जब शादीशुदा ज़िन्दगी की शुरुआत की थी ,तब जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा सताया था आज बरबस उसकी याद आ ही गयी | अरे नहीं बन्धुवर , वो न तो हमारी सासूमाँ थीं और न ही कोई सौतन | वो तो था बस ये मुआ घूँघट ...कुछ फिट लम्बा और गांधारी की याद दिलाता | अपने राम तो थे उड़ती हवा के झोंके जैसे जब पाँव धरती पर नहीं टिकते थे तो साड़ी का पल्ला कहाँ सर पर टिकता | जब-तब महिला-मोर्चा की टोकती और घूरती निगाहें याद दिलातीं तब तो और भी कयामत आ जाती थी | कभी हम सर पर पल्ला सम्हालते , तो कभी हाथों से गिरता सामान | इतना होने पर भी हम कहाँ सुधरने वाले थे और फिर पुरानी आदतें जाती भी कहाँ हैं जल्दी | उस मुश्किल घड़ी में भी काम तो भाई ही आये ,पर इस बार जेठू भाई | जेठजी ने कहा "अब तो थोड़ी सी (एक-दो महीने ) पुरानी हो गयी है तो घूँघट से नाक ढ़की होने की अनिवार्यता से नई बहू को भी मुक्ति मिलनी ही चाहिए " | बस अनुमति मिलते ही घूँघट पल्ला बन कर जूडे पर ही एक पिन के सहारे टिक गया और मैंने भी राहत की सांस ली |
इस मुक्तिपर्व के बाद ,जब अपनी अलग गृहस्थी बसी तब तो कभी साड़ी का लहराता पल्ला होता जमीन छूता या फिर शराफत के साथ पिन की जकड़न में अनुशासित हो कंधे पर टिका रहता | दुपट्टा कभी गले में होता , तो कभी एक कंधे पर और कभी दरवाज़ा खोलने की जल्दी में कुर्सी पर ही आराम फरमाता रह जाता | पर लगता है कहीं कुछ गलती हो ही गयी अनजाने में ,तभी तो ये जेठ का महीना आ जाता है घूँघट निकलवाने | ज़रा सा दरवाज़े को खोल कर झांकना भी हो कैसी भी ड्रेस पहनी हो ,तुरंत अपना चेहरा घूँघट में छुपा लेते हैं | बड़े-बड़े लोग जिस आदत को नहीं सुधरवा पाए ,बस सूर्य देव ने सुधार दिया |जरा सोचिये क्या विडम्बना है कि एक बार तो जेठू भाई ने जिस घूँघट से मुक्ति दिलवाई थी , वही एक दूसरा जेठ अपनी प्रचंडता दिखा फिर से घूँघट में छिपने पर मजबूर कर देता है | मौसम का गर्म होना तो समझ आता है ,पर सूर्य देव की किरणें इतनी तीखी क्यों होती हैं नहीं समझ पाती .......(
-निवेदिता
हा हा हा …………यही तो होता है जिससे हम भागते हैं वो ही चीजें किसी ना किसी रूप मे हमारे सामने आ ही जाती हैं।
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत बढिया।
जवाब देंहटाएंwaah ...bahut badhia likha hai ...
जवाब देंहटाएंtaaki sundar chehra kumhaalye na suraj ki najar se :) usi mein bhalaai hai .maja to tab aata hai jab yuwa ladkiyaan bhi chehre ko dhak dhaamp kar chal rahi hoti hai :)
हटाएंपरंम्पराओ को इतनी जल्दी नही बदला जा सकता,
जवाब देंहटाएंMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
हा हा ...बढती उम्र और तेज धूप घूंघट की आड़ में छिप जाती है :):)
जवाब देंहटाएंसूरज बाबा सब देख रहे थे, उन्हें सब याद भी था।
जवाब देंहटाएंजेठ का महीना ही मुश्किल है फिर तो सूरज देवता इतने तीखे नहीं होते ...
जवाब देंहटाएंशायद वो परंपरा कों जिन्दा रखने के लिए एक महीने इतना गरम रहते हैं ... आखिर वो भी तो पुरुष प्रकृति के ही हैं ...
bahut sundar likha, itihas apane ko duharata hai ye galat nahin kaha gaya hai. phir se burke aur munh ko lapet kar chalane vali mahilaaon ki parde men rahane kee bari aa gayi hai bhale hi usako prakriti ne anushasit karne kee sochi ho.
जवाब देंहटाएंयहाँ महाराष्ट्र में तो साल भर चेहरा ढंकने का चलन है, ट्रेफिक पुलिस परेशान है इस आदत के कारण. बहुत सारी दुर्घटनायें होती रहती हैं, लेकिन ये बाज नहीं आतीं, हाँ यहाँ घूँघट का चलन नहीं है, शायद इसीलिए :))
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख
bahut khoob
जवाब देंहटाएंshandar article
Thanks
http://drivingwithpen.blogspot.in/
Bilkul Sahi Kaha....
जवाब देंहटाएंसुन्दर है!
जवाब देंहटाएंAakhir jeth ne aapna usar dikha hi diya....
जवाब देंहटाएंShahro ke bajaye dehaat me ghunghat ki parmpara abi bhi hai.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंtoo good!!!
anu
बहुत बढ़िया प्रस्तुति :-)
जवाब देंहटाएं:-)) sundar aalekh
जवाब देंहटाएंसच ही लिखा इस प्रचंड गर्मी ने अपने नज़ारे दिखा दिए ......बहुत खूब
जवाब देंहटाएंbahut hi rochak.........
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