अक्सर नन्हे नन्हे से सुई की नोक बराबर बिंदुओं को देख सोचती हूँ ,अगर इन बेतरतीब से बिखरे हुए बिंदुओं को एक सीधी साधी सी रेखा जैसे एक सामान्य से दिखते हुए क्रम में रख दूँ ,तब शायद इस ख्यालों के ट्रैफिक जाम से मुक्तमना हो मन कुछ सहज सा सोच समझ पायेगा ..... पर अगले ही पल लगता है क्या बिखराव को ,इन बिंदुओं की एक सरल रेखा बनाना क्या सम्भव है .... और हाँ ! तो कि इस सब प्रक्रिया का प्रयोजन क्या है .... इनका अस्तित्व ,शायद इनके बिंदु बने रहने में ही है ......
अगर ये समस्त बिंदु दिखने में एक सरल सी दिखने वाली रेखा में परिवर्तित हो भी जाएँ ,तब भी जब इनके स्वत्व को ,इनकी पहचान को ठोकर लगेगी तब आने वाला बिखराव शायद इनको एक बिंदु भी न रहने देगा और वो घुटन इस सूक्ष्मतम तत्व को भी शून्य में भटकने पर विवश कर देगी .....
कभी कभी ये भी सोचती हूँ कि चुनाव के समय इन नन्हे से परावलम्बित दिखने वाले बिंदुओं को चुना ही क्यों जाता है .... शायद आत्ममुग्धता की स्थिति होती होगी वो कि हम कितने सक्षम हैं कि इन बेकार से बिंदुओं को भी एक तथाकथित सफल ढाँचे में फिट कर दिया .... पर कभी उन बिंदुओं से भी पूछ कर देखना चाहिए कि हमारे निर्मित ढाँचे में फिट बैठने के लिए उन्होंने भी तो अपने अस्तित्व पर होने वाली तराश या कहूँ नश्तर के तीखेपन को झेला ही है .... हाँ उन्होंने अपने घावों की टपकन नहीं दिखने दी और हमारे कैसे भी ढाँचे में फिट हो गए ,इसके लिए उनके अस्तित्व को एक स्वीकार तो देना ही चाहिए .....
रेखा ,बड़ी हो अथवा छोटी उसको ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसकी शुरुआत उस एक बिंदु से ही हुई है ,जिसको वो अनदेखा करता रहा है और उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े करता रहा है .... निवेदिता
आपने लिखा...
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 22/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 280 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
सही कहा आपने की रेखा बड़ी हो या छोटी पर उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिए की उसका अस्तित्व उसी एक बिन्दु से शुरू होता है जिसको अक्सर वो भूल जाती है। मगर अक्सर आगे बढ्ने के चक्कर में लोग पिछड़ों को भूल जाते है या फिर कई बार आगे बढ्ने के लिए ना चाहते हुए भी उस एक बिन्दु को भूलना ही पड़ता है।
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