रविवार, 31 जुलाई 2011

तुमको हमारी उमर लग जाये ......

        
            आज अपने हमसफर के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर ,बस यूँ ही ,बहुत कुछ याद आ रहा है | मौसम के  बदलते मिजाज जैसा हमारा साथ कभी खिलखिलाहटों से गूँजता घर ,तो कभी हवाओं की सरगोशियों सा स्मित का आना-जाना ..... कब धीरे-धीरे आप बटर हाफ बनते गए और शायद मैं बिटर हाफ पता नहीं चला | वैसे सच पूछो तो अगर बटर हाफ और बिटर हाफ दोनों का संतुलन हो तभी बेटर हाफ बना जा सकता है :) इन अर्थों में हम इतना अधिक समझने लगे कि हम एक दूसरे के बेटर हाफ बन गये ,एक दूसरे की सीमाओं को असीमित करते हुए |
         बच्चों के हास्टल जाने के बाद आने वाली रिक्तता को समेटने के प्रयास में ,मेरा नाता ब्लागिंग की दुनिया से जोड़ने वाले भी आप ही थे | इस दुनिया में भी बहुत अच्छे मित्रों का साथ मिला | मेरी माँ के देहांत पर मेरी व्याकुल मन को समेटने के लिए मिशन के स्कूल में पढ़ाने के लिए भी प्रेरित किया और सच में वहाँ जा कर छोटे -बड़े बच्चों के साथ मन बहुत हद तक संतुलित हो गया था | मेरे जन्मदिन की अपनी पोस्ट पर आपने लिखा था कि आप वोकल नहीं हैं ,पर बिन बोले भी साथ दिया है .... खामोशी की जुबां बहुत मधुर होती है  ,पर सच कहूँ बोलने का अपना अलग ही आनंद है...........

            

शनिवार, 30 जुलाई 2011

डायबिटीज .........


मिठास सबको बहुत भाती है ,चाहे वो रिश्तों में हो अथवा सोच में | कोई भी खुशी हो और माहौल उत्स्वित हो रहा हो ,बस तुरंत मीठे की याद आती है | साधारण परिस्थितियों में हम मिठास को 
बनाये रखना चाहते हैं | परन्तु ये मिठास डरा भी जाती है ,जब वो रक्त में अनुपात बिगाड़ कर बढ़ 
जाती है और डायबिटीज़ का नाम ले लेती है | बस इस का नाम सुनते ही मीठे से दूरी बढ़ने लगती 
है और क्या खाएं अथवा क्या न खाएं ये सोचने लगते हैं |

डायबिटीज का नाम सुनते ही कई आशंकायें सर उठाने लगती हैं ,सबसे पहले इसके कारण को 
जानने की कोशिश करते हैं | पहले की मान्यता के अनुसार डायबिटीज अनुवांशिक कारणों से 
होती थी ,अर्थात अगर परिवार में पहले किसी को डायबिटीज होती थी तो उस की अगली पीढी 
के किसी सदस्य को होती थी | परन्तु अब डाक्टर मानते हैं की अनुवांशिक कारणों से अधिक 
जिम्मेदार अस्त-व्यस्त जीवन शैली है | समय से खाना न खाना ,ज्यादातर बाहर का खाना खा 
लेना ,जंक फ़ूड को अपनाते जाना जैसी अव्यवस्थित जीवन-चर्या बना लेने से शरीर आंतरिक 
और वाह्य दोनों ही रूप से प्रभावित होता है | मोटापा भी इसमें प्रमुख कारक बन जाता है | 

डायबिटीज के दायरे में आ चुके हैं इसके कुछ लक्षण हैं ,जो ज़रा सा ध्यान देने से ही पता चल जाता 
है | इसके रोगी को प्यास बहुत लगती है और भूख कम होती जाती है | मीठा खाने की तलब लगती 
है रक्त शर्करा की मात्रा अधिक होने से देखने की क्षमता भी प्रभावित होती है | थकान जल्दी लगती 
है |कहीं चोट लग  जाने पर ,घाव जल्दी नहीं भरते हैं | इन्फेक्शन भी जल्दी होते हैं |डायबिटीज का शिकार हम हो चुके हैं ,इस का पता तो रक्त की जाँच से पता चलता है | ये जाँच दो तरह से होती है  ......... पहली खाली पेट और दूसरी खाने के दो घण्टे बाद |

डायबिटीज से बचाव संभव है ,बस थोड़ी सी सावधानी और संयम बरतने की जरूरत है | सबसे पहले एक नियमित जीवन शैली की आदत डालें | समय पर संतुलित भोजन लें और नींद के भी समय  का भी ध्यान रखें | शारीरिक परिश्रम अथवा व्यायाम करने को अपने जीवन का हिस्सा बना लें | 
समय पर डाक्टर की सलाह के अनुसार जाँच भी करायें |


डायबिटीज अपने-आप में बहुत घातक न होते हुए भी ,अन्य बीमारियों से स्वस्थ होने में अवरोधक 
का काम करती है ,इसलिए इससे सचेत रहने की आवश्यकता है ! 

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

जीवन शैली .......

        अकसर सोचती हूँ , मेहनतकश और सुविधाभोगी इन दोनों जीवन-शैलियों में मूल अंतर क्या है ?
ये अंतर सिर्फ शारीरिक श्रम और आरामतलबी से ही जुड़ा है या कुछ और भी है ! कभी - कभी लगता है 
कि ये अंतर न होकर सिर्फ एक मानसिक विलासिता है |इस अंतर को दिखा कर हम अपनी श्रेष्ठता सिद्ध 
करना चाहते हैं |
         शारीरिक परिश्रम करने वाला व्यक्ति ,सिर्फ अपने काम को अंजाम देने में ही व्यस्त रहता है ,जिस
से वो अपनी मूलभूत जरूरतों को किसी प्रकार पूरा कर सके |इसके विपरीत सुविधाभोगी अपनी शरीर को 
यथासम्भव विश्राम देते हुए , अपनी पूरी मानसिक शक्ति सिर्फ इस में ही लगाता है कि किस प्रकार अपने 
धन को बचाते हुए , उनसे अधिकतम काम ले सके |
           इस विकृत मनोवृत्ति का दुष्परिणाम भी हमको ही झेलना पड़ता है | हम जब भी अस्वस्थ होते हैं ,
हमारा पूरा शरीर कभी भी अस्वस्थ नहीं होता ........ कभी हृदय रोग तो कभी किडनी की समस्या ...कभी 
मस्तिष्क तो कभी स्नायु तंत्र  प्रभावित होता है |कभी भी हमारा पूरा शरीर अस्वस्थ नहीं होता .... हमारा 
कोई न कोई अंग बीमार पड़ता है ,जिसके लिए हम विभिन्न विशेषज्ञों को तलाशते हैं जो हमारे उस अंग 
को फिर से काम लायक कर देते हैं |इसके विपरीत कभी भी अपने घरों में काम करने वालों की समस्या को 
देखें और उनसे पूछें तब पता चलेगा कि वो किसी अंग विशेष में दिक्कत नहीं महसूस करते ,अपितु उनके  
शरीर में दिक्कत है |वो पूरे शरीर का जीवन जीते हैं और हम जैसे सुविधाभोगी अपने शरीर को भी विभिन्न 
अंगों की किश्तों में महसूस करते हैं !
        वास्तविक रूप से महसूस किया जाए तो उन मेहनतकशों की जीवन-शैली हम सुविधाभोगियों से कहीं 
अधिक अच्छी है |अगर एक दिन भी सहायक न आयें तो अपना ही काम अधिक लगता है | हम सिर्फ खुद को 
बहलाते हैं कि ,अगर हम उन से काम न कराएं तब उन्हें पता चलेगा ...... जब कि सच्चाई तो इसके विपरीत 
है ..... वो तो नया काम तलाश लेतें हैं और उनका जीवन सतत चलता रहता है ...जबकि हम फुटकर अंगों 
के शरीर का दुष्परिणाम भुगतते हुए उनकी कमी महसूस करने लगते हैं .......चलिए कोशिश करते हैं कि कुछ 
आदतें उनसे भी उधार लेकर अपने जीने का तरीका सुधार लें !     

बुधवार, 20 जुलाई 2011

मर -मर के बहुत जी लिये .....

माँ दिन की चमक में 
उस रोशनी से तीखे 
नश्तर सरीखे शब्दों से 
घायल मेरी आत्मा 
तुम तक पहुँचने में 
रात की राह देखती है 
सहम जाती हूँ मैं भी 
जब पाती हूँ तुम्हे भी 
अनिश्चय के गलियारों में 
ज़रा सोचो न माँ .....
क्या तुम न होगी घायल 
जब मुझे कतरेंगे यूँ ही  
छोटे-छोटे टुकड़ों में.....
जब माँ मुझे फेंक देंगे 
किसी नाली या कूड़े में 
मेरे साथ में ,सपने तो माँ 
तुम्हारे भी फेंके जायेंगे ....
अभी जब मैं हूँ तुम में समाई 
तब कैसे समझती हो पराई 
एक बार बाहर आने तो दो 
मैं नहीं कहीं किसी से कम 
सबको ज़रा समझाने तो दो ...
बोलो न माँ ,अगर होती 
तुम्हारी माँ भी तुम जैसी 
तुम और तुम से आने वाली ये 
सभ्यता कहाँ से आने पाती ...
विज्ञान बना अभिशाप मुझ सी 
अजन्मी अनचाही बेटियों के लिए 
हमें तो पाना था तुम्हारा दुलार  
तुम्हारे कलेजे का संताप बन गए 
हमारी पीड़ा ना कभी समझे हैं
ये पिता चाचा मामा काका 
पर ज़रा उनसे पूछ तो लो 
न होंगी बेटियाँ तो कैसे ये 
पुरुष का पौरुष उनका मान
उनका जन्म कहाँ संभव होगा.....
अब हमें इतना तो समझो कि 
हम दिन में तुमसे बात कर सकें 
यूँ दहशत के साए में अनिश्चित सी 
ज़िन्दगी कैसे जी पायें .....
मर-मर के तो बहुत जी लिए 
अब तो ज़िंदा रहने के लिए जियें ....... 
                                   -निवेदिता 
  

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कहीं पलायन तो नहीं .......



हथेली से 
खिसकती जाती 
रेत सा 
बढ़ चला 
हठीला समय 
अवसान की ओर....
पत्ते भी हैं 
कुछ ज्यादा ही 
जल्दी में 
प्यास बुझाने को  
सूर्य-किरणों 
के आने के पहले ....
ओस की बूँदें 
मुँह छुपाती 
निगाहें चुरा 
बचाना चाहती हैं 
खुद को 
पता नहीं किससे ....... .
इस तरह 
चले जाना 
कहीं खुद से 
पलायन तो नहीं ....
        -निवेदिता 

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

अपना साथ ................

मैंने रिश्तों को सहेज रखा है ,नगीने की तरह 
पर तुम शायद ,अंगूठी कहीं रख कर भूल गए 


अपना साथ तो है अंगूठी जैसा ,
साथ रहते हैं तब उँगलियों में ,
साथ-साथ सजे रहते हैं ...........
जब कहीं चले जाते हो छोड़ कर ,
अपने होने के एहसास दे जाते हो ,
उँगलियों में निशाँ जैसे ............

अपना साथ तो शुभ शगुन सा 
हाँ ! ये भी सच है कि छोड़ जाता है 
कभी-कहीं कुछ निशां सा .........
पर वो निशां भी तो है प्यारा 
मेहंदी सा शगुन भरा...............


ये मीना-नग-नगीने तो 
दिखावे है या शायद झूठे हैं
एक सीधे-सच्चे धागे में 
पिरोये हुए काले से मोती
यही तो सीधे-सच्चे हैं  
चश्मे-बद-दूर !!!!!!
               -निवेदिता

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

सन्तुलन और तनाव ..........

     दबाव का संतुलन और इसका तनाव दोनों एकदम  विपरीत स्थितियाँ हैं | रोजमर्रा के नियमित काम हम अभ्यास के फलस्वरूप सहजता से करते जाते हैं |बेशक अकसर काम कठिन भी होते हैं और हमारी इच्छा  के विपरीत भी पर सहजता से सुचारू रूप से परिपूर्ण हो जाते हैं |इसके विपरीत अपेक्षाकृत सरल काम अचानक से आ जाने पर भी मस्तिष्क काम को करने के दबाव में आ कर असहज हो जाता है और उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है |  इसका सबसे आसान उदाहरण है कि कोई बहुत ही तेज़ गति से दौड़ रहा हो ,जो कि
श्रमसाध्य कार्य है ,वो थक रहा होगा तब भी संतुलन बना कर दौड़ता रहता है ,अगर अचानक उस को रोक दिया जाए तो वो या तो गिर जाता है या फिर लड़खड़ा जाता है | हमारे अचेतन या अवचेतन अवस्था में मस्तिष्क में जो संजो दिया जाता है उसको करना आसान लगता है |जब हम परेशान होते हैं तब हमारा व्यवहार एकदम अलग हो जाता है हम संतुलन खो बैठते हैं और दबाव का तनाव स्पष्ट दिखाई देता है |हमारा मस्तिष्क इस दबाव का सामना करने में लगभग आधी शक्ति लगा देता है | अब मानी हुई बात है कि आधी शक्ति से किया गया काम और उसका परिणाम संतुलित नहीं होगा |
             इस दबाव के तनाव का असर हम अपने पर कितना पड़ने देते हैं ,ये सिर्फ हम ही तय कर सकते हैं |इस का सामना करने के लिए हमें सिर्फ एक काम करना है कि अपने मस्तिष्क का संतुलन बनाए रखना है ,क्योंकि तनाव का असर तो ह्रदय पर पड़ता है पर इससे निकालने की क्षमता तो सिर्फ संतुलित मास्तिष्क में ही होती है |यह भी सच है कि जब तक हम जीवित रहेंगे ,कितने भी शिथिल पड़ जाएँ ,मस्तिष्क काम करना बंद नहीं करता और वो कई बातें सोचता रहेगा |इसका तात्पर्य है कि दबाव से बच नहीं सकते ,तो इस दबाव को संतुलित करने का प्रयास करते रहना चाहिए और जीवन में आने वाली छोटी - बड़ी खुशियाँ महसूस करते हुए ,ह्रदय और मस्तिष्क दोनों को पुष्ट रखना चाहिए जिससे वो संतुलित हो कर दबाव का सामना कर सकें |
                                                                                                                              -निवेदिता 
                                                                                                                               
            

शनिवार, 9 जुलाई 2011

छोटी - बड़ी बूंदी सरीखे .......

छोटी - बड़ी रंग - बिरंगी बूंदी 
सरीखे ,हम सब भाई - बहन ,
माँ - पापा के प्यार - दुलार भरे ,
अनुशासन की पावन चाशनी में ,
बँधे - गुँथे मोतीचूर लड्डू जैसे ! 
शुभ शगुन बढ़ाते साथ हो लिए ,
हमारे हमराही जीवनसाथी बन !
इस मिठास पर चांदी के वर्क सा ,
सजते हमारे चंचल बाल - गोपाल !
दूर आसमान के चंदोवे से ताक - झाँक,
पुलकित हुए होंगे माँ , पापा और भाभी-माँ !!!
                                                   -निवेदिता   

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

अवसादपूर्ण परिस्थितियाँ --साथ और सावधानी

        अवसाद ,तनाव ,पलायनवादी विचार ,निराशा--ये सब पढ़ने में तो एक शब्द लग रहें हैं ,पर जब वास्तविकता में इन में से किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़ता है तब इनका असली अर्थ समझ में आता है और इनकी गुरुता का भान होता है |कोई घटना ,कोई परिस्थिति या यूँ कहें कि कोई एक  लम्हा जो  हमारे पूरी सोच पर हावी हो जाता है और हमारे अस्तित्व पर ही एक प्रश्नचिन्ह लगा जाता है  ,उस से परास्त होने पर अवसाद का अनुभव होता है |ऐसे में सारी दुनिया और हर तरह के सम्बन्ध झूठे प्रतीत होते हैं |किसी की दी हुई अच्छी सलाह भी अपना उपहास उड़ाती सी लगती है |
         मेरा आज का प्रश्न या कहूँ उलझन यही है की ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए  ........क्या हमें उस व्यक्ति को अकेला छोड़ देना चाहिए ,जिससे वो अपनी समस्या से खुद लड़ कर समाधान पा सके |उससे उसकी उन तमाम उलझनों का कारण पूछना चाहिए ,फिर हल करना चाहिए |
         मेरी व्यक्तिगत सोच में तो उस व्यक्ति को सिर्फ इतना एहसास कराना चाहिए कि ,परिस्थितियाँ कितनी भी दुष्कर प्रतीत हो रही हो उसका समाधान पाया जा सकता है |इस सारी प्रक्रिया में हालात कितने भी बदतर हो जायें ,वो दुर्बल नहीं है हम अपनी सकारात्मक सोच के साथ उसके साथ हैं |वो किसी भी हाल में अकेला नहीं है |कितना भी नीचे गिर चुके हों और कोई मार्ग न दिख रहा हो ,तब भी ऊपर उठने की शुरुआत कभी भी की जा सकती है |  इस पूरी प्रक्रिया में ध्यान सिर्फ इतना रखना है कि हमारा साथ या समर्थन उसको जबरन थोपा हुआ न लगे |उसको सिर्फ सहभागिता का एहसास कराना चाहिए ,जिसमें उसको निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो |इस पूरी प्रक्रिया में विशेष सावधानीपूर्ण आचरण की आवश्यकता होती है क्योंकि अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति ही अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी न हो पाने की स्थिति  में सामान्यत: अवसाद का शिकार हो जाता है |तनिक सी भी ठेस उस व्यक्ति को गलत कदम उठाने के लिये प्रेरित कर सकती है !ऐसी किसी भी परिस्थिति में आवश्यकता सिर्फ़ उस व्यक्ति का आत्म्विश्वास जाग्रत करने की है । एक बार ऐसा हो जाने पर बाकी का काम सहज हो जायेगा .....

बुधवार, 6 जुलाई 2011

तुम्हे देव पुकारूँ........

आज सोचती हूँ तुम्हे देव पुकारूँ
तो हे सूर्य देव तुम्हे कुछ बतलाऊँ ,
तुमसे निगाह नहीं मिला पाते हम ,
कभी कहते आँखों में चमक लगती ,
पर अगले ही पल अचानक ...
आँखों में अंधियारा छा जाता,
सच में तुम बहुत जलाते हो .....
पर ये तो उस से भी बड़ा है सच ...
देव हमें जलाने से पहले 
तुम ख़ुद भी झुलस जाते हो !
सांध्य काल तुम्हारी 
कम होती प्रखरता ,
प्रफुल्लित करती मन .......... 
पर अगले ही पल ,
घिरता अंधियारा 
याद तुम्हारी लाता 
चंदा को विदा करती ऊषा ....... 
अपनी लालिमा से 
सजाती विस्तृत आकाश , 
तुम्हारे स्वागत में 
अर्ध्य जल लिए खड़े हम 
कभी सूर्यान्जली देते 
कभी करते सूर्य नमस्कार 
सराहते स्वीकारते तुमको ..... 
पर फिर वही ...........
तुम्हारी तीखी प्रखरता 
विचलित  कर जाती मन .... 
                                 -निवेदिता  

सोमवार, 4 जुलाई 2011

बोलो तो तुमको कैसे पुकारूँ ........

राधा ....राधिका ...........
या फिर कृष्ण प्रिया ...
बोलो तो तुमको कैसे पुकारूँ
ऐसा कौन सा संबोधन दूँ तुमको
जो तुमको मन भावे .....
ये क्या सवाल पूछती हो ....क्यों ...
अरे जो तुम्हे भावे ,वही तो मेरे 
श्याम साँवरे को रिझाये .....
अरिष्ट ग्राम की लाडली .....
गोकुल की मान .....
रायाण की सहधर्मिणी ......
मन मोहना की मन प्राण ......
तेरे तो नाम में ही कान्हा आ विराजे ...
'रा' ने दिया तुझे लाभ और 
सखी 'धा' में समाया मोक्ष.......
जिस राधा का अर्थ ही है ...'मोक्ष लाभ'..... 
बता तो कैसे न हो तेरे ह्रदय में 
कान्हा का निवास ............
बता और गोपियों को क्यों न मिला ,
ये छलिया ..... और सबने तो .....
उसे पाना चाहा ....पर तूने तो .....
कृष्णमय   होना चाहा ......
बता न बिना समर्पण के कहाँ मिले ....
आत्मा को प्राण .......
शरद पूर्णिमा की रात्रि सा निर्मल ,
सजता महारास औ खनकती झाँझर 
कान्हा की वंशी से बरसते राधिका के 
आत्मार्पित भाव ...... कभी झूले की 
ऊँची जाती पींगों सा झूमते ..........
चंद सवाल ........ ये मोरपंखी रंगों सा 
सजा-सँवरा सबको लागे कितना प्यारा ......  
                                                       -निवेदिता