कभी ओस की बूँद कहा
कभी पलकों तले का स्वप्न
कभी फूलों से मिलाईं
सुरमयी सुरभित मुस्कान
नाता भुला कर दिया कभी
कोमल पावन दामन तार-तार
कभी प्रस्तर मूरत बना
नानाविध पकवान्न सजाये
भोग लगा आप ही उदरस्थ कर गये
न्याय के दरबार में भी सजा दिया
पर रहे आदत से लाचार
हाथों में तो थमा दी न्याय की तुला
नयनों की रोशनी छीन बाँध दी पट्टिका
अब तो जो तुम बोलो वही सुनूँ
जैसा वर्णित करो वही अंधी आँखें देखें
प्रस्तर बन गयी मूरत में भी धडकन बन
दिल अभी शेष है ,कभी उसको भी तो देखो
इन शिराओं में आया कैसा अवरोध
गतिरोध बन रक्त प्रवाह थाम रहा
रास्तों में ही नहीं रिश्तों में भी
तलाश लिया तुमने बाईपास .....
-निवेदिता
sundar.... :)
जवाब देंहटाएंhttp://apparitionofmine.blogspot.in/
एक शिकायत ,एक आह दोनों का खूबसूरत समन्वय दोनों बातों को बयाँ करने में सफल हुई रचना बहुत सुन्दर |
जवाब देंहटाएंअद्भुत ,केवल अद्भुत .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अद्भुत रचना के लिये ,,,,बधाई निवेदिता जी,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
अध्बुध ... नए बिब को ले के लिखी रचना ...
जवाब देंहटाएंwaah bahut bahut sundar .alag si rachna likhi hai bahut sundar
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachna.. kripya mere blog me bhi padharen..
जवाब देंहटाएंhttp://pradip13m.blogspot.in
भावों को सशक्त शब्द दिये हैं .....
जवाब देंहटाएंरक्त तो सिराओं में ही पोषण देगा...
जवाब देंहटाएंसही हैं ...हर भाव को अपनी सही जगह मिली हैं ....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएं:-)
धन्यवाद आपका !!!
जवाब देंहटाएंगज़ब के बिम्ब सजाती हैं आप .
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव सशक्त रचना...
जवाब देंहटाएंरास्तों में ही नहीं रिश्तों में भी
जवाब देंहटाएंतलाश लिया तुमने बाईपास ........वाह बहुत ही सुन्दर।