शनिवार, 24 मार्च 2012

सुर कभी भी बेसुरे नहीं होते .....




सुर कभी भी बेसुरे नहीं होते
चाहत जिसे हो मन्द्र की
तार सप्तक के स्वर
शोर सा करते लगते हैं ....

जब आदत हो ऊँचे बोलों की
सरगोशियों में मध्यम सुर
अक्सर अनसुने रह जाते हैं ..

दोष कभी भी नहीं रहा
वीणा के ढीले पड़ते तारों का
पंखुड़ियों को तो बिखरना ही था
गुनाहगार बनी बलखाती पुरवाई ..
                                    -निवेदिता


सोमवार, 12 मार्च 2012

पुनर्जन्म हो गया ....



माँ ! 
जानती हो 
इन नयनों से 
नींद की कुछ 
अनबन सी 
हो गयी है 
कभी तुम्हारा परस 
तो कभी दरस 
हाँ कभी लोरी में 
छुपी ममता की 
थपकी तलाशती हैं ....
कल नन्हीं हथेलियों ने 
मेरी उँगलियों को 
थाम कर कहा 
"माँ !हमें सुला दो "
कलियों सी मासूम 
पलकों को दुलराते 
चिड़ियों की चहक 
उधार लेते-लेते 
माँ ! मैंने अचम्भा देखा 
उन नन्हीं पलकों से
दोस्ती करती नींद ने 
मेरी आँखों से भी 
अबोला तोड़ दिया 
और सच में माँ !
मुझे लगा तुम्हारा 
पुनर्जन्म हो गया .....

सोमवार, 5 मार्च 2012

रंग भरे मौसम से .....



तमाम सारे इन्द्रधनुषी रंग सब जगह खिले-खिले से झूम रहे हैं ,पर एक रंग बेरंग सा सकुचाया ,जैसे अपने होने की शर्मिन्दगी को ढ़ो रहा था । इन शोख रंगों में सब कुछ भूले हुए ,हम  उन उदास कोनों को कैसे अनदेखा कर जाते हैं जिनके बल पर ही हमारे घरों की रंगीनी बनी रहती है । हम अपने सुरक्षा-प्रहरियों को ,चाहे वो राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा कर रहें हो अथवा शहर और गाँवों में तैनात हों ,भूले से रहते हैं । कोई भी पर्व हो अथवा पारिवारिक उत्सव ,इन जाबांजों को ऐसी छोटी-बड़ी खुशियाँ कमजोर नहीं कर पातीं । ये सुरक्षा प्रहरी तो हमारी खुशियों की स्वंत्रता के सुदृढ़ रक्षक बने हमारे रंगों में चमक और दीयों में उजास भरते हैं ,परन्तु हम उनके लिए क्या करते हैं ? अगर उनकी अनुपस्थिति में हम उनके परिवार को अपने रंगों की चमक में शामिल कर लें तो शायद एक सुकून उनको भी मिलेगा कि उनका परिवार अकेला और बेरंग नहीं है । परिवार को मिलने वाला छोटा सा सम्बल हमारे समाज में कहीं बढ़ कर ही मिलेगा । ये एक ऐसी छोटी सी पहल होगी जो आने वाले दिनों में इन सुरक्षा-प्रहरियों की संख्या में कभी भी कमी नहीं आने देगा और उनके घरों में भी रंगों की चमक बढ़ जायेगी ..........
           -निवेदिता

गुरुवार, 1 मार्च 2012

श्वांसों का एहसास


इस सपनीले से
मौसम की
चहकती हवाएं
मिट्टी से नमी
चुराती ,कहीं
पत्तों को एक नया
आशियाना बसाने का
झूठा दिलासा देती
फागुनी रंगों की
चांदनी बरसाते
जज़्बातों को उलझा
नित नवल
सवालों की
पिचकारी सजाती हैं
कभी ज़िन्दगी की
थकान का इज़हार
और कभी उससे ही
चाहती जवाब हैं
ज़िन्दगी की थकान
अक्सर मन से
क़दमों पर उतर जाती है
तभी अचानक ही
जैसे कोई
अवचेतन को चेतन कर
सहला जाता है
ज़िन्दगी कभी भी
कुछ भी न चाहती है
न ही मांगती है
ये तो बस कुछ
श्वांसों का एहसास मांगती है ......
                              -निवेदिता