गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

मेरा ही बसेरा हो ……


चाहते तो तुम्हारी 
बहुत सी हैं और 
पूरी भी की हैं मैंने 
अब  ….... 
आज  ........ 
एक बहुत ही 
छोटी सी चाहत ने 
अपनी अधमुंदी सी 
पलकें खोल ली है 
तुम्हे रास्तों की 
सफाई बहुत भाती है 
न हो कहीं कोई कंकड़ 
न ही राह थामने को 
सामने आये कोइ कंटक 
तुम्हारे इस अवरोधरहित 
सहज राजपथ के लिए 
मैं एक बार फिर से 
जानकी की तरह  
धरती की गोद में 
समा जाने को तत्पर हूँ 
बस तुम मुझे एक 
इकलौता वरदान दे दो 
मेरी ज़िंदगी गुज़रे 
अनवरत हिचकियों में 
और इन हिचकियों का  
इकलौता कारण हो 
तुम्हारी यादों में 
सिर्फ और सिर्फ 
मेरा ही बसेरा हो  …… निवेदिता 


बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

रिश्तों की गहराती दलदल ......


ये दलदल भी 
अजीब सी ही 
साँसें भरती है 
अनजाने ही 
बढ़ाते कदमों को 
थाम कर 
अपने में ही 
समा लेती हैं  .... 

ये रिश्ते भी 
अनोखापन लिए 
दम तोड़ते 
कदमों को 
जीवंत हो 
आगे ही आगे 
बढ़ते जाने को 
सहला देते हैं  ….. 

इस दलदल से 
अंकुराए रिश्ते 
मारीचिका बन 
मन की 
अनदेखी कंदराओं की 
अतल गहराईओं में 
उलझी सेवार से 
समा जाते हैं  .......


सच में
बड़ी ही
अजीब सी है
ये रिश्तों की
गहराती दलदल

छोड़ो भी ,
इस से हमें क्या
आओ ! चलो 

इस में डूब कर
कहीं दूर मिल जायें …… निवेदिता


   अर्चना दी ने मेरी इस भावानुभूति को अपनी आवाज़ दी है ,साथ में उनकी भी भावानुभूति भी ...... शुक्रिया दी :)

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

नेटवा बैरी ……

जब पढती थी ,तब अपनी कामवाली को अकसर गुनगुनाते हुए सुनती थी "रेलिया बैरिन पिया को लिये जाए रे …… " मैं उसको बहुत छेड़ती थी कि ऐसी कैसी रेल जो तेरे पिया को ले उड़ती है , तब वो भी थोड़ा हँसती थोड़ा खिसियाती कहती ,"पूछूँगी दीदी , कैसे ले जाती है "…… लगता है उस ऊपर वाले ने उसकी बात को कुछ अधिक ही गम्भीरता से ले लिया (

यहाँ तो सूरज चाचू अपनी उनींदी सी आँखें मल रहे होतें हैं कि पिया को ले जाने वाले कारक पंक्तिबद्ध होने लगते हैं  …….  सबसे पहले तो मुआ पेपरवाला पेपर दे जाता है और वो भी  एक नहीं दो - दो ,थोड़ा आगे बढ़ते ही फिर से पलट वापस कर आ पूछ लेता है ," भईया जी , ई वाली मैगजीन लेंगे ...." तुरंत ही पेपर और पत्रिकाओं को सम्हालते हुए पतिदेव सामने रहते हुए भी गायब हो जाते हैं  ……. 

पेपर में ध्यान लगे होने से गरमागरम चाय पर तो पाला पड़ना ही था …… गर्म और अच्छी सी चाय की पुकार पर थोड़ी सी आशाएं जागृत होतीं हैं कि अब तो अपनी बात भी सुनी जायेगी ,पर .……और भी बैरी हैं भई .…

अब तक तो फ़ोन , मोबाइल भी और जमीनी भी ……. अब फोन हाथ में आते ही नेट की याद आना तो एक सहज और बड़ी ही सामान्य सी क्रिया है  …..… थोड़ा ब्लॉग और बहुत सारा फेसबुक पर नितांत आवश्यक (?) काम निबटाया जाता है  ….....  अब फोन पर अक्षर थोड़े छोटे (?) दिख रहे थे , तो डेस्कटॉप तक पहुँचने का  नितांत जिम्मेदारी भरा जीवनदायी कदम उठाना मजबूरी हो जाती है  …… कितने बड़े - बड़े त्याग करने पड़ते हैं  …… बड़ी  ही कठिन योग - साधना होती है ,अगली प्रक्रिया कानों तक निरंतर दस्तक देती घंटी की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना और वो भी उस परिस्थिति में जब बीबी घंटी से भी तेज़ और तीखी आवाज़ में एहसास दिला रही हो  ....… पर ये नेटवा बैरी कुछ सुनने दे तब न  (




           
                                          ( अमित जी अपने बक्से ,बोले तो डेस्कटॉप के साथ )

फिर सोचा कि एक आदर्श भारतीय  नारी की तरह अपने "पतिदेवता" की चाहत को ही अपना भी धर्म बना लिया जाए ,बस  तभी से हम भी कोशिश करने  लगे नेटवा बैरी से दोस्ती करने की ,पर उन की नेट से दोस्ती के एकाधिकार के सामने हम अल्पमत क्या किसी भी मत में नहीं रहे  ....… चलिए अपनेराम अपनी उस पुरानी कामवाली को याद करते हुए संगीत का ही अभ्यास कर लेते हैं  ....… अपने उसी पुराने गीत के साथ "नेटवा बैरी पिया को लिये जाये रे ....... निवेदिता 


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

कल्पवृक्ष ......


हाँ ,सुना है 
कल्पवृक्ष
पूरी करता है 
कामनाएं सबकी 
पर ये 
कैसा होता होगा 
इसकी शाखा -प्रशाखाएँ 
इसको देती होंगी 
कितना विस्तार  ……

कैसे बनता होगा 
कोई भी वृक्ष 
एक कल्पवृक्ष 
कितना स्नेह 
कितनी संवेदनायें 
कितनी विशालता 
कितनी अधिक 
असीमित होंगी
इसकी भी सीमायें  …… 

सबकी कामनायें 
पूरी करने में 
अपनी कितनी साँसे 
कभी न ले पाता होगा 
धड़कन औरों की 
सहेजते - सहेजते 
अपने लिए धड़कना 
याद न रख पाता होगा  ....... 

हम सबने ही पाये थे 
अपने - अपने कल्पवृक्ष 
वो उँगली थामे 
काँटों से बचाये रखते 
अपनी खुशियाँ करते 
वो न्योछावर हम पर 
परे हटा देते अपनी 
हर हसरत  …..... 

बदलते समय के साथ 
पौधों को भी 
कुछ बढ़ना ही है  
कल्पवृक्ष की छाया से 
कहीं आगे निकल 
नयी पौध के लिए 
कल्पवृक्ष बनना ही है ....... निवेदिता 

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

आईना और परछाँई



ये अपना रिश्ता भी न  
सच बड़ा ही अलग सा है ,  
अपने बारे में जब भी सोचा  
तो तुम बस तुम दिख जाते हो , 
तुम को जब भी जानना चाहा 
तो आईना बन मैं ही दिख जाती हूँ , 
सूरज की तीखी चमक हो 
या चाँद की स्निग्ध शीतलता , 
परछाँई सा रच - बस कर   
एक दूजे की धड़कन बन जाते हैं ,
अपने हर सवाल का 
अपनी हर उलझन  का 
हर हल एक दूजे में ही पा जाते हैं 
इस रिश्ते को क्या कहूँ 
आईना और परछाँई का 
परछाँई के आईने का या 
आईने की परछाँई का रिश्ता  …… निवेदिता 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

अलबेली तिजोरी ...


वो पावन सी समिधा 
वो हवन की सुगंध 
मंत्रो का सान्निध्य 
झिझकते हुए कदम 
अजनबी सी निगाहें 
एक छोटा सा लम्हा 
एक शोख सा रंग 
एक बंधी हुई चुटकी 
और धूसर सी मांग 
पर चमकती  लाली 
शुक्र तारे को परे हटा 
सूर्य किरणों ने ली 
सपनीली सी अँगड़ाई  …

महावर की ललछौंही चमक 
बिछिये की श्वेत शीतलता 
चूनर में झिलमिलाते 
स्वपनिल  सितारे 
दो जुड़े हाथों ने 
सहेज ली अरमानों सजी 
ईश्वरीय सौगातों से भरी 
अपनी अलबेली तिजोरी  ... निवेदिता 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

"ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ "


यह इत्तिफ़ाक ही तो है ,
जो अपना साथ है 
ना मैं तुम्हे जानती ,
न तुम मुझे पहचानते 
मैं तो थी अपनी पढ़ाई में मस्त
 तुम थे अपना कैरियर बनाने में व्यस्त 
शायद था , तुम से मिलना,
शाश्वत सत्य 
सीप में मोती सा
सहेज रखा 
इसे ही कहते हैं
जन्म -जन्मातर का साथ 
आज जीवन की इस मधुरिम बेला में 
लगता है सब तो पा लिया 
प्यारे से दो चाँद -सितारे 
आस्मां से मांग लाये 
सच सज गया
अपना मन -आंगन
शायद इस जीवन का ही
दिया सबने आशीर्वाद 
तभी तो मांगती हूँ 
जन्म -जन्म का साथ 
इन छब्बीस वर्षों का साथ ,
एक प्यारे सपने सा सजा है
स्वपनीली आखों में 
तुम्हे भी मुबारक -मुझे भी मुबारक 
ये ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ .........  निवेदिता  :)