रविवार, 28 अप्रैल 2013

उसने कहा ........ ( 2 )



उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
सीप सी 
और मैंने 
मोती बरसा दिए !


उसने कहा 
आँखों में तुम्हारी 
आँसू क्यों ....
आँखों से लुढ़के 
और पानी बन गये !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
गोमुख सी 
लब लगाये 
और पावन हो गये !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
ज़िन्दगी मेरी 
साँसे मेरी 
बस  बहक गईं !


उसने कहा 
आँखें तुम्हारी 
प्यासी बड़ी 
नजरें मिलीं 
और भर गईं !
              -निवेदिता 

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

शब्दों का कारवाँ



आज 
तलाश रही हूँ 
कुछ ऐसे भीने  
शब्दों का कारवाँ 
जिनका असर हो 
सबसे ज्यादा 
पहली साँसों से 
सुने - गुने
शब्दों का रेला 
हर सांस में 
दस्तक दे
दामन थाम 
अपनेपन को 
जतला 
आगे आ 
साँसों में 
बसना चाहता है 
पर शायद 
कहीं राह 
उल्टी दिशा को 
बह चली है 
सबसे ज्यादा 
भीने मासूम से 
शब्द तो 
रह ही गये 
अनबोले से 
लबों की खामोशी
और  
आँखों के बोल 
अब क्या बोलूँ .......
                   -निवेदिता 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

एक टुकडा बर्फ़ का .......


हाँ ! मानती हूं 
मैं हूं बस 
एक टुकडा 
उस बर्फ़ का 
जिस पर शव भी 
रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी 
पिघलती जाती है
कोई आये और 
डाले सागर में उसे
मेरी तो प्रकृति है 
बस पिघलते जाना
खुद की लाश पर 
पिघल जाऊँ
या ......
किसी सागर में  
पहुँच छलक जाऊं
मेरे लिये तो कहीं 
कोई अन्तर नहीं
मुझसे छुप जाए 
किसी की सड़न 
या ....
कम हो कड़वाहट
या फिर पा सके 
मन की शीतलता....
                    - निवेदिता 

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

झरते हुए मंजीर और ......




शायद मेरी सोच ही कुछ अजीब है तभी तो जब सब पेड़ पर लगे हुए फलों को देख कर मुग्ध होते हैं ,मैं उस पेड़ के नीचे गिरे हुए मंजीरों को देखती रह जाती हूँ ! उन गिरे हुए मंजीरों का जीवन चक्र तो वृक्ष की शाखा का साथ छोड़ते ही पूरा हो जाता है बस एक औपचारिकता सी रह जाती है उनके अस्तित्व की समाप्ति की । कभी बागबां खुद ही अपनी बगिया के सौन्दर्य में अवरोधक बने उन झरे हुए मंजीरों को हटा देता है ,तो कभी ऋतुयें इस काम को अपनी सहज मंथर गति से कर देती हैं । बस यही लगता है कि उनका जीवन - चक्र अनदेखा या कहूँ अवांछित बना रह कर ही सम्पूर्ण हो गया । 

एक दूसरी सोच भी दिल - दिमाग को झकझोर कर राह रोकती सी है - - - - - अगर वो मंजीर न झरे होते और सब अपना पोषण पा सकते तो उस पेड़ पर पत्तियों से अधिक फल लगे होते । हाँ ! ये भी हो सकता है कि वो मंजीर टिकोरे बन कर भी तेज हवा के झोंकों का सामना करने में असमर्थ हो झर जाते ,पर तब भी कुछ साँसें तो वो भी ले लेते ! 

एक स्वार्थी सी सोच भी जग जाती है कि अगर सारी मंजीरें अपना क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण यौवन प्राप्त कर भी लेती तो उस बिचारे वृक्ष का क्या होता ? क्या वो उनका तेज या ये कहूँ उनका भार सह पाता ? शायद उन परिपक्व फलों के भार का वहन  करने में असमर्थ हो उसकी डालियाँ टूट जातीं ! परन्तु सिर्फ उन डालियों का अस्तित्व बना रहे इसके लिए उन मासूम से मंजीरों को असमय काल - कवलित होने की सजा दी जाये !
                                                                                                                 -निवेदिता 

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

आँखें



ये ऐसी विशिष्ट आँखें हैं जिनको एक व्यक्तित्व नहीं सिर्फ उसका स्त्री शरीर ही दिखाई देता है ....


आँखें 
कितनी बड़ी दुआ हैं !
किसी अंधेरी राह के 
राही ने हसरत छलकाई 
सच ऐसा है क्या ...
सोते - जागते हर पल 
स्वप्नदर्शी बना 
कितनी चुभन दे 
दिखा कर राह  
रौशन अँधेरे की  
गहराइयाँ 
या 
श्वांस - प्रश्वांस की 
राह छलती 
दम तोड़ते बोलों से 
अबोला करती 
देखे - अनदेखे सपनों पर 
अश्रुधार बरसा 
विप्लव का तांडव बन 
कसक बन जाती ....
कैसी है ये दुआ 
सिर्फ निगाहें डाल 
कर जाती अवांछनीय 
और हाँ !
घट भी जाता है अघटनीय 
                            -निवेदिता