सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कोमा में जा चुकी मन:स्थिति .....


जब भी कहीं कुछ आत्मा को छलता हुआ सा घटित होता है ,दिल - दिमाग दोनों ही कोमा में चले जाते हैं । न तो कुछ पढने का मन करता है और न ही लिखने का । बस निस्तब्ध हो छले जाने की अनुभूति करता है । हर दिन ,हर इक पल दंश देती दुष्प्रवृत्तियाँ अपने होने का एहसास करा जाती हैं । स्थान बदल जातें हैं , नाम भी बदल जाते हैं ,पर हैवानियत वही रहती है । उन अनगिनत दम तोड़ती श्वांसों में से कभी कभार कोई कराह अपनी व्यथा से सब की आत्मा को झकझोर जाती है । केन्द्रीय सत्ता को ,संस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए विरोध प्रदर्शन का एक अनवरत सिलसिला सा निकल पड़ता है । सामर्थ्यवान  घड़ियाली  आँसू  बहाते हुए खुद को भी बेटी का पिता जतलाते हुए सम्वेदना जतलाने की औपचारिकता पूरी कर देते हैं । थोड़ा समय बीतते ही क्रमश:सब अपनी नियमित व्यस्तताओं में सब रुक्षता भूल सहज हो जाते हैं । जब फिर कहीं जुगुप्सा जगाती ऐसी वहशत भरी घटना की पुनरावृत्ति होती है तब सब जैसे नींद से जाग कर विरोध और आक्रोश के प्रदर्शन की परिपाटी का पालन करने चल पड़ते हैं । 

इस तरह की हैवानियत भरी घटनाओं का विरोध करते हुए क्या ऐसा समय नहीं आ गया है ,जब हम इनके पीछे छिपे हुए इसके कारण को भी देखें ... अपनी जिम्मेदारियों को भी समझें !

आज जिस वहशी के लिए हम सब मृत्युदण्ड की मांग कर रहे हैं , उस के कृत्य के लिए जिम्मेदार उसके अतिरिक्त और जो लोग हैं उनके बारे में क्यों नहीं सोच रहे हैं ! इसमें दोष सिर्फ उस उस की वहशी सोच का है अथवा उसको मिले उसके संस्कारों का भी है ! इंसानियत को स्त्री और पुरुष के दो अलग खेमों में बांटने वाली सोच क्यों नहीं दोषी है !

आज हमलोग जो भी बन पायें हैं वो हमारे माता-पिता से मिले हुए संस्कारों का परिणाम है । हमारे बच्चे हमारे दिए हुए संस्कारों और परवरिश के अनुसार ही अपना व्यक्तित्व निखार रहे हैं । जब शिशु का जन्म होता है वो एकदम निष्पाप .. एकदम अबोध होता है । उस कच्ची मिट्टी को हम  अपनी  सोच  और  सुविधानुसार  आकार  देते  हैं  और जब  भी  उसमें  त्रुटि  दिखती है तो  उसको तभी  ठीक करने  का  दायित्व  भी  हमारा  है । दिक्कत  तब  आती  है जब उस त्रुटि को सुधारने का समय होता है ,हम अपनी दूसरी व्यस्तताओं में मग्न रहते हैं और अगर दूसरा कोई उस ओर  इंगित  भर  कर दे हम  उसको  ही गलत प्रमाणित करने में लग जाते हैं । वो अबोध भी समझने लग जाता है कि उसके लिए  हमारे  पास  समय  नहीं है पर  हाँ उसकी गलतियों पर हम पर्दा डालने में अवश्य उसका साथ देंगे । कच्ची त्रुटियाँ ही पक्की हो कर ऐसी वहशी हो जाती हैं ।

आज जब संयुक्त परिवार नहीं रह गये हैं तो माता - पिता का दायित्व पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गया है , जबकि समझा हमने एकदम इसका उलटा है । संयुक्त परिवार में बड़ों का लिहाज़ बहुत सी बातें बोलने के पहले ही हमारे लबों को सिल देता था और रिश्तों का अर्थ भी समझा जाता था । पर अब छोटे उस बात को सुन कर क्या समझेंगे और क्या करेंगे ,ये ध्यान दे कर छोटों को हम भी बहुत कुछ सिखा सकते हैं ।

उम्र के हर पडाव की अपनी अलग आकांक्षाएं होती हैं । अगर परिवार उन आकांक्षाओं को संयमित और परिमार्जित  कर  पाए तभी परिवार की  सच्ची प्रासंगिकता भी है , अन्यथा उसका नाम कुछ भी रख लें वो  एक  भीड़  के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । बच्चों को अपना समय दे कर उनको सही और गलत का अंतर भी समझा पायें तभी उनसे और समाज से भी कुछ आशा करें , क्योकि हम उनको जैसा देंगे वापस हम वही पायेंगे ।

संस्कारों  का  अर्थ  भौतिक  सुविधाएं  देना नही है । ये तो एक मासूम सा एहसास है कि उनकी किसी भी उलझन को सुलझाने में हम उनके साथ हैं ..... उनकी हर जिज्ञासा का एक स्वस्थ और सकारात्मक समाधान भी हम ही देंगे । उनको ये समझ  में  आना  कि उनके हर क्रियाकलाप का असर हम पर ही होगा । जिस दिन हमारे  बच्चों  को  ये  विश्वास हो जाएगा कि उनकी किसी भी समस्या  अथवा  किसी  भी  संशय  पर  हम  स्नेहिल  तटस्थता से उनके  मनोबल को बढाते हुए सहायक होंगे तब ही हमारी परवरिश के सही होने का आभास होगा ।

बच्चों को स्वयं गलत न करने के साथ ही साथ किसी अन्य को भी कुछ भी गलत न करने देने के लिए प्रेरित करना चाहिए । सामान्यतया  गलती  करने  वाला तो अकेला ही होता है और उसकी गलती को भोगने वाला भी , परन्तु  उसकी  गलती के   मूकदर्शक  बहुत  होते हैं । जिस दिन भी ये मूकदर्शक अपना मौन छोड़ देंगे , उस दिन से ही ऐसी हैवानियत कहीं नहीं मिलगी ।

इन सबसे भी आवश्यक कार्य जो हमको अभिभावक होने के नाते करना है वो वही है जो हम तब करते थे जब उनके अशुद्ध वर्तनी - लेखन के  समय  उनको  सुधारने  का करते थे न कि शब्दकोश बदलने लग जाते थे .... ऐसे वहशी संतानों के अभिभावकों को भी अपनी गलती सुधारनी चाहिए और उनके अवयस्क होने के प्रमाणपत्र जुटाने में नहीं लग जाना चाहिए !

काश ऐसा हो सके तो हर झूठे सच्चे पर्व पर निशंक हो इंसानियत भी उत्स्वित हो सके .......
                                                                                                                  -निवेदिता 

रविवार, 23 दिसंबर 2012

शब्दों की घुटन .....




रंगों की भाषा भी 
बड़ी अजीब होती है 
शोख चपल तरल 
अनकही कह जाती 
भाषा कुछ स्वर भी 
सौगात में दे जाती 
मन में बसी खुशी 
खिलखिलाहट बनती 
मन की टूटन 
आंसुओं में बात करती 
बहुत कचोटता है 
रंगों का बेरंग होना 
पर्दों की रंगीनियाँ 
बदरंग हो बेजान कर 
पीड़ा के स्वर कण्ठ में 
बेबस दम तोड़ जाते हैं 
पहियों की रफ्तार 
नि:शब्द कर तिल-तिल 
जीतेजी मृत्यु वरने को 
आमंत्रित करती जाती ....
                             -निवेदिता 



मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

अश्रु


मेरे दिल का दर्द 
तुम्हारी आँखों में 
भीगा - भीगा सा 
अश्रु बन पले 
पर ,सुनो न !
उन अश्रुओं को 
बहाने वाली पलकें 
बस मेरी ही हों .....



शब्द जो दे जाएँ 
अश्रु अपनी ही 
पलकों की कोरों में 
न कहो खारा उन
संगदिल शब्दों को 
यही तो न जाने कितनी 
भूली - बिसरी गलियों से 
बटोर लाते हैं नमक 
ज़िन्दगी में ....


ये चंद बूँदें 
कभी आँखें तो 
कभी कपोलों को 
तर कर 
अपनी राह चल 
यूँ ही 
ओस बन उड़ जातीं 
बस मन को भिगो 
अंतर्मन भर 
बोझिल कर जाती हैं .....
                             -निवेदिता 



शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

धूमिल अवसाद न समझ .......



छल -छल करती सरिता 
कह लो 
या निर्झर बहते जाते नीर 
नयन से 
तरल मन अवसाद सा बहा 
अंतर्मन से 
कूल दुकूल बन किसी कोर 
अटक रहे 
पलकें रूखी रेत संजोये तीखे  
कंटक सी चुभी 
ओस का दामन गह संध्या 
गुनगुनायी थी 
नमित थकित पत्र तरु का 
भाल बना 
धूमिल अवसाद न समझ 
इस पल को 
आने वाली चन्द्रकिरण का 
हिंडोला बन 
शुक्र तारे की खनक झनक सा 
उजास भरा  
पुलकित प्रमुदित मन साथी 
मधुमास बना ...
                    -निवेदिता 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

" एकांत और अकेलापन "



एक सी लगती 
बातें हो या राहें 
कितनी अलग 
सी हो जाती हैं
एकांत कह लो 
या अकेलापन  
एक से लगते 
पर सच हैं ये 
सर्वथा भिन्न 
एक चाहत है 
दूजा त्रासदी ...
एक रखता 
सृजन क्षमता 
दूजे के पास 
भरी विरक्ति ...
एक की चाहत में 
बंद किये झरोखे 
दूजे से मुक्ति की 
आस लगाये 
टटोली कन्दराएँ !
                     -निवेदिता 

रविवार, 2 दिसंबर 2012

बोलते स्वर !

अनहत नाद से 
अनसुने स्वर 
बसेरा बनाये 
हमारे बीच 
ये भी घण्टी से 
झंकृत हो 
बोल सकते हैं 
बस हमको 
बनना होगा 
खामोश पड़ी 
घण्टी के 
मन के द्वार 
खोलते और 
बोलते स्वर !
      -निवेदिता