंदु भी न रहने देगा और वो घुटन इस सूक्ष्मतम तत्व को भी शून्य में भटकने पर विवश कर देगी  ..... 

कभी कभी ये भी सोचती हूँ कि चुनाव के समय इन नन्हे से परावलम्बित दिखने वाले बिंदुओं को चुना ही क्यों जाता है  .... शायद आत्ममुग्धता की स्थिति होती होगी वो कि हम कितने सक्षम हैं कि इन बेकार से बिंदुओं को भी एक तथाकथित सफल ढाँचे में फिट कर दिया  .... पर कभी उन बिंदुओं से भी पूछ कर देखना चाहिए कि हमारे निर्मित ढाँचे में फिट बैठने के लिए उन्होंने भी तो अपने अस्तित्व पर होने वाली तराश या कहूँ नश्तर के तीखेपन को झेला ही है  .... हाँ उन्होंने अपने घावों की टपकन नहीं दिखने दी और हमारे कैसे भी ढाँचे में फिट हो गए ,इसके लिए उनके अस्तित्व को एक स्वीकार तो देना ही चाहिए  ..... 

रेखा ,बड़ी हो अथवा छोटी उसको ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसकी शुरुआत उस एक बिंदु से ही हुई है ,जिसको वो अनदेखा करता रहा है और उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े करता रहा है  .... निवेदिता 

रविवार, 17 अप्रैल 2016

पूर्ण विराम .....



" पूर्ण विराम "  ... ये ऐसा चिन्ह है जो वाक्य की पूर्णता को दर्शाता है  । लगता है शायद उस स्थान पर आकर सब कुछ समाप्त हो गया है । यदयपि उन्ही बातों को शब्दों के मायाजाल से सजा कर कुछ अलग - अलग रूप देकर अपने कथ्य को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास तब भी होता रहता है । 

एक सामान्य जीवन भी ऐसा ही होता है । जब हम छोटे होते हैं तब हमारे अभिभावक हमारी ऊँगली थाम कर हमको चलना सिखाते हैं - शिक्षा के द्वारा और अपने संस्कारों के भी द्वारा । अक्सर वो अपने अपूर्ण सपनों को हमारी पलकों में सजा हमारे जीवन का उद्देश्य बना देते हैं । हम भी सहज भाव से उनको अपना मान पूरे मनोबल से साकार करने में जुट जाते हैं । कभी अपने असफल रह जाने पर ,एक परंपरा की तरह ,उस सपने को अपनी संतति के पलकों तले रोप देते हैं ,और फिर जो हमने किया था वही हमारी अगली पीढ़ी करने लग जाती है । इस तरह से लगता है कि हम पूर्णविराम के बाद बारम्बार हम चेहरे बदल बदल कर भी वही कहते और करते रह जाते हैं  ..... 

वैसे यहाँ तक भी पूर्णविराम के बाद भी जीवन जीवित लगता है । जब अभीष्ट मिल जाता है ,तब उस पल वाकई जीवन पूर्णविराम को प्रतिबिम्बित करता लगता है । जैसे लगता है कि अब करने को कुछ बचा ही नहीं । जैसे एक नशे की मनःस्थिति में जीवन बीतता गया कि अभी बच्चों को शिक्षित करना है ,अभी संस्कार देने हैं ,अभी समाज से उनका परिचय कराना है और सबसे बढ़कर उनकी पहचान को दृढ़ता देना है । सीधे शब्दों में कहूँ तो बस ये लगता है कि उनके हर कदम पर और जब भी वो पलट कर पीछे देखें तो उनको एक आश्वस्ति का बल देना है कि वो अकेले नहीं है अपितु दिखे या न दिखे हम हमेशा उनके साथ हैं । 

इतना सब होने के बाद का पल ,लगता है जीवन के वाक्य पर पूर्णविराम लग जाता है । एक विचित्र सी मन:स्थिति होती है जैसे सब कुछ रीत गया और गागर खाली हो गई है । अब करने को कुछ बचा ही नहीं और जीवन शून्य हो गया है ,अब तो इस पर भी पूर्णविराम लग ही जाना चाहिए  ...... निवेदिता 

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

12 / 04 / 2016





ये चाहतें न  .... 
सच बड़ी ही अजीब होती हैं 
बेमुरव्वत सी कभी भी कहीं भी 
सरगोशियों में दामन थाम 
कदमों को उलझा देती है 
आज भी ,देखो न  .... 
कैसी अजीब सी चाहत 
पलकें अधमुंदी रखे 
जाने कैसे तो रंग बिखेर 
टकटकी लगाये है  .... 
उँगलियों की गुंजल बनाए 
देख रही है मुझको 
पता है क्या थामना चाहती है 
उस गुंजल में  .... 
जियादा कुछ नहीं बस एक छाता 
जो भरा हो सिर्फ और सिर्फ विश्वास से 
जानती हूँ ,ये छाता 
शायद  ...... 
बचा न पायेगा मुझको 
जिंदगी की कश्मकश भरी धूप से 
और न ही उम्मीदों की बारिश से 
पर  .....  तब भी  .... शायद  ..... 
नहीं  .... यकीनन  .... 
एक हौसला तो आ ही जायेगा 
जिंदगी की आँखों में आँखे डाल 
धड़कनों में साँस भर जी लेने का  ..... निवेदिता 

रविवार, 10 अप्रैल 2016

ये हँसी .......



कभी कभी 
ये हँसी 
उमगती है 
किलकती है 
बस एक 
झीनी सी
ओट दे जाने को
और आँसुओं को
ख़ुशी के जतलाने को
और हाँ
ये आँसू भी तो
बेसबब नही
इनसे ही तो
बढ़ जाता
नमक जिंदगी में ...... निवेदिता

सोमवार, 21 मार्च 2016

21 मार्च 2016 .....

कभी मना कर रूठ जाते है वो 
कभी यूँ भी रुठ कर मनाते है

जो हार जाये वो प्यार क्या 
तकरार न हो  इजहार क्या 

नजरों से  नजरें चुराते है वो 
यूँ ही दिल में बस जाते है वो 

न कुछ  हारते हैं ,न जीतते है 
प्यार ही प्यार में जिये जाते हैं  ..... निवेदिता 

बुधवार, 16 मार्च 2016

स्ट्रेस बतर्ज वैक्यूम ......

का ," सुनो तुम कुछ दिनों से स्ट्रेस्ड दिख रही हो  .... क्या हुआ  .... "
की ,"हम्म्म  .....  नहीं तो  .... "

कुछ दिनों बाद फिर से यही बातें  ..... 
का ," सुनो तुम अभी भी स्ट्रेस्ड दिख रही हो  .... क्या हुआ  .... "
की ,"हम्म्म  .....  नहीं तो  .... " 



शाम को ऑफिस से लौट कर चाय पीते हुए  ..... 
का ,"सुनो  .... एक बात बोलूँ  ... "
चाय के कप में बेमतलब सी चम्मच हिलाते हुए की ने का को देखा ,"अब क्या हुआ  .... "
का ,"मैं आज ऑफिस से लौटते हुए बाजार चला गया था  .... "
की आखों में बिना किसी प्रतिक्रिया लिये निरपेक्ष सी ,बस का को देखती है  ... 
का ,"मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूँ ,देखोगी  .... "
की निर्विकार सी ,"ह्म्म्म्म  ..... "
का हड़बड़ाया सा एक गेंद सी की की तरफ बढ़ाते हुए ,"ये लो  .... "
की ,"अब मैं इसका क्या करूंगी  .... मैं तो अब खेलती नही और बच्चे ,वो तो  ...... "
की का वाक्य अधूरा सा रह गया  ...... 
का ,थोड़ी सी उलझन में ," सुनो न ये स्ट्रेस बस्टर है  .... इसको तुम यूज़ करोगी तो तुमको बेहतर लगेगा  .... "
की शांत थी ," नहीं मुझे कोई स्ट्रेस नही है  .... "
का ," फिर तुम इतनी उदास सी  ..... "
की ,"नहीं मुझे कोई स्ट्रेस नही है ,बस वैक्यूम .... "
की चाय के कप किचेन में रख कर बालकनी में पक्षियों को तलाश रही है  .... 
और  ..... 
वो स्ट्रेस बस्टर का के हाथों में है  ..... निवेदिता 

मंगलवार, 15 मार्च 2016

नयन सरिता ....

आँसू और पलकों का 
ये कैसा भीगा सा नाता है 
एक बिखरने को बेताब 
तो दूजा समेटने को बेसब्र 
ये बेताबी और ये बेसब्री 
ये बिखराव और ये सिमटन
दिल की आती जाती साँसों सी
धड़कन को भी सहला जाती
आँसुओं का दिल लरजता
उनकी अजस्र धारा बुझा न दे
पलकों के चमकते दिए
पलकें थमकती है कहीं
राह थम न जाए और
सूख न जाए नयन सरिता .... निवेदिता

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

एक सुराख ......



बेसबब
यूँ ही सी
एक चाहत
ने सरगोशी की
आज
अपनी सारी
उलझनों
या कह लूँ
दुश्वारियों को
समेट कर
सहेज लेती हूँ
अपने ही
पोशाक की
दराजों (जेबों) में
बस तू इतनी ही
रहमत बरसाना
उन दराजों में
अपनी नियामत का
एक सुराख बना देना  ..... निवेदिता 

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

टीस जगाते शब्दों के घाव

शब्दों के दांत नहीं होते है
लेकिन शब्द जब काटते है
तो दर्द बहुत होता है 

और कभी कभी
न दिख पाने वाले घाव 

इतने गहरे हो जाते है कि
जीवन समाप्त हो जाता है
बस ये टीस जगाते 

घाव कभी नहीं भरते............ निवेदिता 

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

उदासी की क्लियरेंस सेल ......



रोज ही देखती हूँ
विज्ञापन
बाजारों में
लगी हुई सेल का 
कभी कपड़ों की
तो कभी बर्तन की ,
कभी मकान की
तो कभी दूकान की भी ,
कभी तंत्र - मंत्र की
तो कभी सौष्ठव बढ़ाने की ,
रोज ही तलाशती हूँ
काश  ....
कहीं दिख जाए
एक ऐसी भी सेल
जो बन  सके
अंतमन में बसेरा बनाये बैठी
उदासी की  क्लियरेंस सेल  ...... निवेदिता 

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

इन्द्रधनुष खिलने को है ......



आज मेरी पलकों के तले 
ये जो मद्धिम सी नमी है 
तुम्हारे सपनों की किरचें 
खुली आँखों में खनकती हैं 
शायद इन चमकते रंगों से 
तुमने  दोस्ती कर ली है 
पर इन रंगों की ये चमक 
मेरी आँखों में बसती है 
जब भी मेरी आँखों में 
यादों की नमी छलकती है 
बावरा मन सोचता है 
हाँ !  अब यहीं कहीं तो 
इन्द्रधनुष खिलने को है  .........  निवेदिता 





रविवार, 24 जनवरी 2016

हे सर्वशक्तिमान शक्ति !



हे सर्वशक्तिमान शक्ति !

आज मांगती हूँ 
तुमसे तुम्हारा एक 
बहुत ही नन्हा सा लम्हा 
अपने ही लिये ......
हाँ ! सिर्फ और सिर्फ
अपने ही लिये चाहती हूँ
इस नन्हे से लम्हे से
और वो सब कभी न मांगूगी
जो रहा मेरे लिये अनपाया ...
आज तो बस शीश झुकाउंगी
नमन करूंगी .....
आभार मानती हूँ
उन सारे मीठे लम्हों का
जो रहा सिर्फ और सिर्फ मेरा ..... निवेदिता