गुरुवार, 21 जून 2012

रिश्तों का निर्वहन कर लें ....


कुछ अक्षर जैसे शिरोरेखा में हो सिमटे  
चंद आधे-अधूरे शब्द , जैसे हो मन्त्रों का शोर 
कुछ रस्में ,कुछ कसमें ,जाने कैसी रवायतें 
ज़िन्दगी शुरू करने से पहले ही लगा दीं गाँठे
पहले से ही लग चुकी कई अबूझ गाँठों पर 
नामालूम सी अजनबीयत की गाँठ और लगा लें 
आज फिर एक बार उन बोझिल परम्पराओं का 
नवीनीकरण कर लें ,जो कसमें ली रस्मों के तले 
उन रिश्तों का निर्वहन कर लें ......
                                         -निवेदिता 

रविवार, 17 जून 2012

जीवन का स्वाद ......



दिल के गोमुख में 
उमड़ कर बरसी  ये 
जीवनदायिनी गंगा है 
फिर कैसे मान लूँ 
सिर्फ खारा जल 
ये तो है बस उन 
नश्तर से चुभते 
लम्हों की एक 
डांडी - यात्रा 
हमारे दिल के 
जलते चूल्हे पर 
नयनों के पात्र में 
नमक बन चेहरा 
नमकीन बनाती हैं 
जानते हो !
नमक जरूरी है 
जीवन में भी 
लम्हे वरना बेस्वाद हो 
कहीं खो जायेंगे 
चलो ये भी हम 
बाँट लें आधा-आधा 
नमक रहे तुम्हारे पलों में 
नम मेरे चेहरा रहे ......
                 -निवेदिता 

शनिवार, 16 जून 2012

नीति ,नीयत और नियति


व्यक्तिगत ,प्रशानिक और सामाजिक स्तर पर कई दावे और वादे किये जाते हैं ,व्यस्था में आमूल परिवर्तन लाने के लिए ,पर अक्सर वो असफल हो जाते हैं | इसका कारण जानने का जब-जब प्रयास किया इसके मूल में मुझे सिर्फ एक ही तत्व प्रभावी दिखा और वो है "नीयत" का |  सत्ता और संस्थाओं के उच्चासन पर आसीन प्रमुख ,नीति-निर्धारण करते समय उस नीति के मूल तत्व की एक तरह से अनदेखी करके अन्य तत्वों को महत्व देते हैं | ये तथाकथित अन्य तत्व सामान्यत : उनके स्वार्थों की पूर्ति में सहायक होते हैं | ऐसी नीतियाँ समष्टि की अवहेलना करके व्यक्ति की मुखापेक्षी होती हैं | यही उस नीति-नियंता की नीयत दर्शाती है |

हम सब बचपन से ही सुनते आयें हैं कि नीतियों की नियति नीति निर्धारकों की नीयत पर ही अवलम्बित रहती हैं | अगर नीयत ही स्वार्थ पूर्ति की हो तो कितनी भी अच्छी योजना बना दी जाए ,उसको तो भूलुंठित होना ही है | जब भी कोई दल सत्ता सम्हालता है तब बहुत अच्छी नीतियों की घोषणा होती हैं ,बस यही लगता है कि "रामराज्य" बस द्वार खटखटाने ही वाला है | परन्तु पलक झपकने की भी मोहलत नहीं मिलती कि नीयत दिख जाती है और उस अच्छी और लोकलुभावन नीति का क्रियाकर्म हो जाता है | 

इस नीयत के फलस्वरूप ही हम प्रतिदिन नित नये घोटाले के बारे में सुनते हैं | ये घोटाले स्वास्थ्य सेवाओं में हो अथवा शिक्षा के क्षेत्र में , हर क्षेत्र में एक से ही परिलक्षित होते हैं | हम लोग एक सामान्य घटना मान कर सब कुछ भूल जाते हैं और समाचार-पत्र में अगले समाचार की तरफ बढ़ जाते हैं | 

वैसे ऐसा नहीं है कि ये बड़ी नीतियों में ही होता है | हम - आप सामान्यजन जो साधारण नैतिक जीवन में करते हैं वहां भी यही परिलक्षित होता है | हम अपने घर के पास वाले पार्क के सौन्दर्यीकरण के लिए पहल करते हैं और जैसे ही काम थोड़ी गति पकड़ता है ,हमारी नीयत बदलने लगती है | हम चाहने लगते हैं कि सबसे सुंदर पौधे ,हमारे घर की तरफ लगें ,बेशक उससे पार्क का प्रारूप ही अपरूप लगने लगे | अब हमारी इस नीयत  से पार्क के सौन्दर्यीकरण की नियति तो प्रभावित होनी ही है !अब किसी भी नीति के बारे में पता चले तो उस के नियंता की नीयत की जांच जरूर करनी चाहिए जो उस नीति की नियति निर्धारित करेगा !
                                                                                                     - निवेदिता 



शनिवार, 9 जून 2012

अमावस का चाँद



आज .....
तलाशना चाहतीं हूँ
अमावस का चाँद 
ऐसा कुछ 
असम्भव भी नहीं 
काली अंधियारी रात 
भी पूनम के चाँद सी 
चमक किलकती है 
वो शून्य ,वो वीरानी 
वो रिक्ति की विरक्ति 
सब कुछ पा कर 
चुने गये पुष्पों सी 
खाली हुई शाखा भी 
आंचल तले खिले 
सुमन की सुरभि 
से गर्वित होती 
पूजन के थाल में 
सजी-संवरी 
अपनी पहचान 
कृष्णार्पण होते देख 
अपना सूनापन भूल 
बहक-बहल जाती है 
बताओ तो ऐसा भी 
कहाँ असम्भव चाहा 
बस अँधियारी रात में 
पूनम का चाँद ही चाहा 
इस अमावस की चांदनी 
तुम्हारे चेहरों में खिलती है 
तुम्हारी खिलखिलाहट की 
रेखाएं मेरे प्राण में बसती हैं ......
                            -निवेदिता 

बुधवार, 6 जून 2012

और घूँघट डालना आ ही गया ........:)



जब शादीशुदा ज़िन्दगी की शुरुआत की थी ,तब जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा सताया था आज बरबस उसकी याद आ ही गयी | अरे  नहीं बन्धुवर , वो न तो हमारी सासूमाँ थीं और न ही कोई सौतन | वो तो था बस ये मुआ घूँघट ...कुछ फिट लम्बा और गांधारी की याद दिलाता | अपने राम तो थे उड़ती हवा  के झोंके  जैसे जब पाँव धरती पर नहीं टिकते थे तो साड़ी का पल्ला कहाँ सर पर टिकता | जब-तब महिला-मोर्चा की टोकती और घूरती निगाहें याद दिलातीं तब तो और भी कयामत आ जाती थी | कभी हम सर पर पल्ला सम्हालते , तो कभी हाथों से गिरता सामान | इतना होने पर भी हम कहाँ सुधरने वाले थे और फिर पुरानी आदतें जाती भी कहाँ हैं जल्दी | उस मुश्किल घड़ी में भी काम तो भाई ही आये ,पर इस बार जेठू भाई | जेठजी ने कहा "अब तो थोड़ी सी (एक-दो महीने ) पुरानी हो गयी  है तो घूँघट से नाक ढ़की होने की अनिवार्यता से नई बहू को  भी मुक्ति मिलनी ही चाहिए " | बस अनुमति मिलते ही घूँघट पल्ला बन कर जूडे पर ही एक पिन के सहारे टिक गया और मैंने भी राहत की सांस ली |

इस मुक्तिपर्व के बाद ,जब अपनी अलग गृहस्थी बसी तब तो कभी साड़ी का लहराता पल्ला होता जमीन छूता या फिर शराफत के साथ पिन की जकड़न में अनुशासित हो कंधे पर टिका रहता | दुपट्टा कभी  गले में होता , तो कभी एक कंधे पर और कभी दरवाज़ा खोलने की जल्दी में  कुर्सी पर ही  आराम फरमाता रह जाता | पर लगता है कहीं कुछ गलती हो ही गयी अनजाने में ,तभी तो ये जेठ का महीना आ जाता है घूँघट निकलवाने | ज़रा सा दरवाज़े को खोल कर झांकना भी हो कैसी भी ड्रेस पहनी हो ,तुरंत अपना चेहरा घूँघट में छुपा लेते हैं | बड़े-बड़े लोग जिस आदत को नहीं सुधरवा पाए ,बस सूर्य देव ने सुधार दिया |जरा सोचिये क्या विडम्बना है कि एक बार तो जेठू भाई  ने जिस घूँघट से मुक्ति दिलवाई थी , वही एक दूसरा जेठ  अपनी  प्रचंडता दिखा फिर से घूँघट में छिपने पर मजबूर कर देता है | मौसम का गर्म होना तो समझ आता है ,पर सूर्य देव की किरणें इतनी तीखी क्यों होती हैं नहीं समझ पाती .......( 
                                                     -निवेदिता