मंगलवार, 27 नवंबर 2012

ये ज़िन्दगी ......


ये ज़िन्दगी
शुक्रगुजार है
अब तक
आती जाती
हर इक
सहमी और
खिली खिली
श्वांस लेती
हर श्वांस की !

ये ज़िन्दगी
कर्ज़दार  है
उन दुलार भरी
तोतली बोली की
जिनसे मिश्री
घुलती गयी
तीखे पलों में !

ये ज़िन्दगी
बेबस है
उन चुभती
तीखे काँटे सी
अनावृत्त करती
आवाजों और
निगाहों के
उच्छिष्ट पर !


ये ज़िन्दगी
शर्मसार है
हर उस
अनबोले पल की
जिसका दर्द
दूसरे ने
अनकिया सा
हो भुगता है !


रविवार, 25 नवंबर 2012

एक सम्मन नक्षत्रों का .....


आज एक कागज़ 
अपना पता पूछते 
फिर से चला आया 
हाँ !मेरे ही हाथों में 
समेटे हुए अपने में 
चंद गिनतियाँ और 
नाम भी नक्षत्रों के 
लगा एक सम्मन सा 
क्यों ? 
अरे उसमें टंका था 
मेरे नाम का 
प्रथमाक्षर .....
वो समय .. वो तिथि 
जब ली थी मैंने 
अपनी पहली सांस !
पता नहीं क्यों 
पर वो अजनबी सा 
अनपहचाना ही 
रह गया ...
शायद वो जन्म का 
बस एक नन्हा सा 
लम्हा बना रह गया 
जन्म - कुंडली सा 
विस्तृत - विस्तार 
अभिनव - आयाम 
तो तब मिला 
जब आये तुम साथ !
                            -निवेदिता 


सोमवार, 19 नवंबर 2012

जाय बसो परदेस पिया .......

विशिष्ट पर्वों पर होने वाली सफाई कई भूली - बिसरी चीजें सामने ला देती है । इसमें कभी - कभी ऐसे सामान भी मिल जातें हैं जिनके लिए दूसरों को कठघरे में खड़ा कर दिया गया था । इस बार की विशद सफाई अभियान का परिणाम  बहुत  सुखद रहा और थोड़ा सा यादों के अतल गर्त में ले जाने वाला भी ..... 

इस बार सफाई करते हुए ,हम प्रस्तर युग में पहुँच गये ..... बहुत ढेर सारी चीज़ें मिल गयी जिन्हें हमने कितने जतन से सम्हाल रखा था ! लग रहा था हमने  अपनी  जीवन की यात्रा रिवर्स गियर में शुरू कर दी हो । कहीं  बच्चों की  बनायी हुई ,या कहूँ उनकी कारस्तानियाँ अपनी खिलखिलाती स्मृतियाँ लिए कभी स्मित तो कभी अट्टहास देती गईं  :)

 थोड़ा और पीछे की जीवन यात्रा के सामान भी मिले । पर जिसने  एकदम से गति अवरुद्ध कर दी तो वो थे एकदम प्रारम्भिक अवस्था में लिखे पत्र , मानी हुई बात है पतिदेव के ही अन्य का बताने का खतरा तो अब भी नहीं ले सकती  :)  

जैसे - जैसे उनको पढ़ती गयी एक रहस्य पर से पर्दा भी उठता गया ।ये डाबर कम्पनी अपने शहद में इतनी मीठी मिठास कहाँ से चुरा लाती है ! अब जब हमेशा साथ में रहना है तो भई डायबिटीज़ तो होनी ही थी ..... और पत्र लिखने से भी । रही - सही कसर इस हाथ में थमे हुए मोबाइल ने पूरी कर दी । कभी रूठने पर गलती से , अब कभी -  गलतियाँ तो हर किसी से हो  ही जाती  हैं , किसी में मनाने की दुर्लभ कामना जाग ही जाए , तो बस एक मेसेज भेज दिया और हो गयी  कर्तव्य की इति ! दिक्कत तो तब आती है जब तापमान दूसरी तरफ का भी बहुत अधिक हो और उसने बिना पढ़े ही बस एक डिलिट का आदेश मोबाइल को थमा दिया । अब जरा सोचिये  इस संदेश की जगह वो पुराने जमाने वाला पत्र होता तो जब शान्ति छा जाती तो उसको पढ़ा जा सकता था । यहाँ तक कि फटा हुआ भी जोड़ - जोड़ कर पढने काबिल बना लिया जाता ! वैसे भी ये  मेसेज तो  लिखे भी जल्दी में जाते हैं और पढ़े तो उससे भी जल्दी में । कभी - कभी तो मेसेज बाक्स की सफाई में कई ऐसे अनपढ़े भी दिख जाते हैं ।

बस इसीलिये एक तमन्ना जागी है कि जाय  बसो परदेस पिया ...... हमारी कमी को भी समझो और थोड़ी सी मिठास वाला पत्र भेजो । अगर बाहर नहीं जाना है तो चलो थोड़ा समझौता हम भी कर लेते हैं , आफ़िस से ही ड्राइवर के हाथ पत्र भेजो । अरे भई जब लिखोगे तभी तो हमारी बारे में भी सोचोगे ...
                                                                                                                                                 -निवेदिता 

शनिवार, 17 नवंबर 2012

एक अन्धेरा एहसास .....



अमावस 
क्यों डरा जाता है 
ये अकेला सा एहसास 
इसमें अंधियारा ही तो नहीं 
कहीं रह जाते कुछ एहसास 
आने वाली उजली किरणों के 
पर हाँ ! जब तक ये रहता है 
सब ढांप लेता कालिख पुती 
अंधत्व की चादर में 
उजले से लगते लम्हे भी 
धुंधलाते कोहरे में छुपी 
ख़ामोश गहराइयों में 
गुम बेआवाज़ हो जाते हैं 
हर रोज़ मायूस चाँद 
अपनी रौशन चांदनी 
बढ़ा असफल सा खोजता 
निराश हो पूनम से 
अमावस के चिर सफ़र पर 
चल छोड़ जाता है फिर 
एक अन्धेरा एहसास 
अमावस का ...........
                  -निवेदिता 

शनिवार, 10 नवंबर 2012

खिलौना माटी का

आज शाम हम अपने घर के पास के बाज़ार में गये । वहाँ  की चमक - दमक जैसे हर आने वाले को थामे रखने का प्रयास कर रही थी । हर कदम पर कोई न कोई वस्तु सजी हुई बिकने को तत्पर हर आने वाले   को  निहार रही थी , और उससे भी दोगुनी अधीरता  उसके  मालिक की निगाहों में थी । लग रहा था कि हर कोई किसी अपने के बिक जाने पर प्रफुल्लित हो रहा था ।

आज के बाज़ार में ,सबसे अधिक स्थान मिट्टी से बने सामानों ने घेर रखा था - कहीं वो चिराग के रूप में थे , तो कहीं किसी सलोनी सी मूरत  के रूप में । वहीं वो खरीदार के रूप में भी थी । जब भी कोई किसी चिराग को खरीदना चाह रहा था , उस नन्हे से चिराग का  ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण करता था कि उसका आकार सही  है अथवा नहीं ....... कहीं किसी  कोने  में  टेढ़ा तो नहीं रह गया अथवा उसका तल असमतल तो नहीं है अन्यथा जलाए जाने पर सारा तेल बह कर नष्ट हो जाएगा ।

उस नन्हे से चिराग का ऐसा सूक्ष्म अवलोकन करने वाले , इस कटु सत्य को  सर्वथा भूल ही जाते हैं कि उस चिराग ने तो बस कुछ घंटे ही जलना है ,परन्तु खरीदार के रूप में सामने खड़ा एक माटी का खिलौना ही है ! इसको तो पूरी उम्र भर साथ रहना है और खिलौने के टूट जाने पर उसका नाम ( ? ) रह जाएगा । अपनी अंतरात्मा का सूक्ष्म अवलोकन तो हम  गलती से भी कभी नहीं करते हैं । अपनी सोच की विकृतियों के बारे में सोचना तो दूर स्वीकार करना भी बहुत दुष्कर हो जाता है । अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार को देखना तो एक असम्भव कार्य लगता है ।

एक - दूसरे को हम हर वर्ष याद दिलाते हैं कि बिजली की लड़ियों  के  स्थान  पर मिट्टी के चिराग को ही रौशन करेंगे , परन्तु जब  व्यवहारिकता में ये बात उतारने की बात आती है तो  हम  उसमें लगने वाले तेल - घी और सबसे बढ़ कर श्रम को याद करके बिद्युत - वल्लरी से घर सजा लेते हैं । इस माटी के खिलौने को सुविधा का नशा कुछ अधिक ही हो गया है !

आज तो बस यही लग रहा था मिट्टी ने मिट्टी को खरीदा । ये खरीदने  वाली  मिट्टी विचित्र सी दृष्टि रखती है .... इसकी दूर की निगाहें तो बहुत तीखी हैं  परन्तु अपने एकदम पास की चीजों को परख सके और निखार सके ऐसी निगाह है भी नहीं और इसकी चाहत भी नहीं है ....... पर कभी कभार ये सोच लेना चाहिए कि एक दिन इस माटी को भी माटी में ही मिल जाना है !
                                                                                                           -निवेदिता 

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

क्या शगुन क्या अपशगुन .....

किसी की राह देखी 
कही नजरें बिछायीं 
क्यों कहीं राह में देख 
कैसे हैं नजरें बचाईं 
सुगंध और सुमन से 
दोनों है सजे संवरे 
एक जीवंत उमंग 
दूजी निर्जीव तरंग 
एक पिया संग चली 
दूजी पिया से है जली 
एक नया घर बसाने चली 
दूजी बसा घर छोड़ चली 
एक नये जहाँ में चली 
दूजी इस जहाँ से चली 
दोनों ही साए एक से 
कैसे कहूँ कौन सा रंग 
सजाये शगुन सा 
कौन कर जाए धूमिल 
सब रंग .........
            -निवेदिता 

शनिवार, 3 नवंबर 2012

चाँद





चाँद भी अक्सर यूँ  ही बेवफा हो भी जाता है 
कस्मों को भूल रस्मों की याद दिला जाता है
रस्मों को  उलझाती  हुई  हर कशमकश में
उमगती  चांदनी  पर  अमावस  की याद में
धुंधलाती चादर का धूमिल शामियाना बन
राहों में श्वांस - श्वांस किरच सा बिछ जाता
अपनी ही नहीं बेगानी बेपानी आँखों में भी
अविरल बरसती अश्रु धार सौगात दे जाता
ये रेगिस्तानी ओस भी हमारे दरमियाँ पल
नागफनी की चुभन सा डस दंश दे जाती है
कसूरवार चाँद है या उस चंदा की ही चांदनी
अनसुलझी पहेली सा चाँद ताकझाँक करता
चमक - चमक कर ढूँढने निकला अपनी ही
अलबेली लगती सी चांदनी को ..............
                                          -निवेदिता




गुरुवार, 1 नवंबर 2012

रिश्ता एक चुटकी का ,सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का .....



जब भी किसी रिश्ते अथवा बंधन की बातें होती हैं ,उसमें कई बड़े - छोटे कारण और कारण दीखते हैं और बन भी जाते हैं | कुछ  रिश्ते जन्म से मिलते हैं ,तो कुछ विवाहोपरांत बनते हैं | विवाह के बाद  बनने वाले रिश्तों के बारे में जब भी सोचती हूँ तो उसकी  आत्मा  सिर्फ एक चुटकी होती है , जो अपने धर्म के अनुसार कभी अंगूठी पहना देती है ,तो कभी सिन्दूर से मांग सजा देती है ! एक पल में ही सर्वथा अनजाने व्यक्ति अटूट डोर में बँध जाते हैं | ये बंधन भी अजीब सा है कभी - कभी विचारों में भिन्नता होने पर और एकमत न होने पर भी उसी बात पर किसी अन्य के कुछ कहने पर अभेद्य कवच बन औरों के लिए बहुत तीखा प्रतिउत्तर भी बन जाता है |

कभी - कभी लगता है कि एक चुटकी सिन्दूर पड़ते ही ,जिसके लिए ये जन्म ही नहीं अनदेखे कई जन्म भी न्योछावर हो जाते हैं , उसीके लिए  पूरे वर्ष  में सिर्फ  एक  दिन ही  क्यों पूजन करते हैं अथवा व्रत रखते हैं ! इसका  कारण  मुझे  तो यही लगता है कि जिसका हमारे मन - प्राण पर पूर्ण अधिकार रहता है उसके चिन्ह को भी तो हम अपनी मांग की एक पतली सी रेखा में ही स्थान देते हैं | वैसे  ये   अलग  बात  है  कि उस सम्बन्ध को हम माथे पर अर्थात अपने  अस्तित्व  में सबसे अग्रासन देते हैं ! ये अग्रासन किसी दबाव में नहीं , अपितु स्नेहवश ही देते हैं | इस नन्ही  सी  एक  चुटकी की तरह ही अपने इस प्यारे से सम्बन्ध के लिए पूरे वर्ष में एक दिन "करवा - चौथ " पर विशेष कामना करते हैं !

अपने  अन्य  दायित्वों  के  सामने अगर हमको  किसीको अनदेखा करना पड़ता है , तो  हम  एक  पल की भी देर किये बिना ,अपने साथी को ही अनदेखा करते हैं ! शायद ये  अजीब  लगे पर  सच यही है कि दोनों के मन - प्राण  इतने एकमय  हो जाते हैं कि लगता है जैसे हमने  साथी  की नहीं अपितु स्वयं की ही अनदेखी की है | 

आज हर बात को हम तर्कों के आधार पर विश्लेषित करतें हैं | ये  मानने  में  मुझे तनिक भी हिचक नही  है  कि  किसी  भी प्रकार  के व्रत से किसी की उम्र अथवा आयु  पर कोई  प्रभाव नहीं पड़ता है , तब  भी  किसी  अपने  के  लिए  अपनी  सामर्थ्य  के  अनुसार  मंगलकामना  करना  तो  गलत  नहीं हो सकता | जब भी कोइ सुकृत्य अथवा धार्मिक कृत्य करते हैं तो एक सकारात्मक ऊर्जा तो परिवेश में प्रवाहमान हो जाती है | ये सकारात्मकता जीवन को कई नये रंग दे जाती है |

हमारे  हिन्दुस्तानी " वैलेंटाइन डे " अर्थात  एक  चुटकी   सिन्दूर  से  बने जन्म - जन्मान्तर के रिश्ते की मंगलकामना के बहुत प्यारे से रूप "करवा - चौथ" को  उत्स्वित करने वाले साथियों को इस पर्व की बहुत - बहुत बधाई और जो अभी प्रतीक्षारत हो कतार में हैं उनको शुभकामनाएं  :)
                                                                                        -निवेदिता