सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कोमा में जा चुकी मन:स्थिति .....


जब भी कहीं कुछ आत्मा को छलता हुआ सा घटित होता है ,दिल - दिमाग दोनों ही कोमा में चले जाते हैं । न तो कुछ पढने का मन करता है और न ही लिखने का । बस निस्तब्ध हो छले जाने की अनुभूति करता है । हर दिन ,हर इक पल दंश देती दुष्प्रवृत्तियाँ अपने होने का एहसास करा जाती हैं । स्थान बदल जातें हैं , नाम भी बदल जाते हैं ,पर हैवानियत वही रहती है । उन अनगिनत दम तोड़ती श्वांसों में से कभी कभार कोई कराह अपनी व्यथा से सब की आत्मा को झकझोर जाती है । केन्द्रीय सत्ता को ,संस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए विरोध प्रदर्शन का एक अनवरत सिलसिला सा निकल पड़ता है । सामर्थ्यवान  घड़ियाली  आँसू  बहाते हुए खुद को भी बेटी का पिता जतलाते हुए सम्वेदना जतलाने की औपचारिकता पूरी कर देते हैं । थोड़ा समय बीतते ही क्रमश:सब अपनी नियमित व्यस्तताओं में सब रुक्षता भूल सहज हो जाते हैं । जब फिर कहीं जुगुप्सा जगाती ऐसी वहशत भरी घटना की पुनरावृत्ति होती है तब सब जैसे नींद से जाग कर विरोध और आक्रोश के प्रदर्शन की परिपाटी का पालन करने चल पड़ते हैं । 

इस तरह की हैवानियत भरी घटनाओं का विरोध करते हुए क्या ऐसा समय नहीं आ गया है ,जब हम इनके पीछे छिपे हुए इसके कारण को भी देखें ... अपनी जिम्मेदारियों को भी समझें !

आज जिस वहशी के लिए हम सब मृत्युदण्ड की मांग कर रहे हैं , उस के कृत्य के लिए जिम्मेदार उसके अतिरिक्त और जो लोग हैं उनके बारे में क्यों नहीं सोच रहे हैं ! इसमें दोष सिर्फ उस उस की वहशी सोच का है अथवा उसको मिले उसके संस्कारों का भी है ! इंसानियत को स्त्री और पुरुष के दो अलग खेमों में बांटने वाली सोच क्यों नहीं दोषी है !

आज हमलोग जो भी बन पायें हैं वो हमारे माता-पिता से मिले हुए संस्कारों का परिणाम है । हमारे बच्चे हमारे दिए हुए संस्कारों और परवरिश के अनुसार ही अपना व्यक्तित्व निखार रहे हैं । जब शिशु का जन्म होता है वो एकदम निष्पाप .. एकदम अबोध होता है । उस कच्ची मिट्टी को हम  अपनी  सोच  और  सुविधानुसार  आकार  देते  हैं  और जब  भी  उसमें  त्रुटि  दिखती है तो  उसको तभी  ठीक करने  का  दायित्व  भी  हमारा  है । दिक्कत  तब  आती  है जब उस त्रुटि को सुधारने का समय होता है ,हम अपनी दूसरी व्यस्तताओं में मग्न रहते हैं और अगर दूसरा कोई उस ओर  इंगित  भर  कर दे हम  उसको  ही गलत प्रमाणित करने में लग जाते हैं । वो अबोध भी समझने लग जाता है कि उसके लिए  हमारे  पास  समय  नहीं है पर  हाँ उसकी गलतियों पर हम पर्दा डालने में अवश्य उसका साथ देंगे । कच्ची त्रुटियाँ ही पक्की हो कर ऐसी वहशी हो जाती हैं ।

आज जब संयुक्त परिवार नहीं रह गये हैं तो माता - पिता का दायित्व पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गया है , जबकि समझा हमने एकदम इसका उलटा है । संयुक्त परिवार में बड़ों का लिहाज़ बहुत सी बातें बोलने के पहले ही हमारे लबों को सिल देता था और रिश्तों का अर्थ भी समझा जाता था । पर अब छोटे उस बात को सुन कर क्या समझेंगे और क्या करेंगे ,ये ध्यान दे कर छोटों को हम भी बहुत कुछ सिखा सकते हैं ।

उम्र के हर पडाव की अपनी अलग आकांक्षाएं होती हैं । अगर परिवार उन आकांक्षाओं को संयमित और परिमार्जित  कर  पाए तभी परिवार की  सच्ची प्रासंगिकता भी है , अन्यथा उसका नाम कुछ भी रख लें वो  एक  भीड़  के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । बच्चों को अपना समय दे कर उनको सही और गलत का अंतर भी समझा पायें तभी उनसे और समाज से भी कुछ आशा करें , क्योकि हम उनको जैसा देंगे वापस हम वही पायेंगे ।

संस्कारों  का  अर्थ  भौतिक  सुविधाएं  देना नही है । ये तो एक मासूम सा एहसास है कि उनकी किसी भी उलझन को सुलझाने में हम उनके साथ हैं ..... उनकी हर जिज्ञासा का एक स्वस्थ और सकारात्मक समाधान भी हम ही देंगे । उनको ये समझ  में  आना  कि उनके हर क्रियाकलाप का असर हम पर ही होगा । जिस दिन हमारे  बच्चों  को  ये  विश्वास हो जाएगा कि उनकी किसी भी समस्या  अथवा  किसी  भी  संशय  पर  हम  स्नेहिल  तटस्थता से उनके  मनोबल को बढाते हुए सहायक होंगे तब ही हमारी परवरिश के सही होने का आभास होगा ।

बच्चों को स्वयं गलत न करने के साथ ही साथ किसी अन्य को भी कुछ भी गलत न करने देने के लिए प्रेरित करना चाहिए । सामान्यतया  गलती  करने  वाला तो अकेला ही होता है और उसकी गलती को भोगने वाला भी , परन्तु  उसकी  गलती के   मूकदर्शक  बहुत  होते हैं । जिस दिन भी ये मूकदर्शक अपना मौन छोड़ देंगे , उस दिन से ही ऐसी हैवानियत कहीं नहीं मिलगी ।

इन सबसे भी आवश्यक कार्य जो हमको अभिभावक होने के नाते करना है वो वही है जो हम तब करते थे जब उनके अशुद्ध वर्तनी - लेखन के  समय  उनको  सुधारने  का करते थे न कि शब्दकोश बदलने लग जाते थे .... ऐसे वहशी संतानों के अभिभावकों को भी अपनी गलती सुधारनी चाहिए और उनके अवयस्क होने के प्रमाणपत्र जुटाने में नहीं लग जाना चाहिए !

काश ऐसा हो सके तो हर झूठे सच्चे पर्व पर निशंक हो इंसानियत भी उत्स्वित हो सके .......
                                                                                                                  -निवेदिता 

रविवार, 23 दिसंबर 2012

शब्दों की घुटन .....




रंगों की भाषा भी 
बड़ी अजीब होती है 
शोख चपल तरल 
अनकही कह जाती 
भाषा कुछ स्वर भी 
सौगात में दे जाती 
मन में बसी खुशी 
खिलखिलाहट बनती 
मन की टूटन 
आंसुओं में बात करती 
बहुत कचोटता है 
रंगों का बेरंग होना 
पर्दों की रंगीनियाँ 
बदरंग हो बेजान कर 
पीड़ा के स्वर कण्ठ में 
बेबस दम तोड़ जाते हैं 
पहियों की रफ्तार 
नि:शब्द कर तिल-तिल 
जीतेजी मृत्यु वरने को 
आमंत्रित करती जाती ....
                             -निवेदिता 



मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

अश्रु


मेरे दिल का दर्द 
तुम्हारी आँखों में 
भीगा - भीगा सा 
अश्रु बन पले 
पर ,सुनो न !
उन अश्रुओं को 
बहाने वाली पलकें 
बस मेरी ही हों .....



शब्द जो दे जाएँ 
अश्रु अपनी ही 
पलकों की कोरों में 
न कहो खारा उन
संगदिल शब्दों को 
यही तो न जाने कितनी 
भूली - बिसरी गलियों से 
बटोर लाते हैं नमक 
ज़िन्दगी में ....


ये चंद बूँदें 
कभी आँखें तो 
कभी कपोलों को 
तर कर 
अपनी राह चल 
यूँ ही 
ओस बन उड़ जातीं 
बस मन को भिगो 
अंतर्मन भर 
बोझिल कर जाती हैं .....
                             -निवेदिता 



शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

धूमिल अवसाद न समझ .......



छल -छल करती सरिता 
कह लो 
या निर्झर बहते जाते नीर 
नयन से 
तरल मन अवसाद सा बहा 
अंतर्मन से 
कूल दुकूल बन किसी कोर 
अटक रहे 
पलकें रूखी रेत संजोये तीखे  
कंटक सी चुभी 
ओस का दामन गह संध्या 
गुनगुनायी थी 
नमित थकित पत्र तरु का 
भाल बना 
धूमिल अवसाद न समझ 
इस पल को 
आने वाली चन्द्रकिरण का 
हिंडोला बन 
शुक्र तारे की खनक झनक सा 
उजास भरा  
पुलकित प्रमुदित मन साथी 
मधुमास बना ...
                    -निवेदिता 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

" एकांत और अकेलापन "



एक सी लगती 
बातें हो या राहें 
कितनी अलग 
सी हो जाती हैं
एकांत कह लो 
या अकेलापन  
एक से लगते 
पर सच हैं ये 
सर्वथा भिन्न 
एक चाहत है 
दूजा त्रासदी ...
एक रखता 
सृजन क्षमता 
दूजे के पास 
भरी विरक्ति ...
एक की चाहत में 
बंद किये झरोखे 
दूजे से मुक्ति की 
आस लगाये 
टटोली कन्दराएँ !
                     -निवेदिता 

रविवार, 2 दिसंबर 2012

बोलते स्वर !

अनहत नाद से 
अनसुने स्वर 
बसेरा बनाये 
हमारे बीच 
ये भी घण्टी से 
झंकृत हो 
बोल सकते हैं 
बस हमको 
बनना होगा 
खामोश पड़ी 
घण्टी के 
मन के द्वार 
खोलते और 
बोलते स्वर !
      -निवेदिता 

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

ये ज़िन्दगी ......


ये ज़िन्दगी
शुक्रगुजार है
अब तक
आती जाती
हर इक
सहमी और
खिली खिली
श्वांस लेती
हर श्वांस की !

ये ज़िन्दगी
कर्ज़दार  है
उन दुलार भरी
तोतली बोली की
जिनसे मिश्री
घुलती गयी
तीखे पलों में !

ये ज़िन्दगी
बेबस है
उन चुभती
तीखे काँटे सी
अनावृत्त करती
आवाजों और
निगाहों के
उच्छिष्ट पर !


ये ज़िन्दगी
शर्मसार है
हर उस
अनबोले पल की
जिसका दर्द
दूसरे ने
अनकिया सा
हो भुगता है !


रविवार, 25 नवंबर 2012

एक सम्मन नक्षत्रों का .....


आज एक कागज़ 
अपना पता पूछते 
फिर से चला आया 
हाँ !मेरे ही हाथों में 
समेटे हुए अपने में 
चंद गिनतियाँ और 
नाम भी नक्षत्रों के 
लगा एक सम्मन सा 
क्यों ? 
अरे उसमें टंका था 
मेरे नाम का 
प्रथमाक्षर .....
वो समय .. वो तिथि 
जब ली थी मैंने 
अपनी पहली सांस !
पता नहीं क्यों 
पर वो अजनबी सा 
अनपहचाना ही 
रह गया ...
शायद वो जन्म का 
बस एक नन्हा सा 
लम्हा बना रह गया 
जन्म - कुंडली सा 
विस्तृत - विस्तार 
अभिनव - आयाम 
तो तब मिला 
जब आये तुम साथ !
                            -निवेदिता 


सोमवार, 19 नवंबर 2012

जाय बसो परदेस पिया .......

विशिष्ट पर्वों पर होने वाली सफाई कई भूली - बिसरी चीजें सामने ला देती है । इसमें कभी - कभी ऐसे सामान भी मिल जातें हैं जिनके लिए दूसरों को कठघरे में खड़ा कर दिया गया था । इस बार की विशद सफाई अभियान का परिणाम  बहुत  सुखद रहा और थोड़ा सा यादों के अतल गर्त में ले जाने वाला भी ..... 

इस बार सफाई करते हुए ,हम प्रस्तर युग में पहुँच गये ..... बहुत ढेर सारी चीज़ें मिल गयी जिन्हें हमने कितने जतन से सम्हाल रखा था ! लग रहा था हमने  अपनी  जीवन की यात्रा रिवर्स गियर में शुरू कर दी हो । कहीं  बच्चों की  बनायी हुई ,या कहूँ उनकी कारस्तानियाँ अपनी खिलखिलाती स्मृतियाँ लिए कभी स्मित तो कभी अट्टहास देती गईं  :)

 थोड़ा और पीछे की जीवन यात्रा के सामान भी मिले । पर जिसने  एकदम से गति अवरुद्ध कर दी तो वो थे एकदम प्रारम्भिक अवस्था में लिखे पत्र , मानी हुई बात है पतिदेव के ही अन्य का बताने का खतरा तो अब भी नहीं ले सकती  :)  

जैसे - जैसे उनको पढ़ती गयी एक रहस्य पर से पर्दा भी उठता गया ।ये डाबर कम्पनी अपने शहद में इतनी मीठी मिठास कहाँ से चुरा लाती है ! अब जब हमेशा साथ में रहना है तो भई डायबिटीज़ तो होनी ही थी ..... और पत्र लिखने से भी । रही - सही कसर इस हाथ में थमे हुए मोबाइल ने पूरी कर दी । कभी रूठने पर गलती से , अब कभी -  गलतियाँ तो हर किसी से हो  ही जाती  हैं , किसी में मनाने की दुर्लभ कामना जाग ही जाए , तो बस एक मेसेज भेज दिया और हो गयी  कर्तव्य की इति ! दिक्कत तो तब आती है जब तापमान दूसरी तरफ का भी बहुत अधिक हो और उसने बिना पढ़े ही बस एक डिलिट का आदेश मोबाइल को थमा दिया । अब जरा सोचिये  इस संदेश की जगह वो पुराने जमाने वाला पत्र होता तो जब शान्ति छा जाती तो उसको पढ़ा जा सकता था । यहाँ तक कि फटा हुआ भी जोड़ - जोड़ कर पढने काबिल बना लिया जाता ! वैसे भी ये  मेसेज तो  लिखे भी जल्दी में जाते हैं और पढ़े तो उससे भी जल्दी में । कभी - कभी तो मेसेज बाक्स की सफाई में कई ऐसे अनपढ़े भी दिख जाते हैं ।

बस इसीलिये एक तमन्ना जागी है कि जाय  बसो परदेस पिया ...... हमारी कमी को भी समझो और थोड़ी सी मिठास वाला पत्र भेजो । अगर बाहर नहीं जाना है तो चलो थोड़ा समझौता हम भी कर लेते हैं , आफ़िस से ही ड्राइवर के हाथ पत्र भेजो । अरे भई जब लिखोगे तभी तो हमारी बारे में भी सोचोगे ...
                                                                                                                                                 -निवेदिता 

शनिवार, 17 नवंबर 2012

एक अन्धेरा एहसास .....



अमावस 
क्यों डरा जाता है 
ये अकेला सा एहसास 
इसमें अंधियारा ही तो नहीं 
कहीं रह जाते कुछ एहसास 
आने वाली उजली किरणों के 
पर हाँ ! जब तक ये रहता है 
सब ढांप लेता कालिख पुती 
अंधत्व की चादर में 
उजले से लगते लम्हे भी 
धुंधलाते कोहरे में छुपी 
ख़ामोश गहराइयों में 
गुम बेआवाज़ हो जाते हैं 
हर रोज़ मायूस चाँद 
अपनी रौशन चांदनी 
बढ़ा असफल सा खोजता 
निराश हो पूनम से 
अमावस के चिर सफ़र पर 
चल छोड़ जाता है फिर 
एक अन्धेरा एहसास 
अमावस का ...........
                  -निवेदिता 

शनिवार, 10 नवंबर 2012

खिलौना माटी का

आज शाम हम अपने घर के पास के बाज़ार में गये । वहाँ  की चमक - दमक जैसे हर आने वाले को थामे रखने का प्रयास कर रही थी । हर कदम पर कोई न कोई वस्तु सजी हुई बिकने को तत्पर हर आने वाले   को  निहार रही थी , और उससे भी दोगुनी अधीरता  उसके  मालिक की निगाहों में थी । लग रहा था कि हर कोई किसी अपने के बिक जाने पर प्रफुल्लित हो रहा था ।

आज के बाज़ार में ,सबसे अधिक स्थान मिट्टी से बने सामानों ने घेर रखा था - कहीं वो चिराग के रूप में थे , तो कहीं किसी सलोनी सी मूरत  के रूप में । वहीं वो खरीदार के रूप में भी थी । जब भी कोई किसी चिराग को खरीदना चाह रहा था , उस नन्हे से चिराग का  ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण करता था कि उसका आकार सही  है अथवा नहीं ....... कहीं किसी  कोने  में  टेढ़ा तो नहीं रह गया अथवा उसका तल असमतल तो नहीं है अन्यथा जलाए जाने पर सारा तेल बह कर नष्ट हो जाएगा ।

उस नन्हे से चिराग का ऐसा सूक्ष्म अवलोकन करने वाले , इस कटु सत्य को  सर्वथा भूल ही जाते हैं कि उस चिराग ने तो बस कुछ घंटे ही जलना है ,परन्तु खरीदार के रूप में सामने खड़ा एक माटी का खिलौना ही है ! इसको तो पूरी उम्र भर साथ रहना है और खिलौने के टूट जाने पर उसका नाम ( ? ) रह जाएगा । अपनी अंतरात्मा का सूक्ष्म अवलोकन तो हम  गलती से भी कभी नहीं करते हैं । अपनी सोच की विकृतियों के बारे में सोचना तो दूर स्वीकार करना भी बहुत दुष्कर हो जाता है । अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार को देखना तो एक असम्भव कार्य लगता है ।

एक - दूसरे को हम हर वर्ष याद दिलाते हैं कि बिजली की लड़ियों  के  स्थान  पर मिट्टी के चिराग को ही रौशन करेंगे , परन्तु जब  व्यवहारिकता में ये बात उतारने की बात आती है तो  हम  उसमें लगने वाले तेल - घी और सबसे बढ़ कर श्रम को याद करके बिद्युत - वल्लरी से घर सजा लेते हैं । इस माटी के खिलौने को सुविधा का नशा कुछ अधिक ही हो गया है !

आज तो बस यही लग रहा था मिट्टी ने मिट्टी को खरीदा । ये खरीदने  वाली  मिट्टी विचित्र सी दृष्टि रखती है .... इसकी दूर की निगाहें तो बहुत तीखी हैं  परन्तु अपने एकदम पास की चीजों को परख सके और निखार सके ऐसी निगाह है भी नहीं और इसकी चाहत भी नहीं है ....... पर कभी कभार ये सोच लेना चाहिए कि एक दिन इस माटी को भी माटी में ही मिल जाना है !
                                                                                                           -निवेदिता 

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

क्या शगुन क्या अपशगुन .....

किसी की राह देखी 
कही नजरें बिछायीं 
क्यों कहीं राह में देख 
कैसे हैं नजरें बचाईं 
सुगंध और सुमन से 
दोनों है सजे संवरे 
एक जीवंत उमंग 
दूजी निर्जीव तरंग 
एक पिया संग चली 
दूजी पिया से है जली 
एक नया घर बसाने चली 
दूजी बसा घर छोड़ चली 
एक नये जहाँ में चली 
दूजी इस जहाँ से चली 
दोनों ही साए एक से 
कैसे कहूँ कौन सा रंग 
सजाये शगुन सा 
कौन कर जाए धूमिल 
सब रंग .........
            -निवेदिता 

शनिवार, 3 नवंबर 2012

चाँद





चाँद भी अक्सर यूँ  ही बेवफा हो भी जाता है 
कस्मों को भूल रस्मों की याद दिला जाता है
रस्मों को  उलझाती  हुई  हर कशमकश में
उमगती  चांदनी  पर  अमावस  की याद में
धुंधलाती चादर का धूमिल शामियाना बन
राहों में श्वांस - श्वांस किरच सा बिछ जाता
अपनी ही नहीं बेगानी बेपानी आँखों में भी
अविरल बरसती अश्रु धार सौगात दे जाता
ये रेगिस्तानी ओस भी हमारे दरमियाँ पल
नागफनी की चुभन सा डस दंश दे जाती है
कसूरवार चाँद है या उस चंदा की ही चांदनी
अनसुलझी पहेली सा चाँद ताकझाँक करता
चमक - चमक कर ढूँढने निकला अपनी ही
अलबेली लगती सी चांदनी को ..............
                                          -निवेदिता




गुरुवार, 1 नवंबर 2012

रिश्ता एक चुटकी का ,सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का .....



जब भी किसी रिश्ते अथवा बंधन की बातें होती हैं ,उसमें कई बड़े - छोटे कारण और कारण दीखते हैं और बन भी जाते हैं | कुछ  रिश्ते जन्म से मिलते हैं ,तो कुछ विवाहोपरांत बनते हैं | विवाह के बाद  बनने वाले रिश्तों के बारे में जब भी सोचती हूँ तो उसकी  आत्मा  सिर्फ एक चुटकी होती है , जो अपने धर्म के अनुसार कभी अंगूठी पहना देती है ,तो कभी सिन्दूर से मांग सजा देती है ! एक पल में ही सर्वथा अनजाने व्यक्ति अटूट डोर में बँध जाते हैं | ये बंधन भी अजीब सा है कभी - कभी विचारों में भिन्नता होने पर और एकमत न होने पर भी उसी बात पर किसी अन्य के कुछ कहने पर अभेद्य कवच बन औरों के लिए बहुत तीखा प्रतिउत्तर भी बन जाता है |

कभी - कभी लगता है कि एक चुटकी सिन्दूर पड़ते ही ,जिसके लिए ये जन्म ही नहीं अनदेखे कई जन्म भी न्योछावर हो जाते हैं , उसीके लिए  पूरे वर्ष  में सिर्फ  एक  दिन ही  क्यों पूजन करते हैं अथवा व्रत रखते हैं ! इसका  कारण  मुझे  तो यही लगता है कि जिसका हमारे मन - प्राण पर पूर्ण अधिकार रहता है उसके चिन्ह को भी तो हम अपनी मांग की एक पतली सी रेखा में ही स्थान देते हैं | वैसे  ये   अलग  बात  है  कि उस सम्बन्ध को हम माथे पर अर्थात अपने  अस्तित्व  में सबसे अग्रासन देते हैं ! ये अग्रासन किसी दबाव में नहीं , अपितु स्नेहवश ही देते हैं | इस नन्ही  सी  एक  चुटकी की तरह ही अपने इस प्यारे से सम्बन्ध के लिए पूरे वर्ष में एक दिन "करवा - चौथ " पर विशेष कामना करते हैं !

अपने  अन्य  दायित्वों  के  सामने अगर हमको  किसीको अनदेखा करना पड़ता है , तो  हम  एक  पल की भी देर किये बिना ,अपने साथी को ही अनदेखा करते हैं ! शायद ये  अजीब  लगे पर  सच यही है कि दोनों के मन - प्राण  इतने एकमय  हो जाते हैं कि लगता है जैसे हमने  साथी  की नहीं अपितु स्वयं की ही अनदेखी की है | 

आज हर बात को हम तर्कों के आधार पर विश्लेषित करतें हैं | ये  मानने  में  मुझे तनिक भी हिचक नही  है  कि  किसी  भी प्रकार  के व्रत से किसी की उम्र अथवा आयु  पर कोई  प्रभाव नहीं पड़ता है , तब  भी  किसी  अपने  के  लिए  अपनी  सामर्थ्य  के  अनुसार  मंगलकामना  करना  तो  गलत  नहीं हो सकता | जब भी कोइ सुकृत्य अथवा धार्मिक कृत्य करते हैं तो एक सकारात्मक ऊर्जा तो परिवेश में प्रवाहमान हो जाती है | ये सकारात्मकता जीवन को कई नये रंग दे जाती है |

हमारे  हिन्दुस्तानी " वैलेंटाइन डे " अर्थात  एक  चुटकी   सिन्दूर  से  बने जन्म - जन्मान्तर के रिश्ते की मंगलकामना के बहुत प्यारे से रूप "करवा - चौथ" को  उत्स्वित करने वाले साथियों को इस पर्व की बहुत - बहुत बधाई और जो अभी प्रतीक्षारत हो कतार में हैं उनको शुभकामनाएं  :)
                                                                                        -निवेदिता 

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

कलश - स्थापना से पहले ........



हमेशा की तरह इस बार भी " नवरात्रि " आते ही कलश - स्थापना की तैयारियों में हम सब ही पूरे मन से लग गये हैं | कभी सामग्रियों की एक सूची बनाते हैं  ,तो कभी और बेहतर तरीका सोचते हैं माँ दुर्गा को  प्रसन्न करने के लिए | फूलों की लड़ियों से माँ का दरबार सजाते हुए , बिद्युत लड़ियों की झालर भी लगा कर मनोहारी रूप निहार कर , कभी मन ही मन , तो कभी मुखर हो मुदित हो लेते हैं | बाज़ार पहुँचते ही कभी तारों भरी चुनरी तलाशते हैं तो कभी वस्त्रों की छटा से मुग्ध होते हैं | पूजा की पुस्तकों से "दुर्गा सप्तशती" को भी बड़े ही आदर से माथे से लगा कर सजा लेते हैं | कलश स्थापना का मुहूर्त बीत न जाए इसके लिए सजग हो जौ बीजने को तत्पर हो जाते हैं | 

पर ये सारे विधि-विधान किस लिए ? देवी पूजन के लिए ? देवी जो मात्र  एक स्त्री हैं उनका इतना मान ? कभी अपनी अंतरात्मा से पूछ कर देखिये कि क्या हम इसके अधिकारी हैं भी ? किसी भी स्त्री के लिए दु:शासन बनने को तत्पर व्यक्ति किस ह्क़ से माँ दुर्गा को चुनरी चढाने की तैयारी का दिखावा करता है ! इससे बड़ा विद्रूप और क्या हो सकता है ! या फिर इसको हम ये मान लें कि वो भी स्त्री के दुर्गा रूप का ही आदर करता है ,क्योंकि वो उसकी दुष्प्रवृत्तियों का दमन कर सकती है |

अगर हम दुर्गा माँ के एक सौ आठ नाम न भी याद कर पायें तब भी उनके सिर्फ नौ नाम -शैलपुत्री ,ब्रम्ह्चारिणी ,चन्द्रघण्टा ,कूष्मांडा ,स्कन्दमाता , कात्यायनी ,कालरात्रि ,महागौरी ,सिधिदात्री - तो याद कर ही सकतें हैं | ये सिर्फ नाम नहीं हैं माँ के विविध शक्ति रूप हैं |  ये भी न याद रख पायें तब  भी देवी  रूप में  सिर्फ  देवी  लक्ष्मी  को  ही  न  भजें , अपितु  देवी  सरस्वती  को भी प्रमुख स्थान दें |देवी सरस्वती की महत्ता स्वीकार करने से नीर-क्षीर में भेद कर पायेंगे और अपने प्रत्येक आचरण के औचित्य को भी परखेंगे |

आज की इस विकृत मानसिकता के दौर में , स्त्री के सरस्वती रूप को याद रखना  थोड़ा  मुश्किल हो सकता है क्योंकि आमजन को लक्ष्मी पूजन करना है जिससे वो अपने ऐश्वर्य के संसाधन जुटा सके | हाँ यदा - कदा स्त्री के आत्मबल जाग जाने पर उसके शक्ति रूप से सहमना भी पड़ जाता है | परन्तु अगर सरस्वती के साधक हो जाएँ तब तो कोई  समस्या रह ही नहीं जायेगी | इसका सीधा सा कारण है कि तब स्त्री भी एक ऐसा विवेकशील व्यक्तित्व दिखेगी न कि ऐसा तत्व जिसको जब भी चाहा और जैसे भी चाहा प्रताड़ित और वंचित किया जा सके ! अगर कभी ऐसा हो जाए तो सच में कुछ अच्छा और सच्चा पढने और देखने को मिलेगा | अभी तो किसी भी दिन का समाचार पत्र देखिये अथवा टी.वी. के समाचार , एक वाक्य में आने वाले पूर्णविराम अथवा कॉमा के चिन्ह की तरह अबोध उम्र की बच्चियों के जीवन को भी लांछित करने वाले समाचार ही दिखाई देते हैं |  

बस एक ही विनम्र निवेदन है कि ,इस बार कलश - स्थापना के पूर्व स्वयं का आकलन कर लें कि स्त्री की गरिमा को समझने में हम कितने इमानदार हैं और बातों के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर कभी उसके पक्ष में आने का साहस भी दिखाएँ !
                                                             -निवेदिता                                                                                     

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

"प्रायोपवेशन"



"प्रायोपवेशन" ....... जब भी इसके बारे में पढ़ा अथवा  सोचा मानस अजीब सी दुविधा में पड़ जाता है | समझ नहीं पाती हूँ कि ये चुनौतियों से पराजय की स्वीकृति है  अथवा नित नवीन उमड़ते झंझावातों से विरक्ति ! एक पल को लगता है जैसे कि ये  समस्त  दायित्वों के सफलमना होने की अति संतुष्टि के बाद की उपजी उदास और विरक्त मानसिक स्थिति है , परन्तु  अगले ही पल लगता है कि सम्भवत:  ये एक  हड़बड़ी  में लिया गया अनुचित निर्णय है | कोई भी पल कभी भी इतना सफल  नहीं हो सकता कि  वो किसी को  इस  ह्द तक तोड़ दे कि वो सब कुछ समाप्त करने का विचार करने लगे !

सब  समाप्त करने का निर्णय कितना कठिन होता होगा और उससे भी दुरूह  होता  है उस  निर्णय को  कार्यान्वित कर पाना | सबके  लिए  निर्णय लेने में सक्षम व्यक्ति स्वयं अपने लिए ऐसा निर्बल कैसे हो सकता है कि जीवन्तता त्याग कुछ अन्य सोचे ! इस निर्णय को लेने के पहले उस के बाद की परिस्थितियों का आकलन भी करता है ,उसके औचित्य और अनौचित्य को भी भरपूर सोचता है ,तब भी इतना कमजोर कैसे हो जाता है !

इस निर्णय के पीछे अगर उसके किसी अपने के प्रति कोई दुश्चिंता छिपी रहती है , तब भी उसके  न  रहने  पर  उसका  वो प्रिय कैसे संतुष्ट  हो पायेगा ! पता  नहीं ये  कुछ  कमजोर  पलों में प्रभावी होने वाली दुर्बलता होती है अथवा कठिन लम्हों में उसका बिखराव इसका कारण होता है ! बहरहाल कारण जो भी हो ये किसी भी समस्या का समाधान तो कभी हो ही नहीं सकता | हाँ ! आने वाली नित नवीन समस्याओं का कारण अवश्य होता है ....
                                                                                                          -निवेदिता 

( प्रायोपवेशन उस अवस्था को कहते हैं जब मृत्यु की कामना करते हुए या कहूँ कि प्रतीक्षा में अन्न - जल का त्याग कर देते हैं | आत्महत्या की एक तरह से धीमी प्रक्रिया है ये | )

रविवार, 30 सितंबर 2012

प्यार के लिए बस प्यार चाहिए ......




प्यारा हो प्यार जरूरी नहीं 
प्यार के लिए बस प्यार ही चाहिए 
प्यार का दिल वीराना हो 
प्यार तो बेशुमार छलकाना चाहिए 
प्यारे का प्यार न भी मिले 
प्यार अपना बेहिसाब होना चाहिए 
प्यार दिखता नहीं तो क्या 
प्यार का एहसास भी जीना चाहिए
प्यार चाहिए ये कहें क्यों 
प्यार बस आँखों से बरसना चाहिए                  
प्यार के लिए रस्में क्या 
प्यार तो बस मन में बसना चाहिए 
प्यार में शर्तें क्या वादे क्या 
प्यार में जीने को बस एक सांस चाहिए 
प्यार में निगाहें यार के 
प्यार ,प्यार और बस प्यार चाहिए .......
                                           -निवेदिता 

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

" अभिषेक " : एक एहसास सम्पूर्ण संतुष्टि का -:)





माँ  बनना  अपने आप में एक बहुत प्यारा एहसास है | इस बात को हर माँ समझती है और एक पिता को थोड़ी सी ईर्ष्या होती है -:) अपनी पहली श्वांस से बच्चा सबसे अधिक  निकट माँ  के  ही रहता है | उसकी हर कही - अनकही  धडकनें माँ  के  दिल में ही बसी रहती हैं | बच्चे का जन्म माँ का भी एक नया जन्म होता है ,फिर उसके  जन्मदिन  की  आहट भी एक नई ऊर्जा जगा जाती है | आज हमारे छोटे बेटे " अभिषेक " का जन्मदिन है -:)

बच्चों  के  जन्मदिन  पर  उनको क्या उपहार दिया जाए हर वर्ष ये सोचते थे ,पर आज इस छोटे से बच्चे ने कितने अनोखे गौरवान्वित पल हमें दिए मैं ये अनुभूत कर रही हूँ ! जब बड़े  बेटे " अनिमेष " का जन्म हुआ हम बहुत खुश थे | बस यही लगता था कि हमारा परिवार कितना सुखी है | इन लम्हों की खुशी अभिषेक के आने से  दुगनी  हो  गयी | अब अनिमेष को भी अपने भाई का साथ मिल गया था | उन दोनों की अपनी ही दुनिया बन गयी थी ,जिसमें उनके शरारतें भी होती और एक - दूसरे के  प्रति  अगाध प्यार भी रहता | जब भी उन दोनों को देखती , बस  यही  लगता अनिमेष  ने  हमारे परिवार का प्रारम्भ किया और अभिषेक ने उस परिवार को सम्पूर्ण किया ! 

दोनों अपनी निश्छल चंचलता से सबके दुलारे बने ,आपस में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी रखते थे | जब भी स्कूल से लौटते तो दोनों अपनी कॉपी में "गुड" गिनते और हमें दिखाते | जिसका भी कम रह जाता वो दूसरे दिन की प्रतीक्षा करता ! इस प्रकार हर परीक्षा में दोनों एक - दूसरे के प्रतिद्वंदी बन जाते और एक - दूसरे की उपलब्धियों पर खुश भी बहुत होते | सब को आश्चर्य होता था पर हमारे दोनों बच्चों के अंक अपनी दोनों बोर्ड (दसवीं और बारहवीं ) की परीक्षाओं में भी एक से थे ... कक्षा दस में ९४.८ प्रतिशत और  कक्षा १२ में ९२.८ प्रतिशत ! इसके बाद दोनों आई.आई.टी.कानपुर भी आगे - पीछे पहुंचे ! इस प्रकार हमारे परिवार में बेशक हर काम की शुरुआत अनिमेष ने की , पर उसको  अभिषेक ने आगे ले जा कर परिवार के लिए सम्पूर्णता तक पहुँचा दिया |

अपने  जीवन  के  सबसे  अधिक  गौरवान्वित  पलों  को  याद  करती  हूँ  तो  सबसे  प्यारा  लम्हा  याद  आता है , अनिमेष   के  आई.आई.टी. में चुने जाने पर आने वाली बधाइयों का ! पर उसमें भी , जैसा कि दस्तूर है कुछ काँटे  भी चुभा  दिए गये कि देखो दूसरा बेटा क्या कर पाता है ! अगले ही वर्ष अभिषेक  भी  भाई का पीछा करता कानपुर पहुँच गया | सच रिजल्ट आने के बाद वाले पन्द्रह दिन तो एक सपने जैसे ही लगते हैं | मिलने वाली  बधाईयाँ  और समाचारपत्रों  में छपने वाली तस्वीरें एक तरह से जिम्मेदारियों की पूर्णता का एहसास करा रहीं थीं ! 

अनिमेष के हास्टल चले जाने के बाद घर में सिर्फ  अभिषेक  और मैं बचे | ये समय हम माँ - बेटे को कुछ और भी अभिन्न बना गया | हम लगभग हर  विषय पर बिंदास बातें करते | इस समय जब  मैं  सोचती कि अभिषेक हास्टल  में  कैसे रह पायेगा , क्योंकि वो बहुत अन्तर्मुखी था ,और मेरा बच्चा नित नये आइडिया लाता कि मैं कुछ ऐसा शुरू करूँ जिससे उसके जाने के बाद  अकेलापन  न  महसूस  करूँ ! इस एक वर्ष के समय को उसने हमारी स्पेशल दोस्ती की संज्ञा दी है ,और यदा-कदा याद दिलाता रहता है |

आज भी मेरी अनमोल धरोहर हैं अभिषेक के मेरे जन्मदिन पर बनाये गये कार्ड | ये सिलसिला उसने अक्षर - ज्ञान होने के साथ ही शुरू कर दिया था | अभिषेक के पेंट किये  हुए  रुमाल  भी मैंने संजो रखे हैं ,जो उसने कक्षा दो - तीन में बनाये थे |

आज सोचती हूँ ,अभिषेक के जन्मदिन पर उसके लिए क्या विशेष मंगलकामना करूँ ,तुमने तो अपनी हर उपलब्धि से एक सम्पूर्णता का एहसास दिया है ..... हर आती - जाती श्वासें बस तुम दोनों को ही याद करती हैं | बस एक ही दुआ है जैसे अब तक रहे हो ऐसे ही ताउम्र बने रहो ...... बहुत सारी उपलब्धियाँ हासिल हों ,पर दिल का बचपना बना रहे ..... चश्मेबद्दूर !!!
                                                -निवेदिता 


सोमवार, 24 सितंबर 2012

उम्र की दस्तक ......


हमारी पहली श्वांस से ही उम्र अपनी दस्तक देना शुरू कर देती है ,पर हम अनजान सा बने उसको अनदेखा कर जाते हैं | ज़िन्दगी के प्रारंभिक पल सिर्फ खुशियाँ और व्यस्तता बरसाते रहते हैं | कुछ उम्र का अल्हड़पन , कुछ विचारों की तीव्रतम गति किसी लम्हे पर ठिठक कर नित नई  उलझनें  देती श्वासों को थामने का मौक़ा ही नहीं देते | ये वो दौर होता है जब हर मंजिल अपनी पहुँच में और हर कठिनाई आसान प्रतीत होती है | असफलता ,तो हमें लगता है सफलता का पहला सोपान है | कोई  भी दुःख अथवा  कष्ट , कभी  लगता  ही  नहीं कि हमारे जीवन में भी आ सकता है | पर वास्तव में उम्र का सत्य हर कदम पर अपना एहसास कराता रहता है |

आने वाली हर श्वांस उम्र के एक लम्हे के पूर्ण हो चुकने का आभास देती है | आगे बढ़ता हुआ हर क़दम जीवन यात्रा की पूर्णता की तरफ  इंगित करता है | लगता है जैसे एक दायरा पूरा हो चला ! अबोधावस्था से क्रमिक ज्ञान की तरफ जाती चेतना परम की तरफ ले जाती है | जैसे - जैसे उलझनें बढती हैं सरल मन भी छल और कपट को समझने लगता है | इसको ही तथाकथित सामाजिकता और समझदारी मान लिया जाता है | 

नित बढती शक्ति और सामर्थ्य के मद में ,समस्त संसार को नश्वर और खुद को प्रबल मानने की छलनामयी भूल कर जाता है | पर यहाँ भी उम्र अपनी दस्तक से  उसको सचेत करने का प्रयास करती है | कभी नेत्रों की ज्योति कमजोर होने लगती है , तो  कभी बढ़ते कदमों की दृढ़ता लड़खड़ाने लगती है | कभी केशों में सफेदी दस्तक देती  है , तो कभी वाणी की स्पष्टता धूमिल हो जाती है | बढती  आयु  अपना एहसास कुछ  ऐसा दिलाती है कि हम पूरा शरीर न रह कर , कष्ट के अनुसार विभिन्न अंगों में बँट जाते हैं और उस पीड़ा से मुक्ति की कामना में चिकित्सक  के द्वार पहुँचने लगते हैं | पर तब भी सहजता से बढती उम्र का स्वागत न करके अफ़सोस के साए में गुम हो जाते हैं | कितना भी जीवन गुज़र गया हो ,जीना नहीं सीख पाते | 

बढती उम्र  की  दस्तक तो एक धूम्र - रेखा सी होती है , एकदम हल्की सी झलक कर शीघ्रता से ओझल हो जाने वाली | सही समय पर इस को समझ लिया जाए और अपने आचरण को सुधार लें तो कोई पछतावा नही होगा | इसके लिए हमको बस हर लम्हे का सम्मान करना आना चाहिए | अन्यथा समय निकल जाने के बाद पश्चात्ताप करना तो आसान ही है !
                                -निवेदिता 

शनिवार, 22 सितंबर 2012

मुक्तक

                     १

धरती का पानी ,
धरती पर ही वापस आना है 
पर हाँ ! उसको भी पहले वाष्प 
फिर घटा ,तब कहीं वर्षा बन 
बरस धरा में मिल जाना है ...

                     २ 

हथेलियों में जब 
मेहंदी सजी रहती है 
हाथों की लकीरों में 
ये कैसा अनजानापन 
बस जाता है !

                    ३ 

सच ! 
सच में इतना कड़वा क्यों होता है 
जब भी कभी सच बोलो 
आँखों में चुभते काँटे और 
जुबान पर ताले क्यों लग जाते है ?
 
                  ४ 

आसमान के सियाह गिलाफ़ पर 
चाहा तारों की झिलमिल छाँव 
बेआस सी ही थी अंधियारी रात 
बस किरन टँकी इक चुनर लहराई 
इन्द्रधनुष के रंग झूम के छम से छा गये 
तारों की पूरी कायनात ही दामन सजा गयी ....
                                                     -निवेदिता    

रविवार, 16 सितंबर 2012

ट्रैफिक सिग्नल सी ज़िन्दगी .......


ट्रैफिक सिग्नल सी 
टिक गयी हूँ 
ज़िन्दगी के उलझे 
चौरस्ते पर 
जब किसी की 
गति की तीव्रता को 
थामना चाहा 
तनी हुई भौंहों की 
सौगात मिली 
पर हाँ ! ये अनदेखा 
कैसे कर जाती 
सहज करती राहों पर 
बढती गति , स्मित 
बरसा मुदित सा कर जाती 
गति की तीव्रता में 
रहती है भिन्नता पर 
चौराहे को यथावत छोड़ 
कभी हास तो कभी आक्रोश बरसा 
अपनी मंजिल को बढ़ ही जाते हैं 
वो चौराहा और उसका सिग्नल 
दोनों ही एक सा ठिठक 
निहारते रह जाते  हैं 
बस पूर्ण करने 
एक दूजे के अस्तित्व को .....
                                 -निवेदिता 

बुधवार, 12 सितंबर 2012

सवालों की उलझनें .......


हर कदम पर
ज़िन्दगी मुझसे
और मैं भी
ज़िन्दगी से
सवाल पूछ्तें हैं
इन सवालों के
जवाब तलाशती
राहें भी कहीं
अटक सा जाती हैं
नित नये सवालों की
उलझनें सुलझाती
और भी उलझती सी
मन के द्वार तक
दस्तक नहीं दे पातीं
एक अजीब सा
सवाल जगा जातीं हैं
हम वो सवाल भी
क्यों हैं पूछते ,
जिनके जवाब
हम देना नहीं चाहते
शायद सवाल तभी
जाग पातें हैं
जब जवाब देने का
ज्ञान कहीं सो जाता है
अनजानी-अनसुलझी
वादी में मन बावरा
भटक जाता है ....
                    -निवेदिता 

रविवार, 9 सितंबर 2012

तलाश लिया तुमने बाईपास .....


कभी ओस की बूँद कहा
कभी पलकों तले का स्वप्न
कभी फूलों से मिलाईं
सुरमयी सुरभित मुस्कान
नाता भुला कर दिया  कभी
कोमल पावन दामन तार-तार
कभी प्रस्तर मूरत बना
नानाविध पकवान्न सजाये
भोग लगा आप ही उदरस्थ कर गये
न्याय के दरबार में भी सजा दिया
पर रहे आदत से लाचार
हाथों में तो थमा दी न्याय की तुला
नयनों की रोशनी छीन बाँध दी पट्टिका
अब तो जो तुम बोलो वही सुनूँ
जैसा वर्णित करो वही अंधी आँखें देखें
प्रस्तर बन गयी मूरत में भी धडकन बन
दिल अभी शेष है ,कभी उसको भी तो देखो
इन शिराओं में आया कैसा अवरोध
गतिरोध बन रक्त प्रवाह थाम रहा
रास्तों में ही नहीं रिश्तों में भी
तलाश लिया तुमने बाईपास .....
                                     -निवेदिता


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

यत्र नार्यस्तु .........


जब बहुत छोटी थी , तब भी सुना था " यत्र नार्यस्तु पूज्यते , रमन्ते तत्र देवता "  ..  जैसे - जैसे पढने की अभिरुचि विकसित हुई और विद्यालय के पाठ्यक्रम में भी स्त्रियों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा .... कभी " अबला जीवन " की कहानी ,तो कभी " तोडती पत्थर " या फिर कभी " खूब लड़ी मर्दानी " तो अगले ही पल " नीर भरी दुःख की बदली "... जब शेक्सपियर को पढ़ा तो पता चला  "Frailty thy name is woman "......  अजीब सी उलझन जगाती ये पंक्तियाँ ... इनमें कहीं भी स्त्री अपने सहज रूप में ,एक संतुलित इंसान के रूप में नहीं दिखी .. 


बहुत पहले का समय देखें अथवा अब का अधिकतर हर स्तर पर अग्निपरीक्षा स्त्री की ही होती है .. आज भी अगर  सड़क  पर  किसी  स्त्री को  अपशब्द  सुनाये जाते हैं तब भी अधिकतर का ध्यान उस स्त्री को पीड़ा देते शब्दों पर और उस स्त्री पर ही होता है , उस समय एक भी निगाह उस शख्स को नहीं देखती जो ऐसे अपमान करते शब्दों का विष - वमन करता है .. स्त्री का पल्लू खींचा ये तो सब देखतें है पर उस पल्लू को खीचने वाले हाथों को रोकने का साहस नहीं करते हैं .. स्त्री के परिधान और चरित्र की शव विच्छेदन करने में जितना कम समय लगाते हैं ,उससे भी कम समय में तथाकथित वीरता का महिमामण्डन कर गुजरते हैं .. आमजन को कुछ भी सार्थक करने में होने वाला परिश्रम करना बेहद दुष्कर लगता है ,इसीलिए अपेक्षाकृत सरल काम कर देते हैं अपने मोबाइल से वीडियो बनाने का ....

अक्सर लगता है , कि हम किसी अघटित के घटने की प्रतीक्षा करते हैं .. जब कोई घटना समाचार - पत्र अथवा टेलीविज़न पर छा  जाती  है , तब उसपर अपना आक्रोश और प्रतिक्रियाएं देने की होड़ सी लगा देते हैं ,कि हम कितने सम्वेदनशील हैं .. कभी भी ये प्रयास क्यों नहीं करते कि ऐसी कोई घटना हो ही नहीं .. पीड़ा में अथवा ये कहूँ सम्भावित पीड़ा में अपना और अपने अपनों का चेहरा हम क्यों नहीं देख पाते .. 

बहुत सोचा ,पर इसका ठोस कारण ,जो लगभग हर परिस्थिति में मान्य हो ,नहीं खोज पायी .. अब लगता है कि अगर इसका समाधान पाना है तो हमको खुद अपनी क्षमता का आभास करवाना होगा .. अपनी क्षमता के आभास से मेरा तात्पर्य सिर्फ यही है कि उन अत्याचारी हाथों से हम स्त्रियाँ हर पल जुडी हैं .. उन हाथों को थाम कर पहला कदम रखना सिखानी वाली  माँ  एक स्त्री ही है .. उस  कलाई  पर रक्षासूत्र बाँधने वाली बहन भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों से लगा सिन्दूर अपने माथे पर धारण करने वाली भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों में अपना हाथ थमा कर कन्यादान करवाने का तथाकथित पुण्य दिलवाने वाली बेटी भी एक स्त्री ही है .. अगर ये सब स्त्रियाँ अपनी सामर्थ्य को पहचान कर ,उस हाथ को आततायी बनने ही न दें .. पहली गलती करते ही उन  हाथों को  थामने का और आवश्यकता पड़ने पर तोड़ देने का साहस करना ,स्त्रियों को सम्मान दिलवाने की दिशा में पहला और बहुत सार्थक कदम होगा .. सामान्यतया होता इसके विपरीत ही है .. अगर गुनाहगार हमारा अपना होता है ,तब समस्त सामर्थ्य लगा देते हैं अपने को निर्दोष और पीड़ित को दोषी साबित करवाने में ..

सिर्फ स्त्रियों पर इस का दायित्व डाल देना और पुरुषों को सर्वथा मुक्त कर देना ,तो ऐसा लगेगा कि हम सिर्फ सुरक्षा के उपाय खोजने में ही लगे हुए हैं , न कि  संकट  को समाप्त  करने में ..पुरुषों को भी याद रखना चाहिए कि उनको जन्म देने वाली एक स्त्री  ही  थी , उनकी मंगलकामना करती बहन भी स्त्री  है , हर परिस्थिति में उनका आत्मबल बढ़ाने वाली उनकी पत्नी भी स्त्री ही है , अपने नन्हे किलकते बोलो से घर आंगन भरने वाली बेटी भी स्त्री ही है .. स्त्री के इन सभी रूपों के प्रति वो अतिरिक्त रूप से सजग रहता है ... जब भी कभी भी स्त्री के प्रति कुछ भी उसकी अस्मिता के विरुद्ध होता दिखे ,तो उसको बस अपने जीवन को एक सुखद अनुभूति बनाने वाले इन सभी स्त्री रूपों  को याद कर उसका प्रतिकार अवश्य करना चाहिए .. समाज  को  अपना  परिवार मान कर दूसरी स्त्रियों की प्रतिष्ठा की सुरक्षा भी अपने परिवार की अन्य स्त्रियों की तरह करनी चाहिए .. किसी भी स्थिति में मानसिक दीवालियेपन का परिचय नहीं देना चाहिए .. स्त्री को एक व्यक्ति मानना ही इस समस्या का समाधान हैं .. किसी ऐसे अघटित के घटित होने पर मात्र दर्शक न बन कर ,एक दृढ प्रतिरोधक भी बनना चाहिए ...

ऐसी कोई भी घटना जब घटित होती है तो कुछ समय तक टेलिविज़न और हर तरह की चर्चाओं में प्रमुखता से छाई रहती है  कुछ समय बाद वो एक दृष्टांत भर बन के रह जाती है .. लगता है अगली की प्रतीक्षा रहती है और सब ये माने रहते हैं कि उनके परिवार के साथ तो किसी भी परिस्थिति में ऐसा नहीं होगा ,यद्यपि ऐसी कोई गारंटी नहीं होती ,तब भी .. उस अवांछनीय घटना के न घटित होने के कोई भी उपाय नहीं किये जाते हैं ...

इस समस्या का उपाय एकांगी हो कर नहीं पाया जा सकता .. स्त्री अथवा पुरुष ,ऐसा न सोच कर व्यक्ति बन कर सोचा जाए तभी व्यक्तित्व का भी विकास होगा और समाज का भी .. एक -दूसरे पर दोषारोपण किसी समस्या का समाधान नहीं है , क्योंकि पूर्ण रूप से कोई भी संतुलित नहीं है ...
                                                                                                                                                 -निवेदिता 
                                                                                                                                                                          

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

आज ........ कल ........

मेरी यादों में 
मेरे वादों में 
मेरे इरादों में 
किलकता 
मेरा जो "हास" है 

पलकें थकने पर 
श्वासें अटकने पर 
सब के सब्र की
इति होने पर 
हाँ बस यही कल 
मेरा "इतिहास" है !!!
            - निवेदिता 


सोमवार, 3 सितंबर 2012

इक नया आसमान तलाशना है !!!



पाँव के नीचे सच की जमीं 
ख़्वाबों को नया आसमां दिया  
दिल की धडकनों में बस 
नित घटती श्वांसों में भी 
अलबेला जीवन सजा दिया
हाँ सच कहते हो कडवाहटें
हमेशा घेरा डाले  रहेंगी
प्रदूषित भी है हवा तो क्या
श्वांस लेना तो नहीं छोड़ देंगे
चुभते हैं कंकड़ पांवों में
पग बढाने का साहस
हमें ही तो करना पड़ेगा 
इन ज़हर बरसाती निगाहों 
कंटक सा चुभती बातों में ही 
इक नया आसमान तलाशना है !!!
                                     -निवेदिता 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

क्यों कहूँ मैं पीछे ..............


भला बताइए तो इस नारी मुक्ति के और नारी जागरण के समय में हम पीछे क्यों रहें ! जब देखो सब टिका जाते हैं तुम बेचारी स्त्री हो समाज तुम्हे चैन से जीने नहीं देगा ... बस मेरे पीछे ही रहो | हमारी भी कोई गलती नहीं | हम तो जीवन की पहली साँसे लेने के साथ ही परम्परावादी बन अनुसरण करते रहे | पूरी कोशिश की इतना कम पढने की ,कि विद्यालय में पीछे की कुर्सी मिले | पर  उफ़ ये सहपाठी , पता नहीं  कैसे हमसे भी कम पढ़ते और मजबूरन हमको अग्रासन मिल जाता ! खेल के मैदान में पीछे रहने का प्रयास किया तो यहाँ भी किस्मत हमसे पहले ही अट्टहास करती पहुंच गयी और हम डिफेंडर बना दिए गये !अब देखिये हमारी क्या गलती .... हमने पूरे मनोयोग से ये प्रयास किया था ,पर सफल न हो पाए   (

अगर थोड़ा और पीछे देखा जाए ,मेरा तात्पर्य है मेरे जन्म से ,तो यहाँ भी हम इंतज़ार करते रहे और अपने चारों भाईयों के बाद प्रगट हुए | पर यहाँ भी भाईयों ने दुलार - दुलार में सबसे आगे रखा  -:) कोई कुछ भी कह ले बात तो हमारी ही मानी जानी थी | कैशौर्यावस्था में आते ही फिर सलाहकारों ने हमारी माँ की घेराबंदी की " अब तो कुछ सिखा दो | दूसरे घर जायेगी परिवार की नाक कटा देगी | " वगैरा - वगैरा .....

अब जब शादी निश्चित हुई तब हमने भी सोचा थोड़ा शालीन बनने की ट्रेनिंग ली जाए | पर हाय रे देश का दुर्भाग्य ! ऐसे किसी ट्रेनिंग कैम्प का पता चल पाने के पहले ही शादी की तिथि द्वारे खडी शहनाई बजाने लगी  -:)  भाभियों ने समझाया " थोड़ा चुप रहना और हमारे इशारे को देखना | " मंडप में बाकायदा नाउन को समझाया गया कि वो हमारे सर को नीचे की तरफ दबाए रखे | मंडप में जैसे ही फेरे पड़ने शुरू हुए हमने पतिदेव को अपने साथ बंधने की चेतावनी देने के लिए ,बाकायदा गठ्बन्धन के दुपट्टे को थोड़ा सा झटका भी दिया और उनकी तीव्र गति को नियंत्रित करने का प्रयास किया | अब बदनाम तो बेचारी मैं ही होऊँगी पर क्या करती चार फेरों के बाद पंडित जी ने फिर से हमको आगे कर दिया  .......

ससुराल पहुंचने पर गृहप्रवेश के समय भी ,मेरी सासू माँ ने आरती करते समय ,दिशा के अनुसार ,मुझको आधा कदम आगे कर दिया  | अब बताइए मेरी क्या गलती बिना मेरे कुछ बोले भी हर जगह मुझे आगे ही कर दिया जाता है | रही - सही कसर हमारे बच्चों ने पूरी कर दी | कभी भी कहीं जाना हो अथवा कुछ करना हो तो उनकी एक स्वर में मांग रहती " पहले आप !" 

अब इस नारी - मुक्ति के समय में मैं इन आंदोलनों का हिस्सा नहीं बन पाती हूँ ...(  बहुत कारण खोजे और मनन किया  तभी अचानक ज्ञान - चक्षु खुल गये कि मुझे  इन  आंदोलनों  की अथवा अपनी अनिवार्यता जताने की आवश्यकता  क्यों  नही  पड़ी !  दरअसल कभी भी  मैंने अपने स्त्री होने को लेकर शर्मिन्दगी नहीं महसूस की | अपनी गरिमा को भी समझा और अपने दायित्वों को भी | बस अब तो हमें किसी को कहना ही नहीं पड़ता "मुझे आगे बढने का अवसर दो !" 
                                                                                                                                                                              निवेदिता 

सोमवार, 27 अगस्त 2012

मैं डर जाती हूँ .... क्यों ?


जब भी गूँजी कहीं गोली की आवाज़ 
या बिखरी कहीं किसी दंगे की बात 
बेसबब ये बाँहें फ़ैल गयी 
चाहत उभरी इस पूरे जहान को 
अपने विश्वास के दरकते दामन में 
समेट कर सबसे ओझल कर देने की 
हर वहशत ,हर दहशत से बचा 
अपनी कोख में वापस छुपा लेने की 
जब तुम्हे दिखेगी हर तरफ सिर्फ ...
हाँ ! सिर्फ और सिर्फ माँ 
एक ऐसी व्याकुल सहमी माँ 
जो परेशान है ,तुम्हारी सलामती के लिए 
शायद तब तुम्हारे हाथ काँप जायेंगे 
कभी बंदूक तो कभी शमशीर उठाने से 
माँ नहीं सह सकती तुम्हारी तरफ उठी पलक भी 
तुम भी तो हर तरफ दिखती माँ पर 
प्रहार करने से पछताओगे 
अब भी तो रुको कभी तो सोचो 
भागते कदमों की आती आवाजें 
लुढ़कते  पत्थरों की आती धमक 
लहू की बहती अजस्र धार 
मैं डर जाती हूँ .... क्यों ?
क्योंकि मैं तो सिर्फ माँ हूँ 
तुम्हे सलामत देखना चाहती हूँ !!!
                                         -निवेदिता 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

डगमगाते कदमों में आती दृढ़ता .....


                                                                                 बेटे अनिमेष के साथ में ...-:)

आज हमारे बड़े बेटे " अनिमेष " का जन्मदिन है ! 
हर बार यही अचरज सा लगता है कि कब हमारा इतना छोटा सा बेटा बड़ा भी हो गया | आई.आई.टी. कानपुर में बी.टेक.के चतुर्थ वर्ष में है | ये वर्ष एक बार फिर से उसको एक नई उपलब्धि दे सकता है ! एक तरह से पढाई पूरी होने वाली है | अब एक नई  रौशन दुनिया अपना सम्पूर्ण विस्तार लिए सामने है | प्लेसमेंट के लिए नई - नई कम्पनियाँ उनके कैम्पस में आ रही हैं | बहुत अच्छा लगता है जब अनिमेष और उसके साथी अपना रिज्यूमे बनाते हुए एक - दूसरे को सलाह देते हैं ,अथवा कम्पनियों के बारे में विमर्श करते हैं | लगता है अभी कल की ही तो बात है कि मैं सुबह - सुबह उठाती थी स्कूल जाने के लिए और आज वक्त ने एक नई करवट बदली जब छोटा सा बच्चा बड़ा हो आफिस जाने की दिशा में एक जिम्मेदारी भरा कदम बढ़ा रहा है | ठुमक भरे डगमगाते कदमों में दस्तक देती दृढ़ता ,उसके सपनों को एक नया विस्तार दे ....बस चश्मेबददूर !!!
                                                                    -निवेदिता 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

" ट्री गार्ड "


अक्सर मौसम बदलते ही मेरी निगाहें उस मौसम में पनपने वाले नये पौधों की तलाश में रहती हैं | इस बार सोचा कि घर के अंदर के स्थान पर घर के बाहर भी पौधे लगाये जाएँ ,फुटपाथ पर | नाज़ुकमना पौधों को असुरक्षित सडक पर अनदेखा छोड़ने का साहस नहीं कर पा रही थी | ये सडकें तो ऐसी हो गईं हैं कि एक जीता जागता इंसान या कहूँ बेटियों के लिए असुरक्षित ही रहती हैं | पता ही नहीं चलता कि कब कौन सा हाथ दू:शासन बन जाएगा और आते - जाते राहगीर कुरुसभा के दिग्गज महारथी बन असहाय सा दीखते हुए चीर - हरण का वीडियो बनाने में व्यस्त हो जायेंगे | माली से बात की तो उसने सबसे पहले ट्रीगार्ड की मांग की | बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में ट्री गार्ड का फलसफ़ा समझाया कि भले ही बाद में पौधे मजबूत वृक्ष बन जायेंगे पर शुरू में तो उनको एक सुरक्षित परिवेश चाहिये ,जिससे आवारा पशुओं की कृपादृष्टि से वो बच सकें ! 

अल्पशिक्षित माली की बातों को सुन कर ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा सच ,अनायास ही समझ में आ गया | शिशु - जन्म के आभास के साथ ही पूरा परिवार अजन्मे शिशु के लिए एक ट्री गार्ड बन जाता है | ये सिलसिला जन्म के साथ ही पूरा नहीं हो जाता ,अपितु उसके क्रमिक विकास के साथ ही विभिन्न रूप बदल - बदल कर उसके साथ चलता है | ज़िन्दगी में हर कदम पर आनी वाली चुनौतियों के सामने कभी मनोबल बन कर ,तो कभी साथी बन कर उत्तरोत्तर बचाने को प्रयासरत रहता है | मुझे लगता है कि इसका नाम ट्री गार्ड गलत है ,इसको तो अविकसित पौधों की सुरक्षा के लिए लगाया जाता है न कि वृक्ष को सुरक्षित रखने के लिए | 

कभी-कभी ट्री गार्ड की वजह से सिर्फ पौधे ही नहीं बचते ,अपितु राहगीर भी कंटीली डालियों से बच पाते हैं | गुलाब के फूल पहली निगाह में ही आँखों को रोक कर हाथों को बढने को विवश करते हैं उन को तोड़ने के लिए  ,इस क्रिया में अक्सर हाथ काँटों की खरोंच का पारितोषिक भी पा जाता है | पर जब यही पौधा ट्री गार्ड में सुरक्षित होता है ,तो तोड़ने वाले हाथों की निगाहें उन चुभ सकने वाले काँटों को भी देख लेतीं हैं | ऐसे अपराधों के प्रति जागरूकता रखने वाले नागरिक कोमल कलियों सी बच्चियों के लिए ट्री गार्ड बन सकते हैं | पर फिर वही बात ,बन सकते हैं .पर बनते नहीं हैं .......

अगर ट्री गार्ड मानवीय जीवन के सन्दर्भों में देखी जाए ,तो हर श्वांस उनकी शुक्रगुजार है | मिस्त्री के धागे की ठोकर की तरह , ये लगभग समाज के और सम्बन्धों की हर कुरूपता का पूर्वाभास सा करा जाती हैं और सुरक्षा के प्रति चेता सा देती हैं | वैसे ये ट्री गार्ड सरीखे दायरे उस समय तो बड़े ही बोझिल और जीवन की गति को कम करते लगते हैं ,परन्तु बाद में लगता है पौधे के सुरुचिपूर्ण आकार और दृढ़ता के लिए ये बेहद अनिवार्य थे | 

आज मैं भी अपने जीवन के हर ट्री गार्ड के प्रति आभारी हूँ और प्रयास करूंगी कि मैं भी एक अच्छी ट्री गार्ड बन पाऊँ !
                                                                                                                                      -निवेदिता 
                                                                                                                                             

सोमवार, 20 अगस्त 2012

ऐ जाते हुए लम्हों ......



आज अनायास ही गुजरते जाते लम्हों ने अपने महत्व का एहसास दिला ही दिया | लगता है हम सब ही अपना जीवन एक बँधी-बंधाई लीक पर बिताते चलते हैं | किसी भी पल के औचित्य का या उसकी क्षणभंगुरता का ध्यान रहता ही नहीं | ये बात तो अपने नन्हे-मुन्नों को भी हम सिखाते हैं कि गया हुआ समय वापस नहीं आता , पर क्या हम खुद इस के निहितार्थ को समझ पाये हैं ? पता नहीं क्यों , पर मुझे ऐसा नहीं लगता | हम सामाजिक  पैमानों पर कितने भी सफल अथवा असफल हुए हों पर औरों द्वारा खींची गयी लकीर पर चलना ही जीवन समझते हैं | यहाँ मेरा ये तात्पर्य कतई नहीं है कि हम इन मूल्यों का पालन न करें | मैं तो बस ये जानना चाह रही थी कि क्या हम अपने पूरे जीवन में एक भी सार्थक काम कर पाते हैं ! 

हर पल में हमारी सोच सिर्फ मैं ,मेरा या मेरे लिए के दायरे में ही घूमती रहती है | ये दायरा कभी - कभी इतना छोटा हो जाता है कि सब कुछ सिर्फ स्वार्थ लगता है | ये हमारे स्वार्थी होने को नहीं दर्शाता , क्योंकि अपने दृष्टिकोण के अनुसार हम अपने कर्तव्यों का ही निर्वहन कर रहे होते हैं | अपने  बच्चों , अपने परिवार की खुशियों का ध्यान ही तो रख रहे हैं | 

ये संयुक्त परिवार की हिमायत में नहीं ,अपितु संयुक्त समाज की उम्मीद में सोच रही हूँ | अगर हमारे पडोस में किसी को आवश्यकता है तो हम उम्मीद करते हैं कि वो हमसे कहे और बाद में अपने सहयोग की स्वीकृति की भी चाहत रखते हैं | घर में काम करने वाले सहायकों ,जिनका पूरा-पूरा योगदान रहता है हमारे घर को नित नई चमक देने और उसको बनाये रखने में , उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को अनसुना कर देते हैं | हम अपना सहयोग भी सिर्फ उनको ही देते हैं जिनसे ये अनकही सी उम्मीद हमको रहती है ,कि हमारी जरूरत के समय वो भी हमे सहयोग करेंगे | हमारा ऐसा व्यवहार हमको किसी के सहायक के रूप में न दिखा कर ,ऐसा लगता है हम अपने तथाकथित अच्छे कार्य को बैंक  में जमा कर रहे हैं जो जब भी हमको जरूरत पड़ेगी हम अपने हित में प्रयोग कर लेंगे | 

अपने जीवन को सिर्फ घर से कार्यक्षेत्र और कार्यस्थल से घर में समेट कर ही प्रसन्न हो लेते हैं और अगर मात्र गृहणी हैं तो घर की चारदीवारी की खरोंचों की मरम्मत में ही व्यस्त रहते हैं | ऐसा बिताया गया जीवन वास्तव में क्षणभंगुर ही होता है जिसके अंत के बाद घरवाले भी यांत्रिक रूप से उसके मोक्ष के लिए कर्मकांड कर के भूल जाते हैं | 

हम अगर कोई बहुत बड़ा काम न भी कर पायें ,तब भी कम से कम किसी के लिए कुछ मुस्कराते लम्हों को लाने का प्रयास ही कर लें | किसी के उदास लम्हों में उसके कंधों पर हाथ रख कर उसको अकेलेपन के एहसास से निकालने की पहल कर लें | किसी की बोझिल दिनचर्या को थोड़े से जीवंत पल ही दे लें | बहुत कुछ कहना चाहने वाली खामोश जुबां को कुछ कह पाने का साहस ही दिला लें | अगर ऐसे ही छोटे - छोटे पल अपने जीवन में शामिल करलें ,तो कोई भी डिप्रेशन का शिकार नहीं होगा | इस के लिए कुछ विशेष नहीं करना है बस अपने दायरे में एक छोटी सी सेंध ही लगानी है | सद्प्रयास के द्वारा उन जाते हुए लम्हों को एक हल्की सी  स्मित के साथ विदा करने के लिए इतना सा ही तो करना है ......
                                                                                              -निवेदिता 

रविवार, 19 अगस्त 2012

मुझे प्यारी है .......


मुझे प्यारे हैं मेरे हाथ 
इन्हें पकड़ माँ ने मुझे 
और मैंने तुम्हे 
चलना सिखाया होगा


मुझे प्यारी है हर इक निगाह
इन में ही कोई निगाह तेरी 
कभी कहीं भटकी तो
कभी मुझे पे अटकी भी तो होगी 



मुझे प्यारी है हर इक सांस 
इन आती जाती साँसों ने 
जीवन का मर्म समझाया होगा 
                                  -निवेदिता 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

रुमाल ...


 रुमाल ......
एक छोटा सा 
टुकडा है कपड़े का
कभी रूखा - रुखा बन 
लकीरें खींच जाता है 
कभी कोमल कपोत सा 
सहला तन्द्रिल कर जाता है .... 

रुमाल ......
एक आस है 
रुक्षता को दुलरा 
अनपेक्षित को छुपा 
सब साफ़ कर पाने की 

रुमाल .....
सबसे खूबसूरत है 
आँखों के नीचे जुड़े 
प्रिय के हाथों के रूप में 
वेदना झरने के पहले 
समा जाए उस अंजुली में .......
                           -निवेदिता 

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

डोली और अर्थी


डोली और अर्थी 

एक सी होती हैं 
दोनों को उठाने के लिए 
कंधे चार ही चाहिए 
दोनों पर खिलते फूलों की 
अनवरत बरसात चाहिए 
दोनों के पीछे चलती हैं 
जानी अनजानी शक्लें ,
दोनों को ही भिगोती 
कईयों की अश्रुधार है !

पर हाँ ! 
एक कदम चलते ही 
अलग -अलग होती 
दोनों की किस्मत है 
डोली पर बरसे फूलों में 
छिपी - छिपी सी दिखती
नवजीवन की आस है 
डोली के आँसुओं में 
फिर मिलने की आस है !
अर्थी पर बिछे फूल जतलाते
जीवन की क्षणभंगुरता 
अनजाने अनिवार्य सफर की 
यही तो अनचाही शुरुआत है !

दोनों को ही मंजिल 
मिलनी है अनदेखी 
एक में सृष्टि की आस है 
दूजी हर तरफ से निराश है ........
                                -निवेदिता