गुरुवार, 31 मार्च 2011

गुमसुम खामोशी ........

इस गुमसुम खामोशी में 
ख्यालों की आंधियां लाते
अनसुलझे सवालों में 
धूपिल छाँव तलाशते
कैसे हैं ये जज्बात !
कभी पानी सा सरल 
कभी पानी सा कठोर,
धूमिल पगडंडी से 
धुंधलाते जाते रास्ते ,
कभी जुगनू सी चमक 
कभी बिजली की कडक,
कभी मील के पत्थर बन 
राहें सरल कर जाती ,
कभी गहराइयों में ढकेलती
खाइयों में दफ़न कर जाती ,
ये कैसी आवाज़ है दम घोंटती 
सुन कर भी अनसुनी ही करती .......
                        -निवेदिता    

मंगलवार, 29 मार्च 2011

आरक्षण : एक सुझाव मेरा भी

 

      आरक्षण ,सुरक्षित ,रिजर्वेशन -जैसे किसी भी नाम से पुकारें ,तुरंत ही 
विरोध के स्वर भी उठने लगते हैं |कितने आन्दोलन हो चुके ,कुछ हो रहे हैं 
और निकट भविष्य में  कितने होने वाले हैं ये तो अच्छे से अच्छा भविष्य बताने का दावा करने वाले भी नहीं बता सकते |कितने समाधान सुझाए गए 
रास्ते खोजने का प्रयास भी किया गया ,परन्तु परिणाम कुछ नहीं मिला |
ये आरक्षण जातिगत आधार पर ही किये गए हैं और जाति अथवा धर्म एक 
ऐसा मुद्दा है जिसको छेड़ने का साहस मत-लोलुप नेता कभी कर ही नहीं सकते |
      अभी कुछ समय पहले जनगणना के समय जाति आधारित जनगणना 
पर भी विवाद हुआ |इस आरक्षण रूपी दानव का सामना करने के लिए मेरा भी एक सुझाव है |जाति आधारित जनगणना करने के बाद हर जाति का एक अनुपात निकाला लिया जाये और उस अनुपात के आधार पर हर जाति 
के लिए स्थान आरक्षित कर दिया जाये |हर जाति जब आरक्षण के दायरे में 
आ जायेगी तब कोई उसका विरोध करेगा ही नहीं |बेशक ऐसा नियम बनाने 
से सामान्य सीट नहीं बचेगी |परन्तु हमें सामान्य सीट की जरूरत ही क्या है |ऐसा करने से कम से कम कुछ स्थान तो अन्य का भी पक्का हो जाएगा |
जहां स्थान कम हैं ,उस स्थान के लिए सिर्फ उन लोगों को ही विचारयोग्य 
समझा जाये जिनके अपने परिवार से कोई व्यक्ति देश की सेना का अंग रहा हो | इस बहाने  ही  सही  हम  अपने सैनिकों का कुछ तो सम्मान करना भी सीख जायेंगे |इस का सबसे बड़ा लाभ ये है की वो स्थान नेताओं की बपौती नहीं बन पायेगी |
         आरक्षण को या तो एकदम समाप्त कर दिया जाये ,या फिर सबका आरक्षण कर दिया जाये ,क्योंकि किसी भी आधार पर आरक्षण किया जाये 
निष्कलुष तो मौकापरस्त महानुभाव उसे रहने नहीं देंगे और उसका असर 
और लाभ तो होना नहीं है | 
                   निवेदिता

सोमवार, 28 मार्च 2011

"तत्सम से तद्भव होते रिश्ते .."

             आज यूं ही बचपन में पढी हुई हिन्दी की व्याकरण याद आ गयी |उस समय ' तत्सम और  तद्भव ' बहुत उलझन डाल जाते थे |वैसे भी नियम का 
पालन नियम की तरह कर पाना अभी भी बहुत दुष्कर  लगता है |नियम तो 
जैसे उस विषय का रस गायब कर बोझिल और नीरस बना देते हैं | मैंने इस 
समस्या का समाधान अपने तरीके से खोज निकाला  था | 'तत्सम' को  तो समझा किसी शब्द का संस्कृतनिष्ठ शुद्ध रूप और'तद्भव' को मैंने मान लिया 
कि तब वो ऐसा हो गया ,अपनी बाल-बुद्धि के अनुकूल संधि- विच्छेद कर के
अपने तर्कों के आधार पर |परिवार में सबसे छोटी होने  का  फ़ायदा उठा कर सब को मानने पर भी मजबूर किया और खुश हो ली |सबसे ज्यादा खुशी तो तब हुई ,जब हिन्दी विषय के रूप में छूट गयी और अब मैं बिना किसी बंधन 
के हिन्दी की हर तरह की पुस्तक का आनंद लेने लगी |
         कुछ समय बाद जब रिश्तों का ताना-बाना समेटने और सुलझाने का 
अवसर आया तो तत्सम और तद्भव की अपनी बनायी परिभाषा हर लम्हे पर 
याद आ जाती है |कोइ भी रिश्ता जब जुड़ना शुरू होता है,तब सब कुछअच्छा
ही नहीं सबसे अच्छा होता है क्योंकि वो हमारा चुनाव होता है और हम तो कुछ गलत कर ही नहीं सकते |असल दिक्कत तो तब आनी शुरू हो जाती है 
जब वो सच हो कर आपसे जुड़ जाता है | भई सच कहूं तो अपनी पास की नज़र तो कुछ ज्यादा अच्छी है तमाम कमियां ही कमियां दिखाई देती हैं और अच्छे-भले सम्बंधों का बंटाधार हो जाता और श्रीमान तद्भव जी पूरे 
परिदृश्य पर कब्जा किये विराजमान हो जाते हैं | संस्कृतनिष्ठ और पूरे के 
पूरे समाज द्वारा स्वीकृत निर्मल रिश्ते 'तद्भव' जैसे बदले रूप को पा लेते हैं |
          कपडे सिलने के लिए काटते समय दोनों पल्लों को थोड़ा छोटा-बड़ा 
कर के काटते हैं |ऐसे अगर दोनों सामान धरातल पर आ जायें तो देखने में 
आँखों को पूरा खोलना पड़ता है और ऐसा करने में आँखों को थोड़ा कष्ट तो होता ही है |अगर नीचे देखना हो तो ज़रा सा आँख खोल कर काम चल जाता है अर्थात अपनी सुविधाओं के घेरे में मनमाफिक जितना और जो चाहे हम देख लेते हैं | परन्तु अगर सम्बंधों की एक मजबूत इमारत बनाने हो तो उस के सारे पाए बराबर होने चाहिए |समता के लिए खूबियाँ और खामियां दोनों 
ही देखना चाहिए क्योंकि पूरी तरह अयोग्य होने की योग्यता , मुझे नहीं लगता है किसी में भी होगी |सम्बंधों को तो एक इमारत की तरह सुदृढ़ होना 
ही चाहिए ,न कि कपड़ों की तरह अल्पजीवी ! 
          अकसर मन तो यही करता है ,एक वरदान जैसे कोई कारीगर कहीं से 
अनायास ही प्रगट हो जाए और आज के दौर के बिगड़ते और बदलते रिश्तों की गरिमा को रीफिटिंग के द्वारा सुधार जाए |
                                                                -निवेदिता 

रविवार, 27 मार्च 2011

नन्हा सा बीज .......

एक नन्हा सा बीज 
हवा के झोंके से लहराता 
बिजलियों की चमक से घबराता 
बादलों में थिरकता 
बारिश की बूंदों में तैरता 
जा पहुंचा इक बाग़ में 
समय के थपेड़ों से अंकुरित हो 
था मगन अपने ही आप में
कभी फलों को परखता  
कभी फूलों को निरखता
सहज स्नेहिल सा पल्लिवत होता 
नन्हें-नन्हें पक्षियों ने किया बसेरा 
कलरव सुन-सुन हुआ  मगन 
पंछियों के आने-जाने की  
चंचल अठखेलियों में 
भूला प्रकृति का नियम 
एकाकी शुरू किया जीवन 
परिधि हुई पूरी 
हुआ फिर अकेला 
पंछी उड़ चले नए 
आसमान की ओर 
वृक्ष कभी उदास 
कभी मगन 
देखता उनकी परवाज़ 
देता आशीष ,मांगता दुआ
उनके नन्हे पंखों के नए दम-ख़म की 
आती आंधियां अपने पत्तों शाखाओं को 
समेटता सहेजता टिकने की कोशिश में 
बचाने को उनके मूल बसेरे को 
मांगता वक़्त नियति से इतना ही 
दृढ हो जाए उनके पंख 
पा जायें निर्मल धरती 
एक स्वच्छ आसमान .........
                  -निवेदिता 

गुरुवार, 24 मार्च 2011

कितने रिश्ते जाते छूट.........

किसी एक के न रहने से ,
कितने रिश्ते  जाते हैं छूट ! 
कभी ज़िंदगी का सच थे ,
फिर तो बस झूठ की सौगात! 
रस्मों को निभाते ,
इक खोखली बुनियाद पे !
खोजने का प्रयास ,
बनती जाती  पहचान !
ये पहचान भी खो सी जाती ,
जब भी आते जीवन में झंझावात ! 
                          -निवेदिता -

शनिवार, 19 मार्च 2011

गुरुवार, 17 मार्च 2011

रंग तो प्रिय .........

नीला -काला -बैगनी, 
रंग न ये तुम लगाना ,
ये तो सारे अंधियारा लाते !
लाल-गुलाबी-हरा औ पीला 
ये ही सब मनभाते हैं 
सबके  शगुन बन 
खुशियाँ फैला जाते हैं 
लाल चुनरिया ,
गुलाबी गात 
हरी है चूड़ी,
पीला रंग शगुन  
बन लहरा जाता 
रंग तो प्रिय वही लगाना 
तुम देखो ,मैं समझूं 
मैं निरखूं तुम परखो 
रंग तो प्रिय ........
             -निवेदिता-


बुधवार, 16 मार्च 2011

होलिका के प्रश्न ......

  हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मैं छुपने के - बच पाने के उपाय करते करते थक गयीं हूँ,तो सोचा इसके पहले कि कोई मुझे खोज के फिर से न जला दे,मैं खुद से ही सबके सामने आ कर कुछ बातें कर ही लूं  और जिज्ञासा     भी शांत कर लूं |                                                                                                     कभी आप सब सोच कर देखिये,आप तो मुझे जला कर अपने-अपने घरों  को लौट जाते हैं | मेरा क्या हाल होता है ?मैं किस तरह और कब तक उस 
जलन को झेलती हूँ ?फाल्गुन ऋतु के बाद आने वाली ग्रीष्म ऋतु में जब 
आप सब अपने घरों में पंखे और एयरकंडीशनर की शीतलता का आनंद ले 
रहे होते हैं ,मैं झुलसती रहती हूं और मुक्ति का उपाय खोजती रह जाती हूं |
जब मौसम बदलता है और वर्षा ऋतु में जलधार मेरे आबलों पर चोट करती 
है मै तिलमिला जाती हूं ,पर आप को इससे क्या !शीत ऋतु जैसे ही मेरा 
जीवन थोड़ा सहने योग्य करती है ,आप पर फिर से फाल्गुन का भूत सवार 
हो जाता है और फिर से आप मुझे जलाने की योजनायें बनाना शुरू कर देतें 
हैं |
आप सब सिर्फ मेरे एक ही प्रश्न का उत्तर दे दीजिये ,बेशक उसके बाद मुझे 
फिर से जला देना |आप मुझे जलाते क्यों हो ? पता है तुरंत ही यही बोलोगे 
कि आप तो बुराई को जलाते हो और मैंने कई बुरे कर्म किये हैं इसलिए मुझे जलाते हो |ज़रा सोच कर तो देखो होली में मुझे और विजयादशमी पर रावण 
को जलाते हो ,पर क्या वाकई बुराई जल जाती है ? अगर बुराई को जलाने में सच में ही,आप सफल होते तो हर वर्ष मुझे जला पाने के लिए पाते कहाँ से ?
ये सब बुराइयां जो समाज में व्याप्त हैं इनका कारण मैं नहीं आप खुद हैं |आप खुद अपने - आप को क्यों नहीं जलाते ? अपनी बुराइयां - अपनी गलत सोच को जिस भी दिन मान जायेंगे - जान जायेंगे आप का ये मुझे जलाने वाला काम खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगा और होली जैसा प्यारा सा त्यौहार 
सिर्फ रंगों में खो कर ही मनाएंगे |
अंत में मैं सिर्फ यही कहूंगी कि,मैंने आपकी बुराइयां गिनवाने का काम नहीं
किया है क्योंकि वो तो आप को सबसे बेहतर पता होगा |आप सब से इतनी 
विनती करती हूं , कि इस वर्ष मुझ को  ऐसे जलाना कि हर बार की तरह मैं आधी-अधूरी न जलूं !बुराई की बहुत सारी बातें आपने मानी हैं ,एक इस बात 
को मान जाओ तो मैं भी मोक्ष पा जाऊं ...........    

सोमवार, 14 मार्च 2011

" सुनो न कान्हा .............."

 क्या बनाओगे प्रभु !
कान्हा की बंसरी ,
या मीरा का इकतारा !
बंसरी सी संवरी (तो) 
सांसों में जा बसूंगी ,
बन गयी इकतारा (तो)
ह्रदय में छुप जाऊंगी ,
चलो बना लो 
वैजयंती-माल ही ,
तुम्हारे कंठ से 
शोभित हो जाऊंगी ,
सुनो न ,कान्हा 
कुछ मेरी तो सुन लो 
रचा  लो अपने पाँव 
बना लो महावर ,
कंकड़-कांटे -धूल
कुछ भी न तुम्हे 
कभी चुभने दूंगी , 
बस ना बनाना 
अपना सुदर्शन-चक्र ,
वध किसी का भी ना 
कभी कर पाऊँगी ,
शत्रु हैं , विरोधी हैं 
तब भी नाम तो तेरा ही 
जपते जाते हैं !
        निवेदिता

रविवार, 13 मार्च 2011

शाख ने कहा ............

एक टूटी हुई शाख ने ,
इक रोज़ कहा वृक्ष से ...
करना ही था अलग ,
क्यों जोड़ा मुझे 
वृक्ष की पहचान से ?
हटाने से पहले ,
दे दी होती मुझ में भी 
जड़ की सहायक सी श्वांस !
अलग होने का नहीं गम ,
बदले मैंने भी कई रंग 
कभी पूजित हुआ ,
कभी तिरस्कृत 
और कभी बन गया,
अंधे की लाठी समान !
कभी निर्बल का सहारा,
कभी अत्याचारी का बल 
देखे मैंने भी कई रंग !
अगर देते रहते मुझे ,
यों ही जीवन - बल 
मै भी छू लेता ,
आसमां की बुलंदी
लहराता - इठलाता 
भोग पाता , जी लेता 
अपना ये प्यारा सा जीवन !!!
                      निवेदिता

शनिवार, 12 मार्च 2011

" विद्वान और वेदना "

         वेदों को ज्ञान का कोष माना जाता है |ज्ञान किसी भी वस्तु ,चाहे वो  जड़  हो या चेतन ,की अनुभूति अथवा एहसास को कहते हैं |ज्ञान को प्राप्त करने की विधा को विद्या कहते हैं और जिसको ज्ञान प्राप्त हो जाए उसको ही विद्वान कहा जाता है |बौद्धिक स्तर पर प्राप्त होने वाला ज्ञान ,कुछ नियमों का पालन  करने पर ही मिलता है |इस ज्ञान को मूलत: विद्या माना जाता है |
          कुछ  अनुभूतियां शरीर और मन के स्तर पर अनुभूत की जाती हैं , इन को संवेदनाएं कहते हैं | इन शारीरिक और मानसिक अनुभूतियों में कुछ खुशी दे जाती हैं तो कुछ इसके विपरीत दुःख अथवा कष्ट |इन कष्ट पहुंचाने ,पीड़ा देने वाली अनुभूतिओं से वेदना जागती है |                                                          
          इन दोनों - विद्वान और वेदना - को अब अगर समझ जायें , तो किसी भी प्रकार के कष्ट अथवा पीड़ा के कारण का  एहसास  हो  जाएगा | जिसे  यह ज्ञान  हो जाता  है कि  कष्ट हो कहां रहा है अथवा क्यों हो  रहा है या यूं कह लें कि कष्ट नाम का एहसास है क्या,वही पीड़ा को समझ पाता है |यह कष्ट अगर शारीरिक  है , तब सिर्फ पीड़ा का भान अधिक अथवा कम  होता है , जिसको कहीं अन्यत्र व्यस्त होने पर कुछ पलों को भूल भी जाते हैं |परन्तु अगर यही पीड़ा मन के स्तर पर होती है तब जो पीड़ा का तीखा एहसास होता है ,उसको ही वेदना  कहते हैं | इस कष्ट से आत्मा प्रभावित होती है | ये  पीड़ा मानसिक होती है ,जिसको चेतना सरलता से भूल नहीं पाती |   

गुरुवार, 10 मार्च 2011

"सोने की लंका जली क्यों ?"

          'लंका' ये नाम तो कुछ जाना पहचाना सा लगता  है | सच  बचपन  से सुनते चले आ रहे हैं की जब लंका जल गयी तब हर चीज़ -चाहे वो सजीव हो या निर्जीव -जल ही जायेगी | अब ऐसे  चौंकती प्रतिक्रया  मत  दीजिये |भाई 
लंका जलने का कारण हम बाद में सोचते हैं,लेकिन पहले ये सोच लें किएक 
बार जल चुकी लंका को हम कितनी बार जलायेंगे |लंका में रहने वालों नेउस को जलाने की शुरुआत की अपने कर्मों से  बाकी का काम तो वीर हनुमाना " 
जय हो आपकी ,कुछ भी बाकी न छोड़ा ! हम तो बस  अब  तक लकीर  पीट रहे  हैं  और  समाज  में  व्याप्त  रावण-बंधुओं को  अनदेखा  करने  की  रस्म बखूबी निभा रहे हैं और उन से ही रावण को जलवाते हैं |
          लंका किसने जलाई ,कैसे जली जैसे सवालों को छोड़ ही देतें हैं | आज तो हम  भी  संकीर्ण  हो कर  सोचेंगे - ऐसा हुआ क्यों ? लंका का परिचय देते
हुए हमेशा कहा जाता है -सोने की लंका | ये शब्द "सोना "है क्या ? ये स्वर्ण है अथवा सोना अर्थात नींद | अगर ये स्वर्ण की वजह से जलती तो इन्द्रालय 
अथवा कुबेर का महल पहले जलना चाहिए था | 
           मुझे तो लगता है लंका के जलने  की  जांच अगर  किसी  एजेंसी  से करवाएं तो इसका कारण नींद ही पता चलेगी | ये  नींद सिर्फ  पलकों को बंद
करने से आने वाली नींद नहीं है | ये तो विवेक की पलकें बंद करने वाली नींद 
है ! ये आत्मा को सुला देने वाली नींद है ! संबंधों की तरफ से आंखें  बंद  कर
रखने वाली नींद है !समाज को भिन्न वर्गों में बांट  कर खुद को  श्रेष्ठ  मानने
वाली नींद है !अगर रावण ने शूर्पनखा के पति विद्युज्जिंह का वध नहीं किया
होता तो शूर्पनखा अविवेकी  न होती  और  रावण भी  कभी  उसे  अनियंत्रित नहीं छोड़ता | संबंधों  को  न  समझने के  फलस्वरूप  ही अपनी  राजनीतिक सत्ता  बनाए रखने की लिप्सा में कुम्भकर्ण को मद्य-व्यसनी न बनाता | प्रजा 
और शासक-वर्ग में इतना अंतर बना कर उनका शोषण न करता | 
         अब जब भी सोने की लंका के जलने की  बात करें , तब  उसके  कारण   
इस अविवेकी नींद को याद कर जाग जाइयेगा|समाज में व्याप्त कई बुराइयां
हमारी आत्मा के सो जाने का ही परिणाम है | विज्ञापन की  भाषा  में ' जागो  
बन्दों जागो ' .........

मंगलवार, 8 मार्च 2011

"बदलती परिस्थितियां"

      आज 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 'के उपलक्ष्य में बधाइयों-शुभकामनाओं से परिपूर्ण संदेशों का आदान-प्रदान हो रहा है | जैसा कि साधारणतया  होता   है,विरोध में भी कुछ मुखर स्वर सुनाई पड़े|आज बेशक दूसरे देशों जैसे दृश्य
हमारे परिवेश में नहीं हैं,परन्तु इस सच को भी झुठला नहीं सकते कि हमारे वर्त्तमान  माहौल में  महिलाओं  की स्थिति में अपेक्षाकृत  बेहतरी  के संकेत दिखते हैं | अपने घर के दायित्वों के  प्रति सचेत  रहते  हुए , आज  स्त्रियों ने समाज के निर्माण में  सहभागिता दिखाई  है | अगर घर से सहयोग न मिल रहा होता तो उनमें आत्मसम्मान और स्वाभिमान के साथ खुद की पहचान बना पाना संभव नहीं था |
      अगर हम अपनी सीमाओं और क्षमताओं को जान और मान कर प्रयास करें और जो भी हमारे इस प्रयास में सहायक बने  हैं , उन सब  को  स्वीकार 
करते हुए आगे बढ़े  तो और भी  अधिक अच्छे  परिणाम मिलेंगे | अभी हम 
नहीं कहने में कुछ जल्दी कर जाते हैं |आवश्यकता इस तथ्य को प्रभावी रूप 
देने की है कि हम में स्त्री की चरित्रगत गुणों को सुनियोजित आकार - प्रकार
दें |हमारे घर में शान्ति तब ही संभव हो पाती है ,जब हम शान्ति और संयम से सबकी जरूरत पूरी कर पाते हैं | ऐसा हम सिर्फ अपनी कई कामों को एक साथ करने की ,संतुलन बनाए रख पाने की विशेषता के फलस्वरूप ही कर पाते हैं |
        महिलाओं की  स्थिति की जब  भी  बात होती है , हमेशा  उनके घर से बाहर जा कर नौकरी करने को ही मुद्दा क्यों बनाया जाता है ? क्या घर में रह 
कर घर को सुनियोजित और सुचारू रूप से सुव्यवस्थित  रखना  किसी  भी बड़े कारपोरेट ऑफिस चलाने से कम मुश्किल काम है  ?  व्यक्तिगत  रूप से कहूं ,तो मुझे सिर्फ एक गृहणी होने का एकदम  अफ़सोस  नहीं  है | जब  भी बच्चों का स्कूल का रिज़ल्ट आता , मुझे लगता कि मै  एक योग्य शिक्षिका हूँ जो अपने बच्चों को पढ़ने का सही तरीका सिखा पायी , और  हमारे बच्चों ने इस को प्रमाणित भी किया | जब पति  को  उनके  कार्यस्थल  पर प्रशंसा मिलती ,तब मुझे लगता कि - हां मैंने एक अच्छी सहयोगी होने के कर्तव्यों का पालन भी किया है |सार्वजनिक रूप से भी एक वरिष्ठ सहकर्मी ने भी इस बात को कहा है | ये सब मेरी आत्मश्लाघा नहीं है ,सिर्फ एक छोटा सा प्रयास है  ये बताने का कि अगर आपका घर सुखी है तभी आप बाहर भी सफल  हो सकते हैं | अब भी मै ये मानती हूं कि अगर मै  भी घर के बाहर जा कर कोई काम करती , तब शायद मुझे  एक अलग पहचान मिलती ,पर शायद हमारे घर का ये स्वरूप नहीं निखरता और एक जरूरतमंद  बेरोज़गार  को  नौकरी नहीं मिलती  | अब भी जब-जब मौका पड़ता है  दूसरों के भी काम आने  की कोशिश करती रहती हूं और महिलाओं की लगातार  बेहतर होती स्थिति को महसूस करती हूं |साथ ही इस सच को भी मानती हूं कि अभी भी महिलाओं 
को हर क्षेत्र में  और अधिक  जागरूक होने  की ज़रुरत है | ये तभी  संभव हो पायेगा जब उनको अपने परिवार का और सहयोग मिले |
         इस महिला दिवस पर सिर्फ एक ही कामना करती हूं -महिलाओं को थोड़ा और सम्मानजनक स्थान मिले !!!
            

सोमवार, 7 मार्च 2011

लकडी की छीलन सी ................

लकड़ी की छीलन सी, 
परत हटाती जाती ज़िंदगी !
नया रंग-रूप पाने में 
कभी रंदे की, 
कभी आरी की ,
धार सहती जाती ज़िंदगी !
नए आकार को 
सम्हाल पाने में ,
हथौड़े की ठोकर 
सहती जाती बेचारी ज़िंदगी !!!
                               निवेदिता 

शनिवार, 5 मार्च 2011

" बालिका - विवाह "


       आज तक हम बाल-विवाह की ही बातें करतें रहें हैं | उसके दुष्परिणामों 
की आलोचनायें ही की हैं |सच ये तो बच्चों का बचपन छीनने की बड़ी गलत
और घृणित साज़िश है |परन्तु आज मै थोड़ा  सा  इस विषय से दूसरी तरफ 
देखना चाह रही हूं |आज बालिका- विवाह के बारे में चर्चा करने की  कोशिश
कर रही हूं | हाँ ,ये दोनों ही विषय एकदम अलग हैं |
                                          
        देखा आपने इस चित्र में बैठे हुए बुज़ुर्गवार कितने प्रसन्न हैं ,जैसे कितना बड़ा काम करने जा  रहे हैं | हालांकि देखने वाला यह  भी  सोच
सकता है कि हज़रत शादी करने जा रहे हैं या कन्यादान करने !!!
       सच्चाई तो यही है कि कोई कुछ भी कहे ,बुज़ुर्गवार ब्याह करने की 
सोच कर बेहद खुश हो रहे हैं |ज़रा सा उन के बगल में निगाह डालिए तो 
एक बच्ची दिख  रही  है , साथ ही उसका खिलौना भी | शायद उसको ये
पता भी नहीं  कि खिलौने से खेलते-खेलते अचानक वो खुद भी खिलौना बनने जा रही है | इस रिश्ते के कितने दुष्परिणाम होंगे ,अगर गौर करने लगिये तो शायद समय कम पड़ जाएगा |
       सबसे बड़ा पाप उस बच्ची को अशिक्षित रखने का होगा | बच्ची जब पढ़ेगी ही नहीं तो उचित-अनुचित का ज्ञान होने का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा |
उस नन्ही सी बच्ची को ज़िंदगी जो भी देगी ,वो उसको अपनी किस्मत ही 
समझेगी और सबके एहसानों के बोझ तले दबी ही रहेगी | शिक्षा से दूर रह कर वो न तो अपना भला कर पायेगी और न ही अपने परिवार का |
      बेमेल विवाह का एक और दाग़ उस  बच्ची  के  जीवन  में तब  आयेगा जब  वो जीवन को समझने और जीने योग्य होगी उसका साथी जीवन से थक चुका होगा | उस की मृत्यु के बाद भरपूर यौवनावस्था में ही विधवा का जीवन गुजारने को अभिशप्त होगी |उसके विविध कर्मकांडों को निभाते हुए 
तन-मन से गलती जायेगी | यदि परिवार में कोई विशिष्ट महानुभाव हुए तो 
उसका जीवन नारकीय हो जाएगा ,जिसे नातो वो जी पायेगी और न ही मर 
पायेगी !! 
       अभी भी कुछ स्थानों  पर सती - प्रथा भी प्रचलित है | हाँ  इसका नाम बदल कर 'पति-वियोग में की गयी आत्महत्या ' का  नाम  दे दिया गया है |
किसी  और  की  गलती  की सज़ा  के तौर पर उस से जीने का अधिकार भी छीन लिया जाता है |
       एक बार फिर सोच कर देखिये ,बालिका-विवाह कितना बडा अभिशाप
है | बाल-विवाह भी गलत है ,परन्तु उसमें कम से कम वर-वधु की आयु तो 
एक सी ही होती है |
        बाल-विवाह और बालिका-विवाह करने और उसमें सहयोग देने वाले महानुभावों का क्या किया जाए ,ज़रा सोच कर तो देखिये | कुछ सुझाव तो मेंरे पास भी हैं -   सबसे पहले तो उनको  हवालात की हवा भी खिलाएं और लात भी | उसके साथ ही साथ समाज से भी बहिष्कृत किया जाए | 
        



    

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

तुम्हारी ’हूं’.............

तुम्हारी छोटी सी एक 
बस एक 'हूँ' !
वाचाल मौन या 
मौन कथन 
तुम्हारी 'हूं' !
पार्थ की उलझन या 
कान्हा की सुलझन 
तुम्हारी 'हूं' !
लाडले की लोरी या 
वेदों का गान 
तुम्हारी ’हूं’ !
कभी ध्यान देतीं 
कभी अनसुनी करती 
तुम्हारी 'हूं' !
ये छोटी सी 
एक अक्षरी 
'हूं '???????????
                निवेदिता